धीरेन्द्रक कथाक सामाजिक सन्दर्भ
कथाक सामाजिक सन्दर्भ जीवनक समग्र चित्रसँ प्रकट होइछ। ओहि चित्रक केन्द्र-बिन्दु होइछ रचनाकारक अनुभव। ओहि अनुभवमे किछु अपरिहार्य वैचारिक स्थिति होइछ जे सामाजिक जीवनकेँ प्रभावित करैत अछि। रचनाकारक समाजक प्रति दार्शनिक दृष्टि, राजनीतिक मान्यता आ आर्थिक स्थिति जीवनक दृष्टिकेँ प्रभावित करैत अछि। एकहि संग विभिन्न दिशासँ अनेक प्रकारक विचार आ दृष्टि अबैत अछि। एहिसँ रचनाकारक दृष्टि क्रमशः संश्लिष्ट भेल जाइछ। संश्लिष्टता अनुभव-क्षेत्रकेँ व्याप्ति प्रदान करैत अछि। रचनाकारक अनुभव-क्षेत्र समाजक अनुभवक रूपमे स्वीकृति पाबि जाइछ। तात्पर्य जे रचनाकारक ओएह अनुभव समाजक अनुभव भए पबैत अछि, समजक दर्पण भए पबैत अछि जे सौन्दर्यक सृष्टि करैत हो। सौन्दर्यक सृष्टि भेल रचनाक सामाजिकता, सामाजिक सन्दर्भ। सामाजिकता थिक समाजरूपी नेहाइपर पीटि तैआर रूपाकृति, क्षेत्र। नेहाइ थिक व्यक्तिमन आ सामाजिक मनक द्वन्द्व। व्यक्ति मन चाहैत अछि लेखकक वैयक्तिक जीवनमे अनुभूत सुख-दुख, आशा-निराशा, भूख आ यन्त्राणाक अभिव्यक्ति। एहि प्रसंग लेखक बेससँ बेसी कहय चाहैत अछि, लिखय चाहैत अछि। परंच, व्यावहारिको जीवनमे एहन किछु व्यक्ति अवश्य भेटताह जे आत्मप्रशंसा करैत अघाइत नहि छथि। परंच, श्रोताकेँ वितृष्णा अवश्य भए जाइत अछि। आत्मप्रशंसी व्यक्तिकेँ अबैत देखि अथवा कोनोठाम पूर्वहिसँ विराजमान देखि चाहैत अछि कन्नी काटब। कारण स्पष्ट अछि। ओ व्यक्ति अपन मन आ सामाजिक मनक बीचक अन्तरकेँ बूझि नहि पबैत अछि। कहबाक अभिप्राय जे रचनाकारक वैयक्तिक जीवनमे प्राप्त अनुभूति तखनहि लोकक हृदयमे भाव जागृत कए सकैत अछि, जखन ओहिमे सामाजिक मनक अभिव्यक्ति रहय, ओ सामाजिक सन्दर्भ रखैत हो।
कथाकारक व्यक्तिमनक अभिव्यक्तिमे सामाजिक मनक अभिव्यक्ति अछि अथवा नहि आ जँ अछिओ तँ कतेक दूर धरि सफल भेल अछि, तकरा कोना नापल जाए। कोन पैलीसँ नापि पाठकक लेल प्रस्तुत कएल जाए। ओना सभसँ सुलभ ई विधि अछि जे जँ कोनो रचना पढ़ि अथवा सुनि कथाकारक व्यक्त अनुभूति पाठक वा श्रोताक सुप्त भाव केँ स्फुटित कए सकए, शान्त पोखरिमे फेंकल ढ़ेपसँ उत्पन्न हिलकोर सदृश्य वैचारिक जगतकेँ जे रचना उद्वेलित कए सकए, सएह ओहन रचना थिक। जाहिमे सामाजिक मनक अभिव्यक्ति रहैत अछि। ओएह रचना सामाजिक सन्दर्भक द्योतक थिक।
प्रत्येक नवयुवक जे निष्ठापूर्वक श्रम करैत अछि, आकांक्षा रहैत छैक जीवनमे किछु करबाक। जीवनमे किछु बनि देखेबाक। विश्वविद्यालयक डिग्री पबितहिं माय-बाप, भाइ-बहिनि आ सर-कुटुम्बक टकटकी शुरू भए जाइत छैक, किन्तु आशाक ओ दीपक जतय जीविकाक लेल आवेदन करैत अछि, परोक्ष विधिएं ओ रिक्त स्थान भरि देल गेल रहैत छैक। जे सुविधा-सम्पन्न रहैत अछि, जकर गतात-सूत्र मजगूत रहैत छैक, सभठाम सफल भेल जाइत अछि। मेधा आ उच्चशिक्षाक अतिरिक्त जकरा लेल आर किछु नहि छैक, जकर परिवारक आर्थिक मेरुदण्ड कमजोर छैक, आ ने पैरबीक पात्रता छैक, दरबज्जे-दरबज्जे निराश आ अपस्यांत होइत रहैत अछि। जतय कतहु जाइत अछि, लोक मुह दूसि दैत छैक। सभ आँखि प्रश्न करैत छैक-‘बेकार छी आइ-काल्हि कोनो काज किएक ने धए लैत छी?’(गीध’) जेनो कोना काज पकड़ि लेब पाठ्य-पुस्तक घोंखि लेब हो, अपन हाथक होइक। पढ़ाइक क्रममे पिता द्वारा महाजनसँ लेल कर्ज कम दुखदायी नहि छैक। शिक्षित नवयुवकक मनःस्थिति आ बेकारीक बढ़ैत रोगक स्थितिक वर्णन धीरेन्द्रक कथा ‘मनुक्ख बिकाएत’आ ‘गीध’मे नीक जकाँ भेल अछि।
सत्य हरिश्चन्द्रक जमानामे लोक अपनाकेँ बेचि वचनक पालन करैत छल, किन्तु आजुक युगमे केओ क्रेता नहि अछि, केओ ग्राहक नहि अछि। ठाम-ठाम ‘सत्यमेव जयते’ लिखल रहैत अछि, परंच विजय होइत छैक असत्यक। छल आ प्रपंचक। ओना सभकेओ अपनाकेँ सत्यवादी आ परहितकारीए कहैत अछि। घोषित करैत अछि। धीरेन्द्रक एकटा कथानायक कहैत अछि,‘ हरिश्चन्द्र! सुनह!सुनह!हम जोरसँ कहि रहल छियह। सुनैत छह हौ लोकसभ, एकटा मनुक्ख विकाएत, एक गोट ग्रैजुएट जे तोहर कोनो काज कए देतह। यदि अवसर दहक। ‘मनुक्ख बिकाएत’ परन्तु आजुक हरिश्चन्द्र ओकरा बूझि लैत अछि पाकेटमार। शिक्षित बेराजगारक ई व्यथा-कथा एक व्यक्तिक नहि रहि पबैत अछि। अपितु कथाकारक ई कटु अनुभव देशक लाख-लाख नवयुवकक अनुभव भए जाइत अछि। ‘कठखोधी’ जकाँ एक गाछसँ दोसर गाछपर बैसबाक विवशता एक व्यक्तिक नहि, सामाजिक सन्दर्भकेँ व्यक्त करैत अछि।
बड़का माछ छोटका माछकेँ खाइते अछि,। एक मनुष्य दोसर मनुष्यक अस्तित्वकेँ सेहो स्वादैत अछि। एक व्यक्ति दोसर व्यक्तिक श्रमक फलकेँ हथिया लैत अछि। अपनहि समाजक अपनहि वर्गक निर्बल व्यक्तिक आर्थिक, धार्मिक सामाजिक शोषण कए अपन स्वार्थसिद्धिक प्रयास चिन्ताक कारण बनैत अछि। ओ सुविधा सम्पन्न वर्ग छल-छद्म आ भेदभाव द्वारा श्रीहीन आ आश्रयहीन वर्गक अधिकारक अपहरण सदिखन करबाक चेष्टामे रहैत अछि। ओकर रक्त-मज्जाकेँ चूसि अपन परिधि-विस्तार करबामे पुरुषार्थक बोध करैत अछि। गामक एक गरीबहाक नेनाक वंशीक माछकेँ गामक मुहगर बिरजू बाबू छीनि सरकारी डबरोपर अपन अधिकार जमा लैत छथि। आ ओ असहाय नेना बंशीक तरैला जकाँ बिरजू बाबूक मुहक दिस शून्य दृष्टिएं तकैत रहि जाइत अछि। बिरजू बाबू आन लोकआन लोककेँ एक जीवित लहाससँ बेसी नहि मानैत छथि(गीध)। ‘गीघ’ अधिकार जमा लैत अछि। ओहिना गाम-गामक शिक्षण-संस्था ओकर ‘चरौर’ थिकैक। ओ कौखन नहि चाहैत अछि जे दीन-दुखीक धीया-पूता युग-युगसँ शोषित-प्रताड़ितक लोकवेद शिक्षा पाबय। शिक्षित भए सामाजिक अधिकारसँ परिचित होअए। अथवा सामाजिक न्याय पएबा लेल मूड़ी उठाबए(पझाइत घूरक आगि)। अपन शोषण-चक्रकेँ अवाधित रखबा लेल फगुनियां (ओकर फगुआ) सन युवकक जीवन-लीला अकालहि समाप्त कए देल जाइछ, ओ व्यक्ति बादुर (बादुर) जकाँ सभ गोलमे मिझरा जाइत अछि। लाभ-भोगक आकांक्षा रखैत अछि। किन्तु कथाकारक दृष्टि समाजक बादुरी चरित्रक व्यक्तिकेँ चिन्हा दैत अछि। छद्मबेशीसँ लोककेँ परिचित करा दैत अछि। वस्तु-स्थितिक यथार्थ चित्रणक संग न्याय आ अधिकारक पएबाक प्रति सतर्क रहबाक चाँकि आनि दैत अछि। डा. धीरेन्द्रक कथाक ई सामाजिक चाँकि सामान्य विशेषता थिक।
महादेवक विसर्जनक मन्त्रोच्चारणक बीचहिमे आद्याबाबू (धर्मात्मा) कमला महारानीक विनाश लीला तथा मलेरिया क आक्रमणसँ पस्त भेल सुकला द्वारा कर्ज चुकता नहि कएलाक कारण गारि पढैत छथि। वज्रसम कठोर आद्याबाबूक हृदयमे सुकलाक आर्तनाद किंचितो दया आ सहानुभूतिक मिसियोभरि कण उत्पन्न नहि कए पबैत अछि। आद्याबाबूर्के एक वातक पर्याप्त रंज छनि जे सुकलाक आङनवाली देह जँतबाक हुनक आदेशकेँ अनठिया देने छलनि। आ तँ मालिकक संकेत पबितहि बचनमा सुकनाकेँ ओधबेध कए दैत अछि। बैसले-बैसल आद्याबाबू पेटीसँ कजरौटी बाहर कए सादा कागज पर चटपट औंठा छाप लए लैत छथि। आ पुनः पढय लगैत छथि ‘सहस्र शीर्षा पुरुषः’ समाजमे ओहि कोटिक लोकक कमी नहि अछि, जे लोकक विवशताक प्रत्येक क्षणमे लाभान्वित होमय चाहैत अछि। धीरेन्द्रक कतेको कथामे सामाजिक जीवनमे व्याप्त एहि प्रकारक विसंगतिक प्रभावक उद्घाटन अछि।
धीरेन्द्रक अधिकांश कथाक जन्म समाजक ओहि क्षेत्रक व्यथाएँ होइत अछि जे सामाजिक स्तरपर तिरस्कृत अछि। शारीरिक स्तर पर बात-बात पर ततारल जाइत अछि। आर्थिक स्तरपर औंठा बोरबा लेल अभिशप्त अछि। बापे-पूते खटितो भविष्यक प्रति सदिखन चिन्ताकातर रहैत अछि। रौदी, दाही, बाढ़ि आ अकालसँ झमारल मनोहरा (घंटी) अपन प्रिय सिलेविया गाइक करिया बाछी नुनुआकेँ मात्र बीस टाकामे बेचि अपन दस वर्षक बेटा ठिठराकेँ कमेबा लेल पूब पठा दैत अछि। बपटुग्गर सोनमा प्रत्येक मास बापक कर्जा मनीऑर्डरसँ चुकबैत जाइत अछि। परंच नीत्तू बाबूक हेरायल बही भेटैत जाइत छनि। इमनदार सोनमा गाममे रहबाक अपन मोहकें त्यागि विदा भए जाइत अछि (सवाइ)। बंगट मिसरक (फतिंगा) अकारण नालि करब, गामक कतेको व्यक्तिकें मामिला मोकदमाक पसाहीमे झरका, मारि दैत अछि। श्वेत मेघक टुकड़ी सन पवित्र विवाहिताक लाहुरे (पति) जखन परदेशसँ नहि अबैत अछि तँ आर्थिक विवशताक कारणें गर्दनिसँ पोतेक छड़ (मंगल सूत्र) डबडबायल आँखिए बाहर कए एक बेरि चूमि, जूमा कए फेकि दैत अछि तथा शेरेचन होटलक प्रौढ़ महिलाक संग विदा भए जाइत अछि। (हिचुकैत बहत सेती )। दस वर्षक वीरेक जखन खेलेबा धूपेबाक बेर छलैक, माय ओ छोट पैघ बहीनक मोह ममताकेँ बिसरि असमय प्रौढ़ बनि नोकरीक ताकमे मोगलान (भारत) विदा भए जाइत अछि (पहाड़क फूल )। झोटहूबाबू(गामक ठठरी ) अपन बहियाक घर-घड़ाड़ी लिखा लैत छथि तँ गाम छोड़बाक अतिरिक्त आन कोनो उपाय नहि रहि जाइत छैक। करजाक फरिछौटमे मालिक पोसियाक गाय आ टुनाकेँ गोनराक बथानसँ खोलि लए जाइत छथि। ओही सवत्सला गायपर गोनराक समस्त परिवारक ध्यान केन्द्रित रहैत छलैक। एक धार दूधक प्रत्याशामे बैसल गोनराक नेनाक आशापर तुषारपात सेहो भए जाइत छैक। खूंटापरसँ गाय आ ओकर टुन्नाक खोलबाक काल नेनाक संग परिवारक समस्त सदस्यक मनोदशाक वास्तविक चित्र टुना कथाकेँ प्राणवान बनादैत छैक। धीरेन्द्रक कथामे समाजक निर्धन वर्गक अनेक विधि शोषणक चित्र भेटैत अछि।
धीरेन्द्रक समकालीन आ परवर्ती कतेको कथाकारक कथामे नारीक चित्रण एक मादाक रूपमे भेल अछि। ओ जैविक विवशताक तृप्तिक लेल इच्छामात्रहिसँ कतहु आ कौखन जा सकैत अछि। दूध पीबा नेनकेँ पोसिया लगा कए निर्भ्रान्त घूमि सकैत अछि। पति-पत्नीक बीच समर्पण आ एकात्म भाव नहि, प्रत्येक रूभंगिमासँ स्वार्थ टपकैत रहैत अछि। किन्तु, धीरेन्द्रक कथा आधुनिक युगक एहि कृत्रिम बन्धन आ विसंगतिसँ फराक अछि। ओ नारीकेँ प्रेम आ त्यागक मूर्तिक रूपमे देखैत अछि। ओकरामे ममता कूटि-कूटि कए भरल अछि। ओ व्यवहारपटु रहैत अछि। स्वयं कष्ट सहितो अम्लानमुख रहैत अछि। हृदयक विशालता ओकर विशेष गुण थिकैक। मामीक स्नेह (मामी), वुचनीक ममता, कर्मठता आ दारुण आर्थिक दुःस्थितिसँ लड़ैत रहबाक धैर्य (मादा काँकोड़) भौजीक सहिष्णुता आ व्यवहार कुशलता (गुम्मा थापड़) आभा आ घनमायाक स्नेह (पहाड़क फूल), गुड़की वुढियाक त्याग (बन्हकी) अगहनियाक भ्रातृत्व (कंठा) आदि उल्लेखनीय अछि। एकर अर्थ ई नहि जे धीरेन्द्रक कथाकार नारीसँ बल दया ममता आ समर्पण-कामना राखि चित्रित करैत छथि।
‘विधवा’ आ ‘देवीजी’ नितान्त मूल भिन्न गोत्रक कथा थिक। धन, वस्त्र आ आभूषणसँ नवकनियाँकेँ तोपि केँ राखि, सभ प्रकारक भौतिक सुख-सुविधाक अम्बार रहलो पर ओकर हृदयक भावकेँ दवा कए नहि राखल जा सकैछ कथाकार सेहो अनुभव कएल अछि। अनमेल विवाहसँ होइत अकाल वैधव्यक कारण ओकर माए-बाप, भाए- बहिन आ समाज सेहो समान रूपे दोषी अछि। देवीजी सामाजिक कुरीतिक विरोधमे ठाढ़ होइत छथिं तँ परिवारक आन लोक गंजनसँ तर कए दैत छनि। तथापि ओ डेरा कए चुप्प नहि भए जाइत छथि। ओहि तत्व सभक भतर््सना सँ बाज नहि अबैत छथि। धीरेन्द्रक एहि कोटिक कथामे नारीक शोषण चित्रित अछि। किन्तु शोषितामे अपन आक्रोश व्यक्त करबाक आत्मबल छैक।
धीरेन्द्रक कथाक संवेदना क्षेत्र व्यापक अछि। ओ मनुष्येत्तर प्राणीधरि व्याप्त अछि। मनुष्ये जकाँ पशुओक संग आत्मीयता स्थापित आ व्यंजित अछि। ‘मनुक्ख आ बकरीक एकटा बच्चा’, ‘सूगरक बाप’, ‘टूना’, ‘घंटी’ आदि एही प्रकारक कथा थिक। पुत्रक स्वास्थ्य-कामना निमित्त सुवैया कमला महारानीकेँ पाठी चढ़ेबाक कबुलातँ कए लैत अछि, किन्तु कोरामे पाठीक मेमिआएब सुनि, हृदय आर्तनाद कए उठैत छैक। तर्क-वितर्क चलैत अछि। द्वन्द्व होइत छैक-‘बलेलहा बचितौ, यदि कमला माइकेँ कबुला नहि करितहुन्ह ? चढ़ा आ जो।’ किन्तु सुबैया पाठीकेँ कोरामे कसने जाइत छैक। ओ कबुला बिसरि पाठीक संगे पड़ा जाइत अछि। एहि कथामे धीरेन्द्र मनुष्येतर प्राणीक संग आत्मीयता आ दयाक चित्रणक संग, लोकक धर्मभीरुतापर सेहो प्रहार कएल अछि। मनचनमाक आशाक बिन्दु अछि चारू पाऊर( सुगरक बाप)। ओहिमे सँ दू टा बेचि दुकौड़ियाक माइक लेल ललका नूआ कीनत, अपना लेल कलगैयाँ लोटा लेत, दुकौड़ियाक लेल जामा लेत, आ बसबिट्टी जोकर जमीन कीनत। किन्तु, बेचल पाऊर पड़ा कें जखन रातिमे पुनः खोभारीक कमची तोड़ि प्रवेश कए जाइत छैक तँ गहकी आ समाजक गारि-फज्झति सुनिओ ओ बेचब नहि गछैत अछि। दाम फिरबैत कहैत छैक- ‘नइ बेचबौ कतबो देबह तैयो ने। कहयो ने बेचबै। जखन ओ हमर दुआरि ने छोड़य चाहैत अछि तँ कहियो ने बेचबै।’ सूगरक जे बच्चा ओकर आशा-आकांक्षा आ आवश्यकताक पूर्तिक एक मात्र साधन छैक, से ओकर हृदयक अंग बनि जाइत अछि।
धीरेन्द्रक कथाक नायक-नायिका हारैत नहि अछि। ओकरा अपन शक्तिक प्रति आस्था छैक। अपना पर भरोस छैक। जीवनक प्रति विश्वास छैक। प्रतिकूल परिस्थितिमे संघर्ष लेल तत्पर रहैत अछि। सात मानवीय कायाक जननी बुधनी (मादा काँकोड़) भरि दिन रोड़ा फोड़ि सन्तानक प्रतिपाल करैत अछि। ओ मनमे निर्णय कएलैत अछि, ‘काँकोड़ नहि मनुक्खक बेटी छी आ ओकर बच्चा सभ मनुक्खक बच्चा। जकरा नेह छोह छैक।’ मायक मुह देखि जेठका बेटा बुधनीकँ कहैत छैक,‘ कनिके दिन रहलौए माए! वेसीसँ वेसी दू वरख। जखन हम जनमे जाए लगबौक तँ तोरा थोड़बे हरान होबए देबौक।’ अल्प वेतन भोगी सुन्दर (इजोतक प्रतीक्षा) इजोतक बटाबटीमे अन्हारक कष्टकें बिसरि बैसल अछि। जेठ बालकक बेकारीक दुखसँ आहत चरणदास छोटको बेटाकेँ पढ़ाइक खर्च देबाक निर्णय कए लैत अछि। ‘ओ फेर सिमरक फरक प्रतीक्षा करत। ओ एक गोट सुग्गा थिक जे प्रतीक्षा करबाक हेतु, निराश होएबाक हेतु बनल अछि। के जानय जाहि प्रकारें छिड़िआएल तूर लोकक काज अबैत छैक, तहिना तू सभ धरतीक कोनो काजमे आबि जाइक (सिमरक फर)। कठखोधीक एक गाछसँ दोसर गाछ परिश्रम करब जीवनक प्रति आस्था केँ व्यक्त करैत अछि। तात्पर्य जे कथा नायक आ नायिकामे जीवनक प्रति आस्था छैक। एकहि संग अनेको प्रतिकूल परिस्थितिक आबि जाएब ओकर विश्वासकें तोड़ैत नहि अछि। ओ पराजित नहि होइत अछि (अपराजित)। चरणदासक ई कहब जे छिड़िआएल तूरसन ओकरो बेटा घरनीक कोनो काजमे आबि जाएत, लेखकक सामाजिक दृष्टि आ संलग्नताक द्योतक थिक।
धीरेन्द्रक कथामे राजनीतिक विसंगतिक चित्रणक अपेक्षा आर्थिक आ सामाजिक शोषणक स्थिति विशेष मुखर आ प्रधान अछि। सोझ शब्दमे कहि सकैत छी, धीरेन्द्रक कथामे राजनीतिक चेतनाक अभाव अछि। परंच, सामाजिक, आर्थिक आ राजनीतिक क्षेत्र ततेक संश्लिष्ट आ अन्तरावलम्बित अछि जे एककेँ दोसरासँ फूटा कए देखब उचित नहि अछि। चेतना सम्पन्न रचनाकारक लेल असम्बद्ध रहब, असम्भवो भए गेल अछि। गामक राजनीति ओकर ‘फगुआ’ मे अछि, तँ देशक राजनीतिक विसंगति ‘मनुक्ख विकाएत’ आ ‘हड्डीचक माय’ सन कथामे भेटैत अछि। हड्डीक मायक कारुणिक अन्तसँ समाज चिन्तित नहि अछि। चिन्ताक कारण छैक एक खण्ड नूआ आ चारि सेर अल्हुआ व्यर्थ भए गेल, किएक तँ ओ वोट देबासँ पहिने समाप्त भए गेल। ( हड्डीक माय ) धीरेन्द्रक कथामे ओहि स्थितिक चित्रण विश्वसनीय अछि ‘जकर बीचसँ संघर्षक तेज पुंज निकलबाक चाही। परंच जे किछु बाहर होइत अछि, तकर धाह ताप उत्पन्न नहि करैत अछि। शोषणक पात्र बनल रहितो कतहु शोषित वर्ग एकठाम होइत नहि भेटैत अछि। घराड़ीसँ बेदखल भए जाइछ, जाल फरेबसँ कर्जक बोझ कहियो समाप्त नहि होइत अछि। फगुनिया सन समर्थ आ काजुल ग्रामीण युवककें मरबा देल जाइत अछि। (ओकर फगुआ) किन्तु ककरो मे कोनो सुगबुगी नहि भेटैत अछि। झालि-मृदंग ठोकैत फगुआ गबैत रहैत अछि। मरबा लेल गाम आएल बूढ़ा (गामक ठठरी) सहयात्रीक प्रश्न- ‘बाबा। तों झोटहू बाबूसँ तकरार किएने कएलह ! घराड़ी छोड़ि किएक चल गेलह ? तोरा जखन धरतीसँ एतेक मोह छलह, तँ खून भए जएतह ओकरा लेल’-सुनि मना करैछ-‘एना नहि बाजी’। अगिला जन्ममे लड़बाक निर्णय करब आ एहि जन्ममे शान्तिसँ अपन गामक धरतीपर मरबाक इच्छा राखब-कोनादन लगैत अछि। एहन स्थिति देखि लगैत अछि जे धीरेन्द्रक कथामे शोषण, उत्पीड़न आ डराएब-धमकाएबाक स्थितिक चित्रण अबैत अछि, तँ कथाकारक व्यक्ति मनपर सामाजिक मन आरूढ रहैत अछि। परंच, जखनहि सम्मिलित प्रयासँ एकटा तेज पुंज फूटबाक बेर अबैत छैक, कथाकारक व्यक्तिमन प्रबल भए उठैत अछि सामाजिक मन गौण। एहिना कथाकारक व्यक्तिमन ‘पीरा आम’ तथा ‘कलाकार आ प्रतिमा’मे सेहो प्रबल भए गेल अछि।
धीरेन्द्रक कथामे गामक धरतीक मोहक स्थितिक चित्रणक प्रमुख कारण अछि गामे नहि, देशो छोडि, विदेशमे जीविकापन्न होएबाक विवशता। ओ एहन देश जाहिठाम भारत जकाँ लेखककेँ अभिव्यक्तिक स्वन्त्रता नहि रहलैक अछि। ई मानसिक पीड़ा कोनहु लेखकक लेल दारुण होइत अछि आ ज विशेष संवेदनशील एवं भावुक रहला पर आर अधिक। तें सृजनक स्थितिमे बेर-बेर गामक धरती मोन पड़ैत भेटैत अछि। तैं की धरतीक मोहक अभिव्यक्तिकें धीरेन्द्रक व्यक्तिमनक मोहवादी कथा मानि बेरा देल जाए ! वस्तु स्थिति ई अछि जे कोनो व्यक्ति गाममे रहैत छथि अथवा गामक धरतीक निकट धरतीक प्रति आकर्षण कम रहैत छनि, आ जे शहरक कृत्रिम जीवनकेँ अपन जीवनक नियति मानि लेल अछि, गामक धरतीक सोह नहि अबैत छनि। महत्वपूर्ण प्रश्न अछि जे धीरेन्द्रक कथामे सोहनगर धरती छोड़िक नगर-उपनगरक कृत्रिम बसातमे जीवन गुदस्त करबाक विवशता किएक छैक? धीरेन्द्रक कथाक एहि सन्दर्भमे ई विशेषता मानल जाएत जे हिनक एको कथा नायक सामाजिक मर्यादाक उल्लंघन अथवा चोरि-डकैती कए गाम छोड़ि नहि पड़ैत अछि। पारिवारिक कलहो कारण नहि होइत अछि। धीरेन्द्र जाहि क्षेत्रक कथा कहैत छथि आर्थिक दृष्टिसँ नितान्त लसकल अछि। उद्योग धंधा छैक नहि। ओहि परसँ प्रत्येक वर्ष रौदी-दाहीक प्रकोप होइते छैक। जीवनक आधारक लेल कृषिकर्मकेँ छोड़ि आन कोनो साधन नहि छैक। किछु व्यक्तिक मुट्ठीमे गामक सम्पूर्ण धन-सम्पदा बन्द अछि। सम्पत्तिक एहि प्रकारें एकठाम भए जाएब, शोषण आ अत्याचारकेँ बढ़बैत अछि। जे शिक्षित छथि जीविकाक साधन नहि छैक, जे अशिक्षित अछि प्राकृतिक एवं मानवीय कोपक भाजन बनल रहैत अछि। परिणामतः, आजिज भए गामक धरतीकेँ छोड़ि बिदा भए जाइत अछि। परंच, गामक धरती छोड़बाक मोह कतहु चैनसँ रहय नहि दैत छैक। इएह कारण थिक जे बीस वर्ष पूर्व, मालिकक अत्याचारसँ बचबा लेल पड़ाएल बूढ़ एहि विश्वासक संग गाम अबैत अछि जे गामक धरतीपर मरलासँ स्वर्ग भेटैत छैक। ‘अपन धरतीपर मरलासँ सरग होइत छै ने आ परदेशमे मरबत तँ आतमा बुझलहक ने वाउ, परेत भए जाइत छै। हम अपन धरती पर मरब बौआ।’ पिताक गरीबीक कारण गाम छोड़ि बाहर गेल छौड़ा, शहरक सभ सुख-सुविधाकेँ त्यागि गाम घूमि आबैत अछि (गामक बेटा)। तथापि गामक वातावरण पहिने जकाँ निश्छल आ निर्मल नहि रहल। स्वार्थ आ आत्मकेन्द्रित होइत विचार, लोककेँ समेटने जा रहल अछि। आत्मीयता घटि रहल छैक। दाव-पेंच बढ़ि रहल छैक। गामसँ विवश भए शहर पड़ाएल छल। किन्तु, शहरक कृत्रिम जीवनसँ त्राण पएबा लेल आब कतए जाएत? गाममे जीविका नहि छलैक। परंच किछु दिन आत्मीयजनक संग व्यतीत करबाक सुविधा तँ छलैक। तकरो ग्रहण लागि रहल अछि। गर्मी छुट्टी शान्तिपूर्वक कटबा लेल गाम आएल कथानायक भारी मोनसँ सोचैत अछि, रोटीक जोगाड़ धरयबाक लेल विवश भए अपन माटितँ छोड़िए देने अछि, मुदा की एहि माटिक रूप एहन विकृत भए जएतैक जतय आबि मरण काल वितयबाक इच्छा नहि होइक? (बदर)। बापक कर्ज चुकेबा लेल सोनमा गाम अबैत अछि। किन्तु, नित्तू बाबू दोसर चिट्ठा बाहर कए लैत छथि। सभटा कर्ज अदा कए एकदम अन्हरोखे हाथमे टीनक बाकस लटकौने सोझे टीशन बिदा भए जाइत अछि। शहरक कृत्रिम जीवनक प्रति आसक्ति नहि छैक। गामक धरतीक मोह खंडित भए रहल छैक। एहि मनःस्थितिकेँ धीरेन्द्रक कथामे स्पष्ट स्वर भेटल अछि।
धीरेन्द्रक कथाक शिल्पक चर्चाक क्रममे बहुत रास बिंदु एकहि संग नाचय लगैत अछि। धीरेन्द्रक प्रायः प्रत्येक कथा गामक धरती पर, गामक खुरूरबट्टी पर, गामक खेत-पथारमे आ गामक जन बोनिहारक स्वेदकणसँ जन्म लैत अछि। तें धीरेन्द्रक कथाकेँ ग्राम्य कथा मानि लेल जाए, आकि आंचलिक कथा कहल जाए। हमरा जनैत दूनू दूटा भिन्न तत्व थिक। ग्राम्य कथाक आधार थिक विषय-वस्तु जखन कि आंचलिकता थिक एकटा शिल्प। कहबाक एकटा ढंग। ग्राम्यकथाक विषय-वस्तु गामेक रहब आवश्यक। परंच आंचलिकतामे गामो आबि सकैछ आ शहर नगरक कोनो एकटा मोहल्ला सेहो, जकर अपन वैशिष्ट्य छैक, अपन रंग ढंग छैक। जैं कि हमर प्रतिपाद्य धीरेन्द्रक कथाक शिल्प-विधान अछि तें आंचलिकता, जे एक प्रकारक शिल्प थिक, ततहि धरि चर्चा सीमित राखब उचित। कथामे कथाकारक ओतेक स्वाच्छन्न नहि रहैछ जे ओ अंचल विशेषक रीति-रेबाज, धर्म, संस्कृति, रुचि आ परम्परा, पावनि-तिहार लोकक उठब-बैसब, गप्प-सरक्काक वर्णन विस्तारसँ करए। आंचलिकताक सभगुणकेँ एकहि मोहित कए सकय। किन्तु, धीरेन्द्रक कथाक शिल्पक अध्ययन ई अवश्य प्रमाणित करैछ जे ओकर गरहनि आंचलिक छैक। आंहिंसं अंचल विशेषक गुणक महमही निःसृत होइत रहैत अछि।
डा. धीरेन्द्रक कथाक प्रारम्भ कथ्यक परिणतिक अनुरूप वातावरण निर्माणक संग होइत अधि। उदाहरणार्थ ‘सिमरक फड़’ (कुहेस आ किरण) शीर्षक कथा देखल जा सकैछ। ‘पछबाक तोर पर ढेरी ढाकी सिमरक तूर एम्हर ओम्हर छिरिया गेला टें-टें करैत सुग्गाक झुंड पुबरिया आकाशमे उड़ैत-उडै़त क्षितिज लग पसरल जमुनियाँ गाछी मे बिला गेल।’ सुग्गाक झुंड फलक प्रत्याशामे सिमरक फड़ पर लोल मारैत अछि, किन्तु चोंचमे आबि जाइत छैक तूर। कथाक चरण दास प्रथम पुत्र रामकिसुनकेँ शिक्षित करबाक व्रत लैत अछि। शिक्षित रामकिसुन नौकरीक फिराकमे दरबज्जे-दरबज्जे बौआइत अछि। अन्तमे सुग्गा जकाँ ओहो उड़ि जाइत अछि। चरणदास प्रथम पुत्रक असफलता आ जीविकाक तलासमे गाम छोड़बासँ अवश्य आहत होइत अछि। तथापि दोसरो पुत्रपर पुत्रेक मंगल कामनासँ खर्च करब गछि लैत अछि। धीरेन्द्रक प्रायः अधिकांश कथाक प्रारम्भ एही प्रकारें वातावरण निर्माणसँ भेल अछि। कथाक प्रारम्भ अन्तसँ करबाक ई पहिल शिल्प थिक।
समाप्तिसँ कथा आरम्भ करबाक शिल्पक दोसर प्रविधिमे कथाक अन्तक सूक्ष्म आ वाक्य विशेषक यथावत अथवा एनमेन ओहने प्रस्तुति कएल जाइछ। एहिसँ प्रतीत होइछ जेना कथा गोलाकार हो। ई शिल्प शुरूसँ अन्त करबाक अपेक्षा अथवा अन्तक स्थितिसँ कथा प्रारम्भ करबाक शिल्पक अपेक्षा विशेष लूरिक प्रयोजन रखैत अछि। तें वेशी कठिन अछि। ई शैली कथाकारक रचना प्रक्रियाकें सेहो स्पष्ट करैछ। धीरेन्द्रक कथा ‘गुम्मा थापड’, ‘कंठा’, ‘धर्मात्मा’ आदि एही शिल्पक कथा थिक। ‘गुम्पा थापड़’क प्रारंभ एहि प्रकारें होइछ-‘दीपेनकेँ लागि रहल छलनि मने पश्चिमाकाश सूर्य हुनकर मुँह दूसि रहल होथि। साइकिलक पैडिलपर राखल पयर थरथरा गेल आ ओ साइकिल परसँ उतरि गेलाह।’ कथाक अन्त एहि प्रकारें होइछ-‘भाउज मोख लगधरि अरिआइत देलथिन। अपन सीमा धरि आ फेर आंगन चल गेलीह आ दीपेन बिदा होइत होइत आकाश दिस देखलथिन तँ बुझना गेलनि माने पश्चिमाकाश सूर्य हुनकर मुँह दूसि रहल होथि।’
धीरेन्द्रक कथाक आकार छोट होइत अछि। छोट आकारक कथामे कथ्यकेँ विश्लेषित करबाक गुंजाइश नहि रहैत अछि। तखन कथाकार लेल आवश्यक भए जाइछ जे ओ संकेतसँ काज चलाबए। सांकेतिकतासँ भाषा सूक्ष्म आ सर्जनात्मक सेहो होइत अछि। संकेत सूक्ष्म होइतहु प्रभावे व्यापक आ धरगर होइछ। धीरेन्द्रक कथाक सांकेतिता मैथिली कथा साहित्यक उपलब्धि मानल जा सकैछ। ‘गुम्मा थापड’ एहि शिल्पक एक विशिष्ट कथा थिक।
‘गुम्मा थापड़’क सरल सौम्य हृदया भौजीक हास्य विनोद सुनि नवे नव बीडीओ बनल दीपेन बूझि लैत अछि जे, भौजी पचकल गाल आ थकुचल महत्वाकांक्षाक गोपी भाइसँ सन्तुष्ट नहि छथि। भ्रम छनि जे नारी टाकावलाक छैक। दिओरक प्रति व्यक्त हास्य विनोदकेँ दीपेन भौजीक आमंत्रण मानि, मने मन गूड़-चाउर फँकैत कहैत अछि-चाह अहाँतँ जे जे लाएब से लाऊ। सबहक लेल तैयार छी।’ पुनः सस्मित आनने भौजी दीपेन दिस तकैत छथि। भौजीक हावभाव आ दृष्टि निक्षेप पर दीपेन मस्त भए गुनगुनाए लगैत अछि। किछु कालक वाद भौजी चाह दैत छथिन आ पटिया पर समक्षहि बैसि एक जागल नेनाक मुँहमे इतमिनानसँ, आंगीक बटन खोलि, दूधक टुरनी मुँहमे लगबैत कहैत छथिन- ‘ई पांचो पोथी हुनके लिखल छनि। पाँचम हमरे समर्पित कएने छथि। मुदा अहाँ आब विआह कए लिअ। हाकिम होएब दोसर गप्प भेल आ संसार डेबब दोसर। बुझलिएक छोटका बाबू ? नीक लागत।’ भौजीक ई गुम्मा थापड़ छल। दीपेनके चटाक दन लगलनि। बुझबामे भाङठ नहि भेलनि हबड़-हबड़ चाह, घोंटि चोटे विदा भए गेलाह। ओतेक साहस नहि रहलनि जे गोपी भाइक घुमि अएबाक प्रतीक्षा करितथि। ई थिक कथाक सांकेतिकता। भौजी संकेतसँ सभ किछु कहि दैत छथि हँसी मजाक क माध्यमेँ। दीपेनक हाव-भाव पर भौजी तमसा सकैत छलीह। फज्झति कए सकैत छलीह। किन्तु से सब बिना कएने हास्य-विनोदमय वातावरणमे दीपेनकेँ अपन वहकबसँ परिचित करा देल।
धीरेन्द्रक कतेको कथामे प्रतीकात्मक शिल्पक प्रयोग अछि। ओना संकेत आ प्रतीकमे बड़ बेशी अन्तर नहि अछि। अन्तर अछि, अर्थव्याप्तिक। अर्थ विस्तार आ अर्थ संकुचनक कथामे प्रतीकक प्रयोग अनुभूति अर्थ ओ सम्प्रेषण बनेबा लेल कएल जाइछ। नव नव प्रतीक अन्वेषण आ तकर माध्यमसँ कथ्यक सम्प्रेषण रचनाकारक सर्जनात्मकताक द्योतक थिक। एकरा नव माध्यमक अन्वेषण सेहो कहि सकैत छी। धीरेन्द्रक प्रतीकात्मक शिल्पक कथामे प्रमुख अछि ‘बादुर’, ‘गीघ’, ‘कठखोधी’, ‘मादा कांकोड़’ ‘फतिंगा’ आदि। हिनक प्रतीक परिचित होइत अछि तथा ओकर माध्यमसँ कोनो मनोवैज्ञानिक सत्यक नहि, सामाजिक यथार्थक उद्घाटन कएल जाइछ। बादुर समाजक ओहि वर्गक प्रतीक थिक जकर कोनो सिद्धान्त नहि छैक। जे सदिखन अवसरक ताकमे रहैछ। जाबत धरि गोल बनल रहैत अछि सुतरैत छैक आ भेद-भाव एवं आपसी झंझट समाप्त हाइतहिं ओ देखार भए जाइत अछि। गीथ समाजक महाजन थिक। जे मुइले नहि जीवितो लोकक रक्त मज्जा चूसबा लेल ताकमे रहैत अछि। कठखोघी साधन आ आश्रयहीन व्यक्तिक प्रतीक थिक जे आहारक खोजमे जीवन भरि खट-खट करैत रहि जाइछ अछि। कतहु किछु भेटैत छैक, कतहु परिश्रम व्यर्थ होइत छैक आ कतहु बैसितहि केओ ढ़ेपा मारि भगादैत छैक। फतिंगा समाजक ओहि वर्गक प्रतीत थिक जे गामक किछु वर्गक अत्याचारसँ आजिज भए दूर देश पड़ा जाइत अछि। बोनि-बूतातक लेल राति-दिन खटैत अछि, तथापि महाजनक जाल-फरेब सँ उवरि नहि पबैत अछि। आ अन्तमे फतिंगे जकाँ झरकि प्राणान्त भए जाइत छैक। मादा काँकोड़ मातृत्वक प्रतीक थिक। आसन्नप्रसवा वुधनीकेँ दरवरिया छोड़ि उड़नमा पंछी भए जाइत छैक। किन्तु ओ अपन सन्तानक भरण-पोषणक हेतु देह तोड़ि खटैत अछि, आ ई असत्य घोषित करए चाहैत अछि जे ‘कंकोड़बा वियान कंकोड़बे खाए।’ एहि प्रकारे डा. धीरेन्द्र‘मादा कांकोड’क नव अर्थमे प्रयोग सेहो कएल अछि। ओकर अर्थ-विस्तार भेलैक अछि। प्रतीकक एहि नव प्रयोगमे मातृत्व अछि, संघर्षशीलता अछि आ अछि जीवनक प्रति अटूट आस्था।
पत्रात्मक शैलीक किछु कथा सेहो अछि। ओहिमे प्रमुख अछि ‘विधवा आ इजोत’क प्रतीक्षा। हिनक प्रायः अधिकांश कथामे एहन स्थिति अबितेटा अछि ने जखन कथाक कोनो-कोनो पात्रक आँखि डबडबा नहि जाइत हो। यद्यपि एकर सम्बन्ध शिल्पसँ वेशी व्यक्त भावनासँ छैक किन्तु आँखिक डबडबाए धीरेन्द्रक कथाक कौमन फैकटर थिक, तें एहि स्थिति एकटा शिल्पक रूपमे किछु काल लेल मानि सकैत छी। उपर वर्णित शिल्पक अतिरिक्तो प्रकारक शिल्पक प्रयोग धीरेन्द्र कथामे भेटैत अछि जे कथाकारक शिल्प-निर्माणक निपुणताकेँ द्योतित करैत अछि।