जँ समुच्चा ग्लोब केँ एकटा रंगमंच मानी त’ देखा पड़ैछ जे सबठाम नाटके चलि रहल अछि। सब व्यस्त अछि नाटके मे। सब नटकीया। सब ओस्ताज। घमासान एहि केँ जे ‘बड़ा नाटकीया के !’, मुदा एहि नाटक मे जे नहि तय क’ पबैत छी हम वा आहाँ से छैक ‘स्क्रिप्ट’। हमरा अहाँक जे स्क्रिप्ट लीखि रहलाह अछि तकरा पर हम आ अहाँ खेलाइत रहैत छी पटाक्षेप तक चलय वला एकटा अंतहीन नाटक। जेना-जेना जीवनक नाटक चलैत छैक तेना-तेना चलैत छी हम आ आहाँ।
मुदा हम आ आहाँ एकटा आर नाटक करैत छी जे दर्शकक लेल होइत अछि। आ एहि नाटक मे होइत छैक खगता कतेको सरंजामक। प्रायः करितो छी हमरालोकनि। लेकिन कतेक ठाम हूसि जाइत छी। ई हूसब जँ सब सँ बेसी ककरो दीक करैत छैक त’ ओ छथि दर्शक। आ जँ दर्शकके नहि त’ नाटक कत्त’ पाबी। पटनाक मैथिली रंगमंच एखन लगभग एहि सब दिकदारीक सामना क’ रहल अछि। आइ जखन की समस्त वैश्विक रंगमंच प्रयोग केँ आधार मानि नित-नित नव-नव प्रयोग क’ अप्प्पन रंगमंच आ रंगकर्म केँ माँजि रहल अछि, ठीक ताहि क्षण पटनाक मैथिली रंगमंच आ रंगकर्म अपना केँ रखने अछि ओतय जतय ई कम सँ कम दस-पंद्रह बर्ख पहिने छल। हमरा जनतबे नाटकक मूल मे किछु चीज छैक जकरा बिना कोनो नाटक अपना के ठाढ़ नहि क’ सकैत अछि। जेना की स्क्रिप्ट, लाइट, म्यूजिक, स्टेज क्राफ्ट, पात्र, निर्देशक, इत्यादि।
अप्पन बिगत लगभग पाँच बर्ख केँ पटनियाँ मैथिली रंगमंच केँ अनुभव सँ देखैत छी त’ ऐत’ सब सँ बेसी जे अकाली छैक से छैक स्क्रिप्टक। समसामयिक स्क्रिप्ट त’ लगभग नहिए सन अभरैत छैक। जे भेटैत छैक से कम सँ कम दस बर्ख पुरान। आ पुरान सिर्फ लिखबेक समय सँ नहि, अपन विषय-वस्तु केँ आधार पर सेहो। एखनो कतेको नाटक गामक पुरान सामंतवादीये व्यवस्थाक खिलाफ अपना केँ ओझरेने अछि। जखन की अझुका समस्ये किछु आर छैक। आइ लोक परेशान अछि त’ ओकर समस्याक स्तर आ मानदंड दोसर छैक। एहि समस्या सब केँ अबडेरैत कतेक दिन चलत रंगमंच ?
बेसी ठाम देखैत छी जे प्रेक्षागृह मे अस्सी प्रतिशत सँ बेसी प्रेक्षक युवा होइत छथि। जँ स्क्रिप्ट युवाक लेल नहि होइक त’ कतेक दिन धरि जोड़ि सकब हमरालोकनि एहि प्रेक्षक केँ अपना सँ। युवाक समस्याक त’ सिर्फ एकटा उदहारण कहल। आनो-आनो समस्या जे आइ काल्हि भ’ रहल छैक हमरा सबहक घर-गाम-जिला-राज्य आ देश मे तहियो पर बहुत कम्म स्क्रिप्ट आबि रहल छैक। सब सँ कम्म जे साहित्यक कोनो विधा लिखा रहल अछि त’ ओ अछि ‘नाटक’। गोटपगड़े लोक नाटक लीखि रहलाह अछि। जाहि मे सँ किछुये गोटे आँखि-पाँखि बला सब छथि। हमरा एकर मूलभूत कारण जे लगैत अछि से अछि नाटककार सबहक आत्ममुग्ध आ बन्न घर मे बैसि नाटक लिखब। बन्न घर मने जे ओ लोकनि आइ रंगमंच कतय छैक ताहि स्थिति सँ एकदम अनभिज्ञ छथि। भिज्ञ त’ होबइये पड़तैक ने! तखनहि ने नाटक जकरा लेल छैक तकरा लगतक पहुँचि सकतैक।
हालहि मे हम जनकपुर नेपाल गेल रही एकटा रंग महोत्सव मे। लगभग 6 टा नाटक देखलहुँ ओत्त’। जाहि मे सिर्फ एक्के टा केँ कहि सकैत छी जे ओ नाटक रहैक। रमेश रंजन लिखित नाटक ‘सखी’। निर्देशक रहथि शिल्पी थियेटर काठमांडू के निदेशक आ निर्देशक युवराज धिमिरे। युवराज मैथिली नै बजैत छथि। आ ने मैथिल छथि। तखन जे ओ एहि नाटक संगे न्याय केने छथि से देखब त’ छगुंता लागि जायत। लेखकीय कौशल त’ छहिये मुदा निर्देशक सेहो कत्तौ झुझुआन नहि लगैत छथि। सब सँ बेसी जे प्रभावित करैत अछि से अछि अनुशासन। एहि नाटक सँ पहिने पांच टा नाटक भ’ चुकल रहैक मुदा ओ माहौल नहि बनल रहैक जाहि मे बुझि पड़ै जे हम सब एकटा सभ्य प्रेक्षागृह मे बैसल छी। गेट सँ अंदर घुसितहि एहि नाटकक किछु पात्र अपना फुल गेटअप के ठाढ़ विनम्र निवेदन करैत भेटितथि जे आहाँ कृपया अप्पन मोबाइल बन्न क’ लिय’। बहुत रास चीज देखा पड़ैत अहाँके रंगमंचीय अनुशासन के। हम रमेश रंजन के उद्घोषणा मे सुनलहुँ जे ‘जहिना नाटक करबाक अनुशासन होइत छैक तहिना देखबाक सेहो होइत छैक, पात्र अप्पन अनुशासन करैत अछि आहाँ लोकनि अप्पन करियौक”। शत-प्रतिशत सहमत छी हम एहि उक्ति सँ। पटना के संदर्भ मे हम जे सब सँ बेसी कमी अकानैत छी से यैह दुनूक अनुशासनहीनता।
एकटा रंगकर्मी मित्र कहलनि जे ओ एकटा नाटक मंचस्थ केलनि मुदा ओहि नाटक के फाइनल रिहर्सल वा रनथ्रू नै भ’ सकल रहैक। निश्चय छगुंता लागत जे एहेन मे नाटक हेतैक कोना ! मुदा भेलैक। होइते रहैत छैक। सब सँ बेसी जे कांसेप्ट स्क्रिप्टक अकाली अनलक अछि ओ अछि कोनो कथाक ‘नाट्यरूपांतरण’। कतेको कालजयी कथा केँ चट्ट द’ नाट्यरूपांतरण क’ नाटक होइत रहैत अछि रहरहाँ। एहि बीच त’ श्री महेंद्र मलंगिया जीक श्री यात्रीक कविता ‘विलाप’क नाट्यरूपांतरण सेहो देखल। नाटक निसंदेह नीक भेलैक। मुदा श्री महेंद्र मलंगिया सन सक्कत नाटककार ई कोना आ किया केलनि से कम सँ कम हमरा बुझय केँ बुत्ता सँ बाहरक गप्प थीक।
पटनाक संदर्भ मे सिर्फ स्क्रिपटे टा केँ अकाली नै छैक, निर्देशकक सेहो घोर अकाली छैक। आँखि-पाँखि बला निर्देशक एकाधे टा भेटैत छथि। जे छथियो से आब अपने केँ दोहराबय लागल छथि। कतौ पढ़ने रही ने जखन कोनो क्रिएटिव आदमी अपना केँ दोहराबय लगय त’ ओकरा ओहि विधा सँ अपना केँ फराक क’ लेबाक चाही। मुदा एहन सन स्थिति मे ओ लोकनि अपना केँ ई कहि बचा लैत छथि जे ‘ई हमर अप्पन स्टाइल/फॉर्मेट अछि।’ निर्देशकीय कौशल सँ भरल नाटक देखला पटनाक रंगमंच पर लगभग नहिए सन मोन पड़ैत अछि। जे किछु लोक छथियो से कतेको कारण सँ थ’स लेलनि। जहिना साहित्य मे महंथी छैक तहिना नाटको मे महंथी खूबे चलै आ फबै छैक। प्रायः फबीये रहल छैक। एहि सब सँ जौँ ककरो सब सब बेसी घाटा छैक त’ ओ छैक सुच्चा जे नाटकक लोक अछि तकरा। ओ ने नीक नाटक देखि पबैत अछि आ ने क’ पबैत अछि। प्रत्यक्षरुपे हमरा सँ हम घटि रहल अछि। मुदा नाटक त’ हमरा मे हम्मर के तक्काहेरी होइत अछि। पटना मे जे किछु आर दिकदारी अछि मैथिली रंगमंच मे ओ अछि मंचक पार्श्व मे कुशल लोकक अभाव। मंच सज्जाक नाम पर किछु बेंच, कुर्सी, आ किछु गाछ-बिरिछ राखि ओकरा अनेरे केँ भारिया देल जाइत छैक। मने कैक बेर देखल अछि जे, जे क्राफ्ट नहियो जरुरी छैक तकरो अनावश्यक प्रयोग आ जे आवश्यक छैक तकर बिलकुल प्रयोग नहि।
मोन पड़ैत अछि एकटा नाटक ‘धूर्त-समागम’। पटने मे खेलायल गेल छल। एहि नाटक मे लगभग सबटा सीन रातिक छैक मुदा एहि मे ब्लू लाइट कम्म आ उज्जर आ पीयर बेसी प्रयोग कयल गेलैक मंच पर। हरेक घटना-सीन वा संपूर्ण नाटकक अप्पन रंग होइत छैक मुदा से तकरा लेल जे बुझि सकै एहि व्याकरण केँ। एहि ठाम त’ सिर्फ हेब्बा सँ माने-मतलब छैक। बाँकी गप्प के पुछैत अछि। पटनाक सबसँ सीनियर आ सिद्धहस्त निर्देशकक नाटक मे सेहो ऐहेन लूप सब देखा पड़ैत अछि कैक बेर। एखनो कतेको नाटक एकटा उतरल नाल बेतालिया झालि पर खेला लैत छथि ओ लोकनि। जखन की आइ मॉडर्न थ्येटर एखन आकाश छुबि रहल अछि ससक्त पार्श्व सहयोगक कारणे।
हालहि मे भारंगम मे गेल रही दिल्ली। कतेको नाटक देखलहुँ। मैथिलीक सेहो एकटा नाटक रहैक— “आब मानि जाउ”। मैलोरंग केने रहैक। निर्देशक रहथि प्रकाश झा। नाटक मे सबटा बढ़ियाँ रहैक मोटा-मोटी। किछु कामो-बेस त्रुटि त’ स्वाभाविक छैक। होइते रहैत छैक। मुदा मंचीय-अनुशासन आ पार्श्व सहयोगक बेजोड़ उदाहरण ठाढ़ करैत अछि ई नाटक। मंचस्थ कलाकार आ पार्श्व केँ कलाकार गज्जबे रुपे एक दोसरा केँ सहयोग करैत छथि। बहुत कम्फर्ट भ’ दुनु गोटे अप्पन-अप्पन काज केने जाइत छलाह। सांगीतिक पक्ष कने कमजोर अवश्य रहैक। मुदा टानि लेल गेलै नाटक परस्पर सहयोग सँ। पटनाक सन्दर्भ मे एहेन गप्प कम देखा पड़ैत अछि। एतय सहयोग सँ बेसी महंथै देखा पड़ैत छैक। महंथ जी सब केँ ई बर्दास्त सँ बाहर छन्हि जे कियो हुनका अबडेर देन्हि। ओ जाहि चीज केँ नाहियो बुझैत छथि ताहू मे अपना के निष्णात सिद्ध करबा पर वीर्त रहैत छथि। सीधा-सीधा गप्प छैक जे हम जे चीज नै बुझैत छी वा जे नहि अबैत अछि हमरा से जकरा अबैत छैक तकरा हायर क’ ली। निस्सन काज हेतैक। मुदा नै कयल जा सकैछ। कियैक ? हमरा जनैत एकर दू टा मूल कारण अछि। पहिल महंथी वला मानसिकता आ दोसर अनप्रोफेसनल रवैया। पटनाक मैथिली रंगमंच मे लगभग सबटा काज मंगनिये चलैत छैक। जे पाइ लेल बाजल से समाजक बाहरक लोक छथि वा क’ देल जाइत छथि। समुचित केँ कहय उचितो नहि देल जाइत छैक। असल मुद्दा पाइ के नहि छैक। मुद्दा छैक बिनु पाइ केँ काज लेबाक मानसिकताक। कोनो विशेष हर्जा नहि होइत छैक बिनु पाइ केँ। मुदा प्रश्न मानसिकताक होइत छैक। एहेन कोन मानसिकता जे सबटा काज सहयोगक नाम पर होइक। हमरालोकनि एतेक सहयोग पर कियैक जीबय चाहैत छी? आ से कतेक दिन जीयब? से ऐना कियैक रंगमंचीय जीवन जीबाक लीलसा ?
कतेक दिन कोनो कलाकार सिखबाक नाम पर वा सहयोगक नाम पर झोंकैत रहत अपना केँ एहि मे? मारितेरास प्रश्न अछि कपाल कोटरी मध्य मुदा से फेर कहियो। एखन दुष्यन्त मोन पड़ैत छथि—
“दोस्तो ! अब मंच पर सुविधा नहीं है,
आजकल नेपथ्य में सम्भावना है।”
(ई आलेख 2016क अरिपनक वार्षिक पत्रिका ‘अरिपन’ मे प्रकाशित)