कोनहु विशेष संदर्भ मे कोनहु कवि किंवा हुनक कविताक प्रसंग विचार करबाकाल कविक रचना, विचार आ हुनक वैचारिक वक्तव्य तीनू महत्वपूर्ण होइत अछि। कविक वैचारिके स्थिति अपन विभिन्न अनुकूल अंगोपांगक संग अन्यान्य दैशिक-कालिक सहयोगी स्थितिक आश्रय ग्रहण करैत, शिल्प-शैली-भाषा प्रभृति तत्वसभक समर्थन पाबि कविताक रूप धारण करैत अछि। रचना-प्रक्रियाक शृंखलाक रूप मे एकरा एहि प्रकारे सेहो कहल जा सकैत अछि जे कविक व्यक्तित्वेक अपवर्तित रूप अछि कविक विचार आ एहिए विचारक अपवर्तित रूप अछि कविता। कविक वैचारिक स्थिति हुनक कविताक पृष्ठभूमि-भावभूमिक निर्माणक एकटा प्रमुख तत्व अछि। जीवन-जगतक अंतर्बाह्य अनुभव सभ जखन कविक मोन मे विचाररूप मे आलोडि़त होइत अछि तखने कविता-बीजक सम्भावना प्रबल भ’ जाइत अछि।
काव्य आ कविता, दुनू शब्दक प्रयोग मे बरू एकटा बेस मेहींए सन, पातरे सन सही मुदा अन्तर अवश्य अछि। मात्र छन्दोबद्ध रचनाक लेल ‘पद्य’ शब्दक प्रयोगक उचित, मुदा ‘कविता’ शब्द पद्य सँ ऊँच स्थितिक द्योतक अछि। यद्यपि व्यापक रूप मे छन्दोबद्ध रचनामात्रक लेल ‘कविता’ शब्दक प्रयोग होइछ, मुदा संकीर्ण अर्थ मे, विशेष क’ आधुनिककाल मे ‘कविता’ शब्दक प्रयोग अपेक्षाकृत आकार मे छोट, एहेन पद्यविशेष हेतु कयल जाइछ जे आधुनिक गीत, प्रगीत अथवा मुक्तकक अनेकानेक प्रकार मे सँ कोनहु रूप मे रचल गेल हो। पद्यक एहन प्रकारक रचना सभक पृथक निर्देश लेल ‘काव्य’ शब्दक प्रयोग प्रायः नहिएँ जकाँ कयल जाइत अछि। जखन कोनहु रचना-विशेष लेल ‘काव्य’ शब्द प्रयुक्त होइछ तखन ताहि सँ अपेक्षाकृत पैघ, प्रायः प्रबन्धात्मक रचनाक अर्थ सूचित होइत अछि।
उपरोक्त स्पष्टीकरणक आलोक मे ई स्वीकार करब आवश्यक अछि जे उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ (1913-1980) रचित कृति ‘बाजि उठल मुरली’ जकरा वर्ष 1978 मे साहित्य अकादमी पुरस्कार भेटि चुकल अछि, काव्य नहि, कविता-संग्रह अछि। कवि स्वयं सेहो एहि पुस्तकक भूमिका-सदृश दीर्घ आलेख मे एहि पोथी केँ कविता-संग्रह कहने छथि।1 एहि सम्पूर्ण भूमिका-लेख मे कवि कवितेक रूप, गुण, सिद्धान्त, नव-पुरान स्थिति, तकर सामयिक संवेदना-स्तर, नवकविताक अस्पष्टता-दुरूहता आदिक वर्णन कयल अछि। तैं कविक भावानुरूप ई उचिते अछि जे एहि पोथी केँ हमहूँ कवितेक संग्रह मानि एहि पर विचार करी।
रचनाकारक पक्ष-सरोकार आदि केँ बिनु जनने-बुझने कोनहु रचना केँ जाँचब-परेखब एकभग्गू आलोचनाक प्रमाण बनैत रहल अछि। उत्तर-आधुनिककालीन आलोचनाक रुख एहि स्थल पर एकदम साफ अछि, स्पष्ट अछि। कारण, रचना मे उपस्थिति विचार सँ रचनाकार केँ एकात नहि कयल जा सकैत अछि। प्रकारान्तर ओ शब्दान्तर सँ ‘बाजि उठल मुरली’क कवि उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ सेहो एहि आलोचनात्मक रुख सँ सहमत जकाँ छथि। ओ कविता केँ कविक जीवन-जगतक दर्शनरूपी तडि़पत-पोथी मानैत छथि, कविक आचार-विचारक चित्रित मूर्तरूप आ चिन्तन-मननक यथातथ्य विम्ब-प्रतीक मानैत छथि, कविक व्यक्तित्व-कृतित्वक निचोड़ मानैत छथि, कविक भावना-अनुभूतिक सप्राण प्रतिभा मानैत छथि, कविक प्रतिभा-मेधाक सार पदार्थ-नेनु मानैत छथि आ सृष्टिक समस्त सौन्दर्यराशिक आकलित-संचित केन्द्र-बिन्दु मानैत छथि।2
कवि उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’क अनुसार कवि अपन चिन्तनक क्रम मे अपन बाटो बदलि लैत अछि आ सर्वहारा वर्गक गीत गबैत-गबैत कौखन धर्मभीरु बनि कोनहु अदृश्य शक्तिक पक्षधर सेहो भ’ जाइत अछि। हिनक कहनाम छनि- जखन जेहन मान्यता, तखन तेहने भावक अभिव्यक्ति।3
मुदा ई एकटा मारुक स्थापना अछि। जँ मारुक नहि त’ ई एकटा मरखाह स्थापना अवश्ये अछि। कविक रचना-क्रमक विकास केँ आ एहि विकासक वैचारिक पक्ष ओ प्रतिबद्धता केँ रेखांकित करैतकाल ई एकटा पैघ अवरोधक बनि क’ ठाढ़ होइत अछि। नव-कविताक समय मे कविताक प्रक्रिया ओ बोधक क्रम मे त’ एहि मान्यता सँ कविता केँ पंगु होयबाक संकट उपस्थित भ’ सकैत छैक।
कवि उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ कविताक गढ़निक संदर्भ मे परम्परागत रूप, छन्द, अलंकार, विम्ब-प्रतीक, गति-लयादिक उत्तम मार्गक आग्रही छथि मुदा बोध्य-वस्तु आ रस-ध्वनिक संदर्भ मे मध्यम मार्गक। नव-कविताक प्रसंग त’ मोहनजी उत्कटक सीमा धरि जाय एकर अस्तित्व केँ अस्वीकर पर्यन्त करैत छथि। मुदा ई वएह नव-कविता अछि जे अमेरिकी कवि वॉल्ट विटमेन (1819-1892) सँ होइत पाब्लो नेरूदा (1904-1973) धरि अबैत-अबैत सम्पूर्ण वैश्विक कविता-साहित्य मे हलचल मचा देलक। भारतहु मे निराला (1898-1961), अज्ञेय (1911-1987), मुक्तिबोध (1917-1964) लोकनिक परम्परा बनल चलि गेल। मैथिलीओ मे यात्री (1911-1998), जीवकान्त (1936-2013), महाप्रकाश (1950-2013), हरेकृष्ण झा (1950), नारायणजी (1956) लोकनि एहि नव-कविता सँ सम्पृक्त भेलाह। मैथिली कविताक श्रीवृद्धि भेलैक अछि। मुदा मोहनजी ओहि नव-कविता केँ ‘चिकारी भाषाक कविता’ कहैत छथि, ‘देशी मुर्गी बिलायती बोल’ कहैत छथि, विकृत-क्रांति आ मूर्तिभंजक कहैत छथि, रोग, नाइलन-टेरिलीन वस्त्र, मुनिवेषी रावण, विश्वामित्री सृष्टि आदि सेहो कहने छथि। ‘रचना मे ईमानदारी’ आ ‘भोगल यथार्थ’ पदक तँ बेस उपहास कयने छथि।4
ई छल कविताक प्रसंग उपेन्द्र ठाकुर’ मोहन’क संक्षिप्त वैचारिक दृष्टिकोण। आब हिनक कवितासभ मे हिनक पक्ष-विचारादि केँ सेहो देखल जाय। ‘बाजि उठल मुरली’ मे कुल 101टा कविता (अथवा गीत) संकलित अछि। एहि मे प्रायः सभटा रचना गीत कोटिक अछि। तैं एहि संग्रहक बेसी समीचीन नाम होइत गीत-संग्रह, कविता-संग्रह नहि।
मैथिलीक गीत-साहित्यक इतिहास बेस प्राचीन रहल अछि आ बेस समृद्ध सेहो रहल अछि। ज्योतिरीश्वरकृत वर्णरत्नाकर मे एकर स्वरूप-प्रमाणादि उपलब्ध अछि। विद्यापतिक प्रसिद्धिक मुख्य कारण हुनक गीते-साहित्य केँ कहल जाइत अछि। मैथिली गीतक ई परम्परा गोविन्ददास, उमापति, लोचनदास, हर्षनाथ, नेपालक मल्ल राजालोकनि, साहेबरामदास, लक्ष्मीनाथ गोसाँइ, चन्दाझा, जीवनझा, भुवनजी, मधुपजी, शेखरजी, मायाबाबू, प्रवासीजी, रवीन्द्रजी, बुद्धिनाथ मिश्र, सरसजी लोकनि धरि आयल अछि। एहिए क्रमक मध्यवर्ती पांक्तेय कवि छथि उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’। हिनक लेखनकाल 50 वर्षक (1930 सँ 1980 धरिक)अछि। मुदा जे कि ‘बाजि उठल मुरली’क प्रकाशन 1977 ई. मे भेल तैं हम आलोच्य अवधि 1930 सँ 1977 ई. धरि केँ रखैत छी।
गीतिकाव्य अनुभूति-प्रधान काव्य अछि। एहि मे वर्णित घटना अथवा तथ्य गौण रहैत अछि एवम् कविक अनुभूति प्रधान होइत अछि। एहि मे व्यक्ति-स्वातं=यक तत्व बेसी भेटैत अछि। गेयता, भाव-प्रवणता, आत्माभिव्यक्ति, रागात्मक अन्विति, कोमलकान्त पदावली, सौन्दर्यमयी कल्पना प्रभृति एकर मूल तत्व अछि। मोहनजीक गीत मे एहि तत्वसभक अतिरिक्त तत्कालीन वर्तमान युगक चलन, ओजगुण सम्पन्न कवि-दायित्व, स्वानुभूति भरल चेतना प्रभृति गुण सेहो भेटैत अछि। आचार्य रमानाथ झा हिनका नवीन गीत-गरिमाक प्रतिष्ठापक मानने छथि।
संस्कृत साहित्यक एकटा स्तम्भरूप महाकाव्य ग्रंथ अछि महर्षि वेदव्यास रचित श्रीमद्भागवत। एहि ग्रंथ केँ भक्ति-ग्रंथ सेहो कहल जाइत अछि। बारह स्कन्ध मे विभाजित एहि महाकाव्य-महापुराणक दशम स्कन्धक पूर्वाद्ध मे व्रजगोपिका लोकनिक पाँचटा प्रेमगीत विद्यमान अछि। एहि मे प्रथम अछि वेणुगीत, पूर्वरागक सन्दर्भ मे। मिलनक पूर्व गोपिकालोकनिक हृदय मे कृष्णक प्रति अशेष रागक अभिव्यक्ति-चित्र अछि ई वेणुगीत।5 दोसर अछि प्रणयगीत।6 तेसर अछि रासलीला मे कृष्णक अन्तर्धान भेला पर गोपीगीत।7 चारिम अछि गोचारण लेल प्रस्थान कयला पर युगलगीत8 आ पाँचम अछि मथुरा-प्रवास कयला पर भ्रमरगीत।9 एनमेन त’ नहि मुदा प्रकारान्तर सँ मोहनजी एहि प्रेमगीतसभक भाव-भंगिमाक स्थिति-चित्र केँ एहि संग्रहक प्रारम्भिक गीतसभ मे यथास्थान-यथावसर प्रतिष्ठित कयने छथि।
भारतीय साहित्य मे कृष्णक जीवन-दर्शन एकटा क्रान्तिकारी जीवन-दर्शन अछि। कृष्णक ओहिए जीवन-दर्शनक एकटा आंशिक उदाहरण अछि रास-महारास। एक दिस ई रास जतय नारी-स्वतंत्रताक (स्वच्छन्दताक नहि) परमोज्ज्वल आख्यान अछि आ रीतिमार्गीय समाज पर रागमार्गीय धाराक विजयक प्रमाण अछि ओतहि शारदीय पूर्णिमा रातिक आयोजन ‘महारास’ उन्मुक्त-स्वच्छन्द कामाचार-व्यभिचार पर संयमित जीवन-दर्शनक विजय-गाथा सेहो अछि। एही भावधारा सँ सम्पृक्त कवि उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ एहि संग्रहक प्रारम्भिक किछु गीतसभ रचने छथि। एकाधटा बानगी देखल जाय—
रिक्त घटक पूर्ति-पर्व
अर्थ-हीन आब गर्व
अभिसारक रुचि अखर्ब
शारद-रजनीक नोंत बाँटि रहल मुरली!
सखि हे संकेत-समय बाजि उठल मुरली!10
‘त्याग-योग’ उद्धवक भेल जड़
चेतन-मुखर ‘प्रेम-योग’क स्वर
संन्यासक विधि क्यो नहि सुनलक
गहलक रास-सोहाग!
प्रणय जग-प्राण, जीवनक भाग!
झमकि उठै अछि औखन मन मे यमुना-तीरक राग!!11
सखि, विफल भेल अभिसार हमर
छी आँट, काँटमे ओझरायल आयल नहि प्राणाधार हमर12
ऋतु-गीत रचबाक क्रम मे कवि ऋतुराज वसन्त केँ केन्द्र मे राखि पाँचटा गीत रचने छथि। हिनक वासन्ती शुक-पिक-भ्रमर अपन-अपन नव कर्त्तव्य मे बाझल भेटैत अछि। प्राश्निक शैलीक हिनक वसंत-वर्णन आन कवि सँ फराक स्वाद दैत अछि। वसंतक प्रभाव केँ पकडि़, ताहि सँ अचंभित-आश्चर्यचकित होइत सम्पूर्ण वसन्त केँ ओ अपन सुखद अचरजक संग तहे-तह खोलैत छथि—
कोन विरहिनिक टीस-दर्द अछि, केहन कचोटक ठोंठ-भास ई?
किछु बिसरल-सन मोन पड़ै अछि, ककर हेरायल-हरल रास ई?
कोइली बड़ अन्हरोखे सँ कुहकैत करुण, की गाबि रहल छै?
आइ ककर के आबि रहल छै?13
कवि वसन्तक पवित्र फल ‘होरी’ केँ यौवनक पर्याय मानैत एकरा एकीकरणक सफल मंत्र सेहो मानैत छथि-
एकीकरणक ई सफल मंत्र
आब्राह्मण-हरिजन मिलन-तंत्र
आमोदक-सुन्दर स्वर्ण-यन्त्र राष्ट्रक वारिधि मे मधुर वारि
रज-कण अबीर-अबरखक धारि, ऊठल चौमुख होरिक बिहाडि़14
कवि अपन व्यंग्य-कविता मे उदरलोलुप, मद्यसेवी आ अहंकेन्द्रित लोकसभ पर बेस चोटगर व्यंग्य कयने छथि। मेघ-गीत, वर्षा-गीत, फसल-गीत, पावस-गीत, शरद-गीत प्रभृति रचना कविक जन-सरोकार आ जन-संवेदनाक परिचायक अछि। प्रभात होयबाक आह्वानक कविता संघर्ष ओ आशा-विश्वासक प्रतिरूप अछि। माटिक सरोकार आ संवेदना भरने हिनक मारिते रास गीत मे श्रमक महत्व, श्रमक स्थापना, श्रमिकक अधिकार-चेतना, सर्वहाराक हँसी-खुशी आदिक चित्र भेटैत अछि—
रौद-पानि मे जरइत-भिजइत कैयन चास खेत जोतलक जे
अन्हरोखे सँ माथ किरिन धरि हेघा-चौकी घिसियौलक जे
से गेनमा हरबाहो काटत, ताकत घनगर-घनगर पाँतर
लहराइत अछि सोनक आँचर 15
कालक विभिन्न ठाहर पर कविता जेना- प्रभात, अपराह्न, गोधूलि-समय प्रभृति अपन दार्शनिक विचारक लेल महत्वपूर्ण अछि। जीवन-मूल्य केँ वक्रोक्तिक संग प्रक्षेपित करैत आ तकरा जगजियारो करैत दीपक, समीर, सरिते, निर्झर, मंजरी उद्यान-श्मशान प्रभृति कविता अपन भावपरक गंभीरता लेने कविक गंभीर कवित्व प्रतिभाक आख्यान सेहो उपस्थित करैत अछि। कवि अपन किछु जागरण-बोधक गीतक माध्यम सँ भारतीय स्वाधीनता संग्रामक स्मरण, मातृभाषाक सम्मान लेल आह्वान, नवयुग-नवलोकक आगमनक आग्रह प्रभृति दायित्व नहि बिसरल छथि। एहिए क्रम मे युवक वीर, जोआनी, चिनगी उगिलत चन्दन, अभियान-गीत प्रभृति गीतक माध्यमे कवि नवतूर मे जोश-उत्साह भरलनि अछि, मातृभाषाक विरोधी रिपु-समूह केँ चेतौनी देलनि अछि, ‘करब नहि त’ मरब’ मंत्रक शंखनाद कयलनि अछि आ मातृभूमि ओ मातृभाषा हेतु रक्तो द’ देबाक संकल्प उठौलनि अछि। एवंक्रमे वीररसक आ ओजगुणक कवितासभक प्रवाहो तद्वते राखल गेल अछि से कविक सूक्ष्म चेतनाक परिचायक अछि।
मुदा एहि सभ ओजस्वी ओ वीरत्वक प्रवाह लेने कविता-गीतादि सभक बीचहि मे ‘नियम मानह’ कविता एहि संग्रहक प्रवाह केँ रोगाह क’ दैत अछि। वीरतापूर्ण प्रवाहक समय मे मर्यादा रक्षा, नियम पालन, अनावश्यक नैतिकताक आग्रह आदि भरल ई गीत अनावश्यक सन लगैछ। युवा केँ जगाय एक दिस आन्दोलनक स्थिति बनाओल जाय आ दोसर दिस ओकरा नियम-पालनक आग्रही सेहो बनाओल जाय, ई स्थिति युवाक जोश केँ कमजोर करैत सन लगैछ। ‘आगू बढि़ते जाह’ सन आह्वान केँ एहि ‘नियम पालनक संतुलन’ सँ बाधा भेटैत छैक।
‘बाजि उठल मुरली’क कवि अपन सम्पूर्णता मे भारतीयता आ भारतीय संस्कृति-शिक्षा-साहित्यक बुलंद भूतकालक आग्रही छथि, से अतिवादिताक सीमा धरि आग्रही छथि। मुदा नवता, नवाचार कि नव साहित्यिक धाराक आग्रही नहिएँ जकाँ छथि। एहि नवताक ओ व्यंग्य सेहो करैत छथि। संग्रहक किछु कविता भारतीय दर्शनक अद्वैत वेदान्तक शाखा सँ प्रभावित अछि। अपन दार्शनिक भावबोधक संग किछु कविता मे शरणागतिक आग्रह कयल गेल अछि। ‘परदेशी’ गीत मे मानव केँ ‘परदेशी’ कहैत छथि आ एहि जग सँ निस्तार चाहैत छथि मुदा अगिले कविता मे स्वयम् केँ उल्लंघन करैत ‘नाविक सँ’ एतहि रहय देबाक आग्रहो करैत छथि।16 ‘नाविक सँ’ कविता मे तट पर नहि छोड़बाक आग्रह आ ‘नाविकक प्रति’ कविता मे घाटे पर उतारि देबाक आग्रह, स्थूल रूप मे दुनू विरोधाभासी लगैत अछि। मुदा अध्यात्मिक बाना मे नाविकरूप मे ईश्वर केँ आ यात्रीरूप मे मानव केँ मानने विरोधाभास थोड़ेक कम अवश्य होइत अछि। ‘असमंजस’ कविता मे जीवनक द्वन्द्वक वर्णन बेस प्रशंसनीय अछि।17 अपन कएकटा गीत मे मातृभाषाक अधिकार लेल अपन पक्ष सेहो उद्घाटित कयने छथि।
किछु कविता विज्ञानक विरोध मे सेहो ठाढ़ अछि। एकर संहारी प्रवृतिक त’ विरोध भेल अछि। से होयबाको चाही, मुदा एकर जनोपयोगी रूप अस्पृश्ये एहि गेल अछि। हमरा बुझने विज्ञानक विरोध प्रकारान्तर सँ आंशिके सही मुदा अछि ई नवताक विरोध, वर्तमानकालीन विकासक विरोध।
संग्रहक उत्तरार्द्ध मे त्याग-वैराग्य-शरणागति-निराशा प्रभृति केन्द्रीय भाव लेने किछु कविता सेहो अछि जे कि मानवीय जीवनक एकटा निस्सन यथार्थ अछि। मुदा कविताक जीवन त’ त्याग-वैराग्य आ निराशा केँ त’ सदति अमान्ये करैत रहल अछि कारण मानव जीवन केँ शिथिल करबा मे ई भाव सहयोगी भ’ जाइत अछि। एहिए क्रम मे निर्माल्य, निर्वाण पथपर, आत्म-भावना, अवसाद, विफल जीवन, तप्त जीवन, अश्रुकण प्रभृति कविता पढि़ निराशाटा जीवनक मूल उत्स बुझाय लगैत छैक आ मोन थाकय लगैत छैक। रुदन, वियोग-योग, अनुरवक छन्द, ककर छाँह तर अँटकी प्रभृति कविता उत्कट विरह-दशाक समर्थ चित्र अछि। संग्रह जेना-जेना आगाँ बढ़ैत अछि, कविता आ कवि तेना-तेना असहाय सन भेल जाइत लगैत छथि। तहिना-तहिना अतीत स्मरण आ अपन जीवनावसान दुनू देखाइत छनि। घर छुटबाक चिन्ता बढ़ले चलि जाइत छनि।
संग्रहक अंत होयबा सँ ठीक पहिलेक किछु गीत अपन युग-बोधक गुणक कारणे उल्लेखनीय अछि। स्वतंत्रता-प्राप्तिक ठीक बाद राजनेतालोकनिक बढ़ैत स्वार्थ-अनाचारादि सँ कवि आहत छथि आ जातिवाद, सम्बन्धवाद, दलगत राजनीति, सम्प्रदायवाद, डपोरशंखी योजनासभ सँ अकछि क’, आक्रोशित भ’ व्यंग्य-प्रतिरोध स्वरक कविता रचैत छथि। आमजनक दुख केँ एतहु अभिव्यक्ति भेटलैक अछि—
जाहि पाथरक जड़ प्रतिमाकेँ प्राण-प्रतिष्ठा द{ बैसाओल
बड़ मनोरथें बड़ विश्वासें जन-कल्याणक आस लगाओल
ओ भोगी बिसरल जन-जीवन!
देवत्वक अभिमानी मन्दिर-वासी ओ विसरल जन-जीवन!18
देखि रहलहुँ हम, ककर की मोल अछि
बरि रहल मणि-दीप ‘अलका’-महल मे
जमल ‘कैलाशक कुटी’ मे झोल अछि।19
आइ समस्त राजनीतिक अमला जनता केँ मात्र एकटा मतदाता मानैत अछि। एकदम यांत्रिक मतदाता, यंत्रमानव सन। एहि सँ बेसी किछुओ नहि। मतजीवीलोकनि द्वारा मत हँसोथबाक नित नव-नव पेशेवर तरीका अपनाओल जा रहल अछि। चारूकात ‘पोस्टर-वार’ चलि रहल अछि। आजुक एहि विकराल कालक संकेत कवि तहिये क’ देने छथि—
काज कौड़ी-छदामक नहि भ’ रहल
प्रचारक युग, लाख-कोटिक बोल अछि।
स्वराजो भेने खसल जन उठल नहि
ततहि अछि छल जतहि, धरती गोल अछि।20
तत्कालीन समाजक दुःस्थिति सँ उपजल आक्रोश केँ व्यंग्यक साहचर्य भेटलैक अछि—
ओ उड़बै छथि मक्खन-मेवा, असुलै छथि नाविक निज खेवा
‘सभ केँ समान अवसर’-सपना, मन भरि अपना, अनका नपना
बनलाह कृष्ण भगवान, किन्तु गोचारक व्रज-जनता पुरने अछि!
सारथि बदलल, वाहन पुरने अछि!21
मुदा व्यंग्य-आक्रोशादिक प्रभाव मे कवि अपन माटिक संवेदना, अपन डीह- विसफीक डीहक गौरव-आख्यान आ अपन नायकक प्रति स्वाभिमान नहि बिसरल छथि। अपन मातृभाषाक सम्मान सेहो नहि बिसरल छथि। साबिक मे मैथिलीक संग जे अन्यायसभ भेल सेहो हिनक कविताक केन्द्र मे आयल अछि—
कुटिल राजनय नित धकियौलक
शालीनता अपन भसियौलक
पटरानी आने बनि बैसलि
अधिकारिणी विदूर उपेखलि
अनवधान केँ भाग न भेटय
तकरे समुदाहरण मैथिली!
जयति अमृत-अवतरण मैथिली22
जखन कोनहु रचनाकार अपन विभिन्न रचनासभ केँ पुस्तकक रूप देबाक ओरियाओन करैत छथि त’ सर्वप्रथम ओहि रचनासभक क्रम-व्यवस्थाक मादे गंभीरतापूर्वक सोचैत छथि। रचनासभ केँ ओकर केन्द्रीय भावक अनुसार व्यवस्थित कयल जाइत अछि। एहि संदर्भ मे ‘रचनाक भावानुसार ओकर आरोही-क्रम मे उपस्थापन’ सर्वाधिक लोकप्रिय सूत्र अछि आ संग्रहक निर्बाध प्रवाह केँ देखैत प्रायः सर्वाधिक वैज्ञानिक पद्धति सेहो। क्रम-व्यवस्थाक ई सूत्र कोनहु संग्रहक ‘फ्रलो-ग्राफ’ केँ उन्नततलीय बनबैत अछि जे कि पाठकक रसाग्रह आ रसग्रहणक स्थिति ओ स्तर केँ क्रमेण उच्चतर सेहो बनबैत अछि। कोनहु रचना-कृतिक अपन मूल स्वरूप होइत छैक, मौलिक चरित्र होइत छैक। कोनहु रचना-कृति अपन किछु खास चारित्रिक विशेषताक संग अपन विधागत यात्र तय करैत अछि। पुस्तक हेतु सामग्री संकलित-समायोजित करबाकाल एहि विधागत यात्र पर गंभीरतापूर्वक विचार कयल जयबाक चाही। आलोच्य संग्रह ‘बाजि उठल मुरली’ मे गीतक क्रम-व्यवस्था एवम् चारित्रिक ओ विधागत यात्र कएक ठाम उभड़-खाभड़ लगैत अछि। से गीतक केन्द्रीय-भावक स्तर सँ सेहो आ वैचारिक स्तर सँ सेहो।
उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ छान्दिक चेतना कवि छथि। से हिनक ई ‘छन्द-चेतना’ एकटा आग्रह अछि जेना कि ओ अपन कथ्य मे सेहो स्वीकार कयने छथि। संग्रहक सभटा गीत कोनहु ने कोनहु छन्देक आग्रहक संग अछि। ‘छन्द मे रचना करब’ कोनहु कविक अपराध कोटिक कार्य नहि होइछ। मुदा छन्द सँ स्वच्छन्द-स्वतंत्र होइत काव्यक जे एकटा आओर परम्परा अछि, जकर कि ने त’ वैश्विक इतिहास नव अछि, ने भारतीय इतिहास आ ने मिथिलेक इतिहास। तखन जे उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’ सन सुविज्ञ कवि एहि परम्पराक अस्वीकार कयने छथि, निषेध कयने छथि से जरूरे अचंभित करैत अछि।
तथापि ‘बाजि उठल मुरली’क विविध पक्षीय भाव-बोध, विम्ब-प्रतीक ओ रस-छन्द-अलंकार सम्पृक्त सौन्दर्य-बोध, शाब्दिक-वैचारिक भाषापक्ष, भूधर्मी सरोकार, मैथिलीक निजता भरल शब्द ओ तकर निजगुत अर्थक सामन्जस्यपूर्ण ओ प्रायोगिक चमत्कार प्रभृति तत्व एकर प्रासंगिकता केँ अक्षुण्ण रखने अछि। हिनक कविकर्मक एकटा उल्लेखनीय पक्ष ईहो अछि जे छन्दगत रचना करितो अपन शाब्दिक मितव्ययिताक संग अपन भाव, कथ्य, आ पक्ष केँ बेस मुखरता सँ उद्घाटित-स्थापित कयने छथि। कहबा मे हर्ज नहि जे ई कवि आ ई कविता-संग्रह भारतीय साहित्यक निधि अछि, मैथिली साहित्यक गौरव अछि।
संदर्भ-सूची
- 1- पृ–41, कवि आ कविता: दशा आ दिशा, बाजि उठल मुरली, उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’, 1977
- 2- पृ–1, कवि आ कविता: दशा आ दिशा, बाजि उठल मुरली, उपेन्द्र ठाकुर ‘मोहन’, 1977
- 3- ओतहि
- 4- ओतहि
- 5- 10/21/1-20, श्रीमद्भागवत महापुराण, महर्षि वेदव्यास
- 6- 10/29/31-41, श्रीमद्भागवत महापुराण, महर्षि वेदव्यास
- 7- 10/31/1-19, श्रीमद्भागवत महापुराण, महर्षि वेदव्यास
- 8- 10/35/1-26, श्रीमद्भागवत महापुराण, महर्षि वेदव्यास
- 9- 10/47/1-20, श्रीमद्भागवत महापुराण, महर्षि वेदव्यास
- 10- पृ–1, बाजि उठल मुरली (कविता)
- 11- पृ–6, यमुना तीरक राग (कविता)
- 12- पृ–10, हिन्दोलित पारावार हमर (कविता)
- 13- पृ–14, वसन्त- दू (कविता)
- 14- पृ–18, होरिक बिहाडि़ (कविता)
- 15- पृ–38, धनकटनीक सुदिन आयल ई (कविता)
- 16- पृ–71, नाविक सँ (कविता)
- 17- पृ–76, असमंजस (कविता)
- 18- पृ–123, जन-जीवन (कविता)
- 19- पृ–128, ककर की मोल अछि (कविता)
- 20- ओतहि
- 21- पृ–134, पुरना शासन (कविता)
- 22- पृ–149, जयति मैथिली (कविता)