भाषा आ भाषा-विचार — डा. कमल मोहन चुन्नू

भारतवर्ष अदौ सँ ज्ञानक भंडार रहल अछि। एतय ज्ञानक एतेक मान रहल अछि जे एतहुक पहिल पुस्तकक नाम वेद, अर्थात् ज्ञान राखल गेल। ई ज्ञाने भारतीयक चरम उपास्य रहल अछि। वैदिक वांग्मय तँ एकटा विशाल ज्ञानसागर अछि। एकर गम्भीरता आ विस्तार असीम अछि, अनन्त अछि। वेदान्त मे आनन्द आ विज्ञान केँ ब्रह्मस्वरूप मानल गेल अछि -विज्ञानमानन्द ब्रह्म1। तैत्तरीयोपनिषद मे तँ विज्ञाने केँ ज्येष्ठ ब्रह्म कहल गेल अछि – विज्ञानं देवाः सर्वे ब्रह्म ज्येष्ठमुपायते2। एहि विज्ञानक माधयम सँ वेदक ज्ञान होइत अछि । भर्तृहरि सेहो एकरा पराविद्या एवम् पवित्रम् ज्ञान कहने छथि- पवित्रं सर्वविद्यानामधिविद्यं प्रकाशते3।
अपना ओतय भाषा-अध्ययनक क्रम मे सेहो एकरा विचारपूर्वक अध्ययन करबाक महदादेश अछि। एहि प्रकारक आग्रह-आदेशादि मे भाषा-संदर्भित एकटा वैचारिक अधययन आ एकटा वैज्ञानिक अध्ययनक खगताक निर्देश सेहो पार्श्ववर्ती रूप मे नुकायल रहैत अछि। एतय एहि प्रकारक अध्ययनक असंख्य घटना भारतीय वांग्मय मे अपन सम्पूर्ण गाम्भीर्य आ वैशिष्ट्यक संग आइयो उपास्थित अछि, सुरक्षित अछि। भारतवर्ष मे भाषाक वैचारिक-वैज्ञानिक चिन्तन अत्यन्त प्राचीनकाल सँ होइत आबि रहल अछि। तीनू वेदांग- शिक्षा, निरुक्त आ व्याकरणक चिन्तन तँ पराकाष्ठा पर पहुँचल अछि। भाषा-चिन्तनक सर्वप्रथम ज्ञात ग्रंथ महर्षि यास्क रचित निरुक्त अछि जे ई कहबा लेल पर्याप्त लगैत अछि जे अपना ओतय भाषापक्षीय चिन्तनक प्रारम्भ ऋगवेदे सँ भ’ गेल छल। इनसाक्लोपीडिया ब्रिटानिका तँ निश्छल रूपेँ ई स्वीकार कयने अछि जे भाषाविज्ञान आ कि ध्वनिविज्ञान मे भारतवर्ष शेष समस्त दुनियाँ सँ बहुत आगू बढ़ल छल ।4 इनसाइक्लोपीडियाक ई स्वयं-स्वीकृत तथ्य आत्म-गौरव तँ दैते अछि मुदा ताहि सँ पूर्वहि ओ ईहो सूचित करैत अछि जे हमरा लोकनि भाषाक वैचारिक-वैज्ञानिक धरातल बहुत पहिले सँ अपन ज्ञान-गाम्भीर्य सिद्ध करैत आबि रहल छी । डबल्यू- एस- एलेन अपन पुस्तक Phonetics in Ancient India (page-3) मे उदारतापूर्वक स्वीकार कयल जे संस्कृतेक ध्वनिशास्त्र सँ पश्चिमी भाषावैज्ञानिक लोकनि अपना-अपना ओतय ध्वनिविज्ञानक मारिते रास पारिभाषिक शब्द आ विभाग निर्धारित कयने छथि।5 एहि ध्वनिविज्ञान मे अपन शिक्षा आ प्रत्याहार-सूत्रदि सँ एवम् निरुक्ति-विज्ञान मे अपन अष्टाध्यायी सँ एतेक महत्त्वपूर्ण योगदान देबयबला पाणिनि वस्तुतः एकटा महान भाषावैज्ञानिक छलाह । कहनहि छी जे भारतवर्ष मे भाषा-चिन्तनक जन्म ऋगवेदकाल मे भ’ गेल छल कारण ऋगवेद मे बहुत रास सूक्त आ मन्त्र भाषा-विषयक अछि । छओटा वेदांग मे शिक्षा, निरुक्त, व्याकरण आ छन्द प्रभृति चारिटा अंग मे तँ शब्दे-ब्रह्मक वर्णन देखल जाइत अछि ।

मैथिली आ संस्कृतक मारिते रास भाषाशास्त्री लोकनि मैथिलीक उत्पत्ति केँ मागधी प्राकृत सँ मानैत छथि। किछु विद्वान एकरा अर्धमागधीक बेसी निकट मानैत छथि। ई लोकनि मैथिली केँ अर्धमागधीक पुत्री आ संस्कृतक पौत्री मानैत छथि।6 एहि भाषावैज्ञानिक तथ्य आ पक्ष सँ सहमति आ कि असहमतिक बात एकटा फराक विषय अछि मुदा एतबा तँ सार्वजनिक रूपेँ स्वीकार्य भ’ गेल अछि जे मैथिलीक भाषावैज्ञानिक विकास किंवा भाषा-वैचारिक विकास सदति संस्कृत सँ अनुप्राणित होइत रहल अछि।

संस्कृतक संगहि मैथिलीओक भाषा-साहित्य मे जे पं- गोविन्द झा, डॉ- शशिनाथ झा लोकनि सन किछु वरेण्य विद्वान लोकनि सक्रिय छथि आ जिनका सँ मैथिलीक भाषा-क्षेत्र सम्बलित आ मार्जित-परिमार्जित होइत रहल अछि तिनका लोकनिक निर्णयक आधार पर किछु तथ्य विशेष रूपेँ एतय उल्लिखित करय चाहब। पाणिनि अपन धाातुपाठ मे लगभग दू हजार धातुक उल्लेख कयने छथि। एहि मे आधा सँ बेसीए धातु आब अप्रचलित अछि। अभिप्राय किछु एहन सन जे महाकवि कालिदास सँ चलि अबैत आइ धरिक संस्कृत मे एकर धातु अधिया गेल। अर्थात् लगभग एक हजार धातु मात्र बँचल रहि गेल अछि आजुक संस्कृत मे।7 विदित अछि जे भाषाक पूँजी होइछ ओकर धातुक संख्या। से संख्या आजुक संस्कृत लग एक हजारक लगीच अछि। मुदा जखन महावैयाकरण दीनबन्धु झा 1949 ई- मे मैथिलीक धातुपाठ प्रस्तुत कयल तँ तकर संख्या छल बारह सय। महावैयाकरण ओहि बारहो सय धाातु केँ अर्थनिर्देश पूर्वक पढ़ने छथि। मैथिली धातुक ई विपुल संख्या मैथिली भाषा-भाषीक लेल कतेक पैघ गर्वक विषय अछि जे बूझल जा सकैत अछि। से विशेष क’ ई तथ्य जे मैथिलीक धातु-संख्या संस्कृतक प्रचालित धातु-संख्या सँ बेसीए अछि।

जखन-जखन भाषा-संदर्भित अध्ययनक प्रकरण अबैत अछि तँ तीनटा क्षेत्र बरोबरि उपस्थित होइत अछि- भाषा-दर्शन, भाषाविज्ञान आ भाषा-विचार। एहि तीनू मे पारस्परिक भेदाभेदक स्थिति सेहो देखल जाइत अछि। माधवाचार्य ‘सर्वदर्शन संग्रह’मे पाणिनिक व्याकरण केँ ‘पाणिनि-दर्शन’ कहने छथि।8 भारतेतर विद्वान मे ओटो जैस्पर्सन अपन ग्रंथ Language : Its Developments Nature and Origin मे सेहो भाषाविज्ञान केँ भाषादर्शन कहने छथि। ओ व्याकरण केँ तँ बेराबेरी विज्ञान आ दर्शन दुनू मानैत छथि।9


मैथिलीक परिप्रेक्ष्य मे ‘भाषाविज्ञान’ तँ बहुप्रचलित पद अछि मुदा ‘भाषा-दर्शन’ नितान्त अल्पप्रचालित पद अछि। ‘भाषा-विचार’ तँ सर्वथा नव पद अछि। एकर सृजन आ यथासम्भव आकृतिमूलक स्थापना-व्याख्या-व्यवस्थादिक श्रेय छनि डॉ- रामचैतन्य धीरजजी केँ। हिनक पूर्वप्रकाशित पोथी- ‘भाषा विचार आ मैथिलीक प्राचीन साहित्य’ मे अपना भरि ई प्रशंसनीय चेष्टा कयल अछि। यद्यपि संस्कृत मे आ भारतेतर भाषाचिंतक लोकनिक बीच ई ‘भाषा-विचार’ नव नहि अछि मुदा जेँ कि मैथिली मे ई नव विचार अछि, अपितु प्रथमतः विचार उपस्थित कयल गेल अछि तेँ एहि ठाम सहमति-असहमति अथवा वाद-विवाद-संवादक सम्भावना जोरगर भ’ जाइत अछि। से विद्वान लोकनि वाद-विवाद-संवाद करथु मुदा हम जे एहि ‘भाषा-विचार’ केँ जतबा बूझि पबैत छी, ताहि आधार पर ई कहय चाहब जे व्याकरण एक तरहेँ भाषाविज्ञान आ कि भाषा-दर्शनक उत्पाद रूप अछि मुदा भाषा-विचार एकर एकटा समर्थ पृष्ठभूमि अछि।

एहि पोथी- ‘मैथिली भाषाक वैचारिक अस्मिता’ मे भाषा-विषयक विचार रखैतकाल श्री धीरजजी बेस चाकर चास-बास रखलनि अछि। एहि क्रम मे ओ भाषाविज्ञान आ भाषा-दर्शनक अतिरिक्त अध्यात्म, लोक-वेद, कर्मकांड, नीतिशास्त्र, प्रमाण-मीमांसा, इतिहास, व्याकरण, समाजशास्त्र आदि क्षेत्र मे सेहो मैथिली भाषाक अस्मिता, अपितु वैचारिक अस्मिताक निजगुत अन्वेषण कयल अछि। भाषा-संदर्भित विचार जे कि एहि पोथी मे अभिव्यक्त भेल अछि से हिनक गम्भीर चिन्तनक सुपरिणाम अछि। मैथिली मे भाषापक्षीय प्रभाग पर चिन्तन करयबला लोकक किछु अभाव अछि। मौलिक चिन्तन करयबलाक तँ नितान्त अभाव अछि। तेहन स्थिति मे श्री धीरजीक एहि चिन्तन सँ हमर पीढ़ी अनुप्राणित होयत, उपकृत होयत से स्वीकार करबा मे हमरा लोकनि केँ अशौकर्य नहि होयबाक चाही। मैथिली मे जे एखन धरि भाषा-विषयक चिन्तन सभ भेल अछि से बेसीठाम अपन परम्परागतरूप सँ भाषा-वैज्ञानिके चिन्तन रहल अछि। एकर दर्शनिकता आ कि एकर आस्मितापरक वैचारिक चिन्तन अत्यल्प भेल अछि, नहिये जकाँ भेल अछि। तेहन स्थिति मे श्री धीरजजीक भाषा-वैचारिक पक्ष मैथिली लेल मारिते रास क्षेत्र, मारिते रास बाट आ मारिते रास आयामक सम्भावना खोलैत अछि।

वस्तुतः भाषा एकटा चेतन क्रिया थिक। भाषा-चेतना एकटा नैसर्गिक गुण सदृश सेहो अछि। भाषा लेल भाव चाही, शब्द चाही। भाषाक दार्शनिक-वैज्ञानिक लोकनि शाब्दिक सेहो होइत छलाह। तेँ ने छओ वेदांग मे सँ चारिटा केँ शब्दे सन्दर्भित बनाओल गेल। ऋगवेदहि काल मे मिथिला आर्यस्थल बनि गेल छल। एकर सांस्कृतिक उच्चता चरम दिस छल। मारिते रास साक्ष्य एहेन उपलब्ध होइत अछि जे ई प्रमाणित करैत अछि जे तहियोक संस्कारोत्सव मे आ कि एकर लौकिक विधान मे मैथिली उपस्थित छल। महर्षि पाणिनिक धातुपाठ मे मारिते रास शब्द सभ एहेन अछि जे संस्कृत जगतक लेल अनचिन्हार अछि मुदा मैथिली लेल चिर-परिचित अछि।10 अमरसिंह रचित अमरकोष केँ सर्वविध उपयोगी आ सर्वाधिक प्रचलित कोषरूप मे प्रतिष्ठा प्राप्त छैक। सम्पूर्ण भारतक संस्कृत केँ एक सूत्र मे बन्हबाक श्रेय अमरकोष केँ छैक। एकर रचना ई. पू. तेसर शताब्दी मे भेल कहल जाइत अछि। सम्प्रति मैथिल विद्वान द्वारा कयल गेल एकर चारिटा प्राचीन टीका आ दूटा आधुनिक टीका उपलब्ध अछि जे कि 11म शताब्दी सँ ल’ क’ 20म शताब्दी धरिक अछि। अन्यहु प्रान्तक पंडित लोकनि एकर टीका करैत गेलाह। स्वाभाविके अछि जे हुनका लोकनिक टीका मे हुनका प्रान्तक भाषाक शब्द सभ एहि मे आयल अछि। तहिना मैथिल विद्वानक टीका सभ मे मैथिली शब्द प्रचुरता सँ भेटैत अछि।11 ई तथ्य सेहो मैथिली केँ अति प्राचीन भाषा होयबा मे एकटा समर्थ प्रमाण सन सिद्ध होइत अछि। श्री धीरजजी सेहो अपन वैचारिक चिन्तन मे अपन सूक्ष्म अन्वेषण-विवेचनादि सँ एकर प्राचीनता सिद्ध कयल अछि। मैथिली लोकभाषाक रूप मे, लौकिक भाषाक रूप मे वेदकालहि सँ अपन अस्तित्व सिद्ध कयने अछि। साहित्य-अपभ्रंशादि रूप मे आठम शताब्दी सँ तँ एकर प्रचुर साक्ष्य उपलब्ध अछि। ऋगवेदमे मैथिलीक शाब्दिक उपस्थिति सँ ई स्वतः स्पष्ट होइत अछि जे सतयुग मे मिथिले जकाँ मैथिलीक सेहो विख्यात स्थिति रहल होयत। से एकर अस्तित्वक प्राचीनता आ दृढ़ता केँ एकर संस्कारोत्सव-लोकोत्सवादि सेहो सिद्ध करैत अछि। तेँ श्री धीरजजीक ई स्थापना सभ अपन सम्पूर्ण अधिकार ओ दृढ़ताक संग हमरा सभक सोझाँ एकटा भाषापक्षीय स्तम्भरूप मे उपलब्ध होइत अछि।

आने लोकभाषा जकाँ मैथिलीक सेहो औपभाषिक भिन्नता अछि। ई भिन्नता एकर सौन्दर्य सेहो अछि आ एकर विकास-क्रमक ब्याजेँ एकर प्राचीनताक साक्ष्य सेहो अछि। तेँ जँ अनुमानक आश्रय लैत कही तँ ई कहल जा सकैत अछि जे मैथिली संस्कृत सँ प्राचीन लगैत अछि। एतहु श्री धीरजजीक विचार अपन समर्थ स्थापनाक संग हमर मार्गदर्शन करैत अछि। ओ इहो कहैत छथि जे मैथिलीओक मारिते रास शब्द केँ संस्कारित क’ संस्कृत मे सम्मिलित कयल गेल। पाणिनीय धाातुपाठ सँ मैथिली धाातुपाठ केँ जँ तुलनात्मक दृष्ट्या देखल जाय तँ लगभग चारि सय धातु स्पष्ट रूपेँ तत्सभ वा तद्भव भेटैत अछि। कतोक तँ जहिना संस्कृत मे उपसर्ग लागल भेटैछ तहिना मैथिलीओ मे।12 भाषा आ व्याकरणक सम्बन्ध अन्योनाश्रय अछि, पारस्परिक अछि। भाषाक आगमन पहिले होइछ। व्याकरण तँ शास्त्र अछि। शास्त्र तँ सदा-सर्वदा बादेक आविष्कार अछि। शास्त्र सँ ओकर अनुशासित रूप, सुसंगठित आकार आदि स्थिर होइत अछि जे कि एकरा दीर्घजीवन प्रदान करय मे सहायक होइत छैक। संस्कृतक समकालीन भाषा-उपभाषादिक जँ आजुक स्थिति जखन देखैत छी तँ बात स्पष्ट भ’ जाइत अछि जे ई व्याकरणक चमत्कारिक प्रभाव छल जे संस्कृत आइयो हमरा लोकनिक बीच अछि। अन्यथा आजुक प्राकृत, अपभ्रंश-अवहट्टादिक की स्थिति अछि? एकर अस्तित्व केहेन अछि? व्याकरण सँ भाषा केँ सुव्यवस्था भेटैत छैक, नियंत्रित विकास भेटैत छैक आ दीर्घकायिक-दीर्घकालिक जीवन सेहो भेटैत छैक। व्याकरणेक प्रसादात् कोनहु भाषा क्रमेण हस्तांतरित होइत रहल अछि आ एवंक्रमे भाषिक अराजकताक घटना अस्तित्वहीन बनल रहल अछि। अराजक रूप हस्तांतरित नहि भ’ सकैत अछि। भाषा सेहो नहि। भाषा केँ विलटबा मे आ कि संकटापन्न होयबा मे भाषिक अराजकता एकटा नमहर कारक बनैत रहल अछि। व्याकरण अपन स्वाभाविक रूप मे वर्गीकरण विधिक आश्रय लैत अछि। समस्त भाषिक विषय ओ तत्व केँ एकटा विशेष मानक आ ध्येयक संग वर्गीकृत करब ओकर स्वाभाविक विशेषता थिक। अध्ययनक सुगमताक क्रम मे वर्गीकरण स्वयमेव एकटा प्रसिद्ध व्यवस्था अछि। व्याकरण एही वैचारिक-तार्किक व्यवस्थाक अनुगमन करैत कोनहु भाषाक अध्ययन केँ सुगम बनबैत अछि। तेँ भाषा आ व्याकरणक सम्बन्ध आ कि भाषाविज्ञान आ व्याकरणक सम्बन्ध नितान्त पारस्परिक अछि। व्याकरण केँ जे वेदांग रूप मे आविष्कार कयल गेल तकर पाछू एहि सँ मिलैत-जुलैत कारण सेहो छल। प्रारम्भ मे जे व्याकरण-व्यवस्था वेदाध्ययन लेल छल से वैचारिक रूप सँ। भाषिक रूप सँ तँ ओ भाषाएक अध्ययन छल, संस्कृतेक अध्ययन छल। एतय आबि एकटा तथ्य स्वीकार करय पड़ैत अछि जे भाषा आ व्याकरण दुनू भाषा-विचार द्वारा एकठाम अबैत अछि। एहू अर्थ मे भाषा-विचार अपन महत्त्च आ दक्षता केँ नव प्रकारेँ प्रमाणित करैत अछि। एवंक्रमे श्री धीरजजी अपन शोधपरक गवेषणा आ चिन्तनक संग मैथिलीक भाषाक्षेत्र मे प्रासंगिक भ’ जाइत छथि।

भाषा अपन स्वाभाविक रूपेँ तकनीकी होइत अछि। एकर तकनीकी स्वभाव मे विचार-संप्रेषण रहिते अछि। तेँ ई निश्चये मानल जयबाक चाही जे भाषा केँ विचार सँ अलग नहि कयल जा सकैत अछि। भाषा केँ धार्मिक, साम्प्रदायिक आ कि कर्मकांडी आदि होयबा मे भाषाक यएह तकनीकी स्वभाव कारक-तत्त्व अनैत अछि। एहि स्थल पर आबि श्री धीरजजी भाषाक तकनीकि पक्ष केँ बेस तार्किक ढंग सँ स्थापित कयने छथि। संगहि ओ ईहो कहैत छथि जे भाषाक एकटा संकल्पना-संधारणा शक्ति होइत छैक। कारण ई एकटा विचार अछि आ विचार कोनहु संकल्पने मे व्यक्त होइत अछि। मानव अपन विकासात्मक लक्ष्य केँ मात्र संकल्पना सँ प्राप्त करैत अछि तेँ लेखकक स्थापना छनि जे कोनहु विचार अपन भाषिके संकल्पना मे अपन निजगुत आकार ग्रहण करैत अछि।

श्री धीरजजी अपन भाषा-विचारक क्रम मे भाषा केँ ऐतिहासिक दृष्टि सँ तीन प्रभाग मे विभाजित करैत छथि। ई अछि क्रमशः सांकेतिक अवग्राही भाषा, सम्भाष्य अवग्राही भाषा आ लेख्य अवग्राही भाषा। मानव सभ्यताक विकासक आदिकालक भाषा सांकेतिक अवग्राही भाषा छल। शब्दक आविष्कारक पछाति भाषा अपन सम्भाष्य अवग्राही रूप गढ़लक। जखन भाषा लेखनरूपक आग्रही होबय लागल तखन भाषा लेख्य अवग्राहीरूप मे आयल। सम्भाष्य अवग्राही भाषा अलिखित भाषाक प्रमाण अछि मुदा लेख्य अवग्राही भाषा लिखित भाषाक प्रमाण अछि।

एतावता एतेक रास विचार-स्थापनादिक उल्लेख करबाक ध्येय ई अछि जे डॉ- रामचैतन्य धीरज रचित ई पोथी ‘मैथिली भाषाक वैचारिक अस्मिता’ भाषाचिन्तनक एकटा नव त्वरा, नव क्षेत्र, नव धारा, नव व्याख्या-शैली, नव बोध आ नव स्थापना केँ मैथिली मे उपस्थापित कयलक अछि। महर्षि यास्क अपन निरुक्त मे पाँचटा परिवर्त्तनक आधार पर कोनो शब्दक विकास केँ मानबाक आदेश कयने छथि। ओ पाँचो थिक- वर्णागम, वर्णविपर्यय, वर्णविकार, वर्णनाश आ अर्थपरिवर्तन।13 शाप ‘श्राप’ भ’ गेल (वर्णागम), ‘हिंस’ धातु सँ सिंह बनल (वर्णविपर्यय) आ ‘कर्पट’ सँ कपड़ा, ‘भाण्डागार’ सँ भंडार, स्वर सँ सोर, घोर सँ घोल (अर्थपरिवर्त्तन) आदि भ’ गेल। मुदा एतय किछु प्रश्न उठाओल जा सकैत अछि। आखिर ई जे शब्दरूप किंवा अर्थरूप मे परिवर्त्तन होइछ तकर मुख्य कारक-तत्त्व की अछि? एहि परिवर्त्तनक प्रक्रिया की छैक? एकर स्वीकृति कोना होइत अछि? के दैत अछि एकर स्वीकृति? आखिर ओ कोन-कोन भौगोलिक, सामाजिक, सांस्कृतिक किंवा ऐतिहासिक कारक-तत्व सभ अछि जे एहि परिवर्त्तन मे अपन निर्णयकारी भूमिकाक निर्वाह करैत अछि? ई प्रश्न सभ अपन निजगुत उत्तरान्वेषण हेतु एकटा नव क्षेत्र आ नव चिन्तनक बेगरता उपस्थित करैत अछि। एहि स्थल पर आबि भाषादर्शन आ कि भाषाविज्ञान खाहे मौनवत् अछि अथवा संकुचित अछि। भाषाक्षेत्रक एहने-एहने विकट स्थल पर आबि एकटा वैचारिक विकल्पक खगता होइत रहलैक अछि। भाषाक्षेत्रीय ई वैचारिक विकल्प एकर समस्त दुरूह ग्रंथि सभ केँ खोलैत अछि, निर्णय दैत अछि आ समाहार सेहो प्रस्तुत करैत अछि। कहि सकैत छी जे श्री धीरजजीक ई भाषा-विचार अपन सदिश वेगक संग एहि दिशा मे काज करब शुरू क’ देने अछि। किछु सार्थक परिणामो प्राप्त भेल अछि जे गर्व करबाक लेल हमरा लोकनि केँ मारिते रास तथ्य सभ सेहो दैत अछि।
वस्तुतः कोनहु भाषा मे ई शब्दगत-अर्थगत परिवर्त्तन कोना घटित होइत छैक? संस्कृतक भाषानुशासन सँ चलल शाप, हिंस, गोधूम, आम्र, कर्पट प्रभृति असंख्य शब्द अंततः कतय आबि क’ क्रमशः श्राप, सिंह, गहूम, आम, कपड़ा आदि बनि जाइत होयत? जँ एहि परिवर्तनक क्रमिकता अथवा क्रमिक विकास केँ देखल जाय तँ एहि संदर्भ मे सेहो ‘लोक’क भूमिका महत्त्वपूर्ण होइत अछि। वस्तुतः ई परिवर्त्तन ने तँ हवा मे होइत होयत आ ने कोशग्रंथादि मे। ई शब्द सभ जखन अपन उत्तर-समाज मे उतरैत अछि तखन ओहि लोक-समूहक लौकिक-सामूहिक कारण सँ ओहि शब्द सभ मे परिवर्त्तन होयब सम्भव होइत अछि। तदुपरांत शास्त्रज्ञ लोकनि अपन सीमा-सौविध्यक अनुकूल ओहि परिवर्त्तन केँ अपन शास्त्रमे सेहो सम्मिलित करैत छथि। जँ सम्भव भेल तँ ओहि परिवर्त्तन लेल मौलिक किंवा अपवाद नियम सेहो बनबैत छथि। शास्त्रज्ञ लोकनि लेल, विशेष क’ भारतीय भाषा-वैज्ञानिक परम्पराक शास्त्रज्ञ लोकनि लेल ई एकटा प्रशंसनीय पक्ष सेहो अछि। एकरा आमजन द्वारा एकटा भाषावैज्ञानिक हस्तक्षेप सेहो कहल जाय आ एक प्रकारेँ एकरा आमजनक प्रति हुनक भाषापरक योगदान लेल शास्त्रज्ञ लोकनि द्वारा देल गेल सम्मान सेहो कहल जाय। आ एवंक्रमे ई चरितार्थ होइत अछि जे लोक-स्वीकृतिक उपरांते शास्त्रक स्वीकृति होइत अछि। शास्त्रज्ञ लोकनि ओहि लोक-स्वीकृत तथ्य विचारादि केँ अपन वैज्ञानिक प्रक्रिया सँ शोधित-मार्जित क’ शास्त्र-स्वीकृत बनबैत छथि। फलतः ओकर उपयोगक परिधि चाकर होइत छैक आ ओ अधिकाधिक क्षेत्र आ वृहत्तर समाज हेतु उपयोगी सेहो बनाओल जाइत अछि। सम्पूर्ण भाषिक समाज मे यएह प्रक्रिया अदौ सँ चलैत आबि रहल अछि। असल मे दुनियाँक कोनहु भाषा मात्र कोनहु वर्ग-विशेषक आवश्यकताक पूर्ति लेल नहि, अपितु सगर समाज आ ओकर सभ वर्गक आवश्यकताक पूर्ति लेल जन्म लेलक। भाषाक क्रियात्मक भूमिका कोनहु एक वर्गक क्षति क’ क’ कोनहु दोसर वर्गक सेवा करब नहि अछि अपितु समान रूपेँ सगर समाजक आ सभ वर्गक सेवा करब अछि। भाषा सम्बन्धी भारतीय अवधारणाक संगहि मार्क्सवादी भाषा-चिन्तन सेहो उपरोक्त विचारक समर्थन करैत अछि। एहि समर्थन सँ उत्साहित होयबा काल ई कहब आवश्यक भ’ जाइत अछि जे भाषाक्षेत्र मे विचरण करबाक लेल कोनहु भाषादर्शन आ कि भाषाविज्ञानक अधययन सँ पूर्व भाषा-विचार केँ बूझल-जानल जयबाक चाही। ताही परिप्रेक्ष्य मे श्री धीरजजीक भाषा-संदर्भित वैचारिक चिन्तन समकालीन मैथिली जगत केँ अपना दिस ध्यान घिचबाक लेल समुचित आ समर्थ उद्योग कयलक अछि। हिनक एहि भाषा-विचार मे न्यूनाधिक ओ विशिष्ट तत्व सभ निजगुत स्थान लेने अछि जे भारतीय भाषाचिन्तन सहित भारतेतर भाषाचिन्तन मे सेहो बीजरूप अथवा वृक्षरूप मे उपस्थित भेटैत अछि।

अपन वस्तु आ कि अपन लोक-समाजक प्रति घोर विस्मृति-भाव सँ आ घोर उपेक्षा-भाव सँ भरल एहि भीषण कालखंडो मे श्री धीरजजीक एहि भाषा-विचार केँ अवश्ये अखियासल-अंगेजल जायत। ई पोथी मैथिलीक पारम्परिक भाषावैज्ञानिक आ कि भाषाचिन्तक लोकनिक सोझाँ एकटा हस्तक्षेप प्रस्तुत करैत अछि। हिनक इहो पोथी प्रथमे पोथी जकाँ लोकप्रिय होयत, समादृत होयत से विश्वास अछि।

संदर्भ सूची-

1- वृहदारण्यक- 1/3/28
2- तैत्तरीयोपनिषद- 2/5
3- वाक्यपदीयम्: भर्तृहरि- 1/14
4- Encyclopaedia Britannica, Philology.
5- Phonetics In India: W. S. Allen, Page-3.
6- निबन्धमंदारमंजरी: पं. (डॉ.) शशिनाथ झा, पृ– 12, 2009, दरभंगा।
7- निबन्धमंदारमंजरी: पं- (डॉ.) शशिनाथ झा, पृ– 1, 2009, दरभंगा।
8- भाषाविज्ञान की भारतीय परम्परा और पाणिनि: डॉ- रामदेव त्रिपाठी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, पृ–10, 1977, पटना।
9- भाषाविज्ञान की भारतीय परम्परा और पाणिनि: डॉ- रामदेव त्रिपाठी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, पृ–10, 1977, पटना।
10- निबन्धमंदारमंजरी: पं- (डॉ-) शशिनाथ झा, पृ–02, 2009, दरभंगा।
11- निबन्धमंदारमंजरी: पं- (डॉ-) शशिनाथ झा, पृ–44, 2009, दरभंगा।
12- निबन्धमंदारमंजरी: पं- (डॉ-) शशिनाथ झा, पृ–02, 2009, दरभंगा।
13- निरुक्त: महर्षि यास्क – 2/12