माटिपानिक निधोख कविता ‘तें किछु आर’ (समीक्षा) — रमेश

एकैसम सदीक दू दशक मे मैथिली कविताक क्षेत्र मे जे प्रतिभा सभ सृजनरत भेलाह अछि, ताहि मे अरुणाभ सौरभ अपन बेछप छवि आ स्थान सुरक्षित क’ लेलनि अछि। पहिल दशक सँ काव्य रचना- प्रारंभ क’ दोसर दशक(2011 ई. मे)’एतबे टा नहि’, अपन पहिल काव्यपोथीक संग जाहि ‘लोकल सिपाही’क काव्य-प्रवेश करौलनि, तकरा सँ अपन दोसर काव्यपोथी मे ग्लोबलक विरुद्ध ‘ताल ठोकबाक’, कोसी-क्षेत्रक माटि फेकबा देलनि अछि।

संघर्ष-चेतना-धर्मी कोसी-क्षेत्र सँ ओ, संघर्षमय काव्य- हस्तक्षेप, स्थानीय साहित्यिक सिपाही जकाँ,लोकभाखा आ क्षेत्रक अस्मिता केँ अक्षुण्ण रखैत, केलनि अछि। ग्लोबल गाम केँ माटि-पानि बला स्थानीय गाम हिनकर कविता मे चुनौती द’ रहल अछि। लोकजीवनक प्रति अगाध आस्थाक संग अरुणाभ, जन-संघर्ष केँ काव्यमय अभिव्यक्ति देबाक प्रयास केलनि अछि। पहिल संग्रहे मे प्रेम-राग, गाम-प्रेम, कोसी-क्षेत्रीय जन-स़ंघर्ष आ दर्द, स्थानीयताक स्वर पर, लघु-आकारीय कविता रचैत ‘एतबे टा नहि’ केर आश्वासन देने छलाह। ‘तें किछु आर’ मे, से सभ काव्य-प्लॉट कड़ाचूर जुआन भ’ क’ आर-आर वैविध्यक स़ंग आयल अछि।

यद्यपि पोथीक नामकरणक ई शैली प्रथमत: अरूणाभेक काव्य-पोथी मे नहि आयल अछि। कुलानन्द मिश्रक ‘तावत एतबे’ आ ‘आब आंगां सुनू’ मैथिली काव्य-संसार मे चिर-स्मरणीय अछि। मुदा ताहि सँ नामकरणक ई शैली पुरान नहि भ’ जाइत अछि। स्वस्थे परंपरा प्रमाणित होइत अछि। नामकरणक पारंपरिक शैली सँ फराक आ अ-पारंपरिके अछि। तहिना हिनकर ‘पोथी-समर्पण, कृतज्ञता-ज्ञापन आ पुरोवाक् संज्ञान लेबाक मांग करैत अछि। हिनकर पहिल काव्यपोथी ‘एतबे टा नहि’ हुनका सभ केँ समर्पित अछि,जे प्रत्यक्षत: आ परोक्षत: हिनकर कविताक कारण छथि। अपन माटि-पानि केँ काव्य-प्रेरणा मानैत, मैथिलीक सब लेखक आ संस्कृतिकर्मीक प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करैत छथि ओ।

‘तें किछु आर’ मे त’ ओ हरेकृष्ण झाक ‘एना त नहि जे’क शैली मे, ऋग्वेदक सूक्ति केँ ‘पुरोवाक्’ बनाक’, काव्य-सृजनक नीतिनिर्धारक तत्व जकाँ, अपन काव्य-पोथी मे स्थान प्रदान करैत छथि। सेहो कवि-कर्मक उद्देश्यें। आजुक तिथि मे जाहि वर्गीय-चेतनाक प्रासंगिकता अछि, से अरुणाभ मे छनि। ऋग्वेद धरि पहुँचब सवर्ण-अवर्ण कोनो कवि लेल निषेध आ नहि अछि, कारण ओ प्राचीनतम काव्य- ग्रंथ आ इतिहास-ग्रंथ थिक, सतपथ ब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण, तैतरेय ब्राह्मण जकाँ ‘ब्राह्मण-ग्रंथ’ नहि।आजुक तिथि मे कोनो आधुनिक आ प्रगतीशील कविक ‘लेखन-हेतु’, ब्राह्मणवादक पक्षपाती भइए नहि सकैछ, खाहे ओ हरेकृष्ण झा होथि, अथवा अरुणाभ सौरभ।

अरूणाभ नवउदारवाद आ नव-उपनिवेशवादी आर्थिक साम्राज्यवादक प्रतिकार मे लोकपक्षीय चेतना केँ सुस्थापित करैत, समानान्तर प्रतिरोधी चेतना केँ पुष्ट करैत छथि। सांस्कृतिक चेतनाक मोर्चा पर अति-सक्रिय भ’, अपन गाम चैनपुर आ मधुबनी मे मसाल लेसैत, घूर तर नुक्कड़ कविताक गोष्ठी आयोजित करैत छथि, कारण साहित्यक मशालबला भूमिका सार्थक आ प्रासंगिक होइत अछि। अपन कविता मे सर्वहारा प्रेमाधिक्यक अभिव्यक्ति दैत, आयोजनो सब मे समानान्तर प्रतिरोधी चेतनाक विकास केँ, तकर विमर्श केँ प्राथमिकता दैत, नोतैत छथि। अपन विस्तृत जनवादी लोकचेतना आ काव्य-चेतनाक चिन्ता करैत, समस्त सकारात्मक परिवर्त्तनक ‘मुख्य भूमिका’ कविता केँ प्रदान करैत, परिवर्त्तन औजारक रुप मे, अपन कविता केँ, ओ अपन दुनू कविता-संग्रह मे स्थापित केलनि अछि।

आजुक कोनो कविक लेल वैचारिक विकासक दिशा-संधान एकटा महत्वपूर्ण कारक होइत अछि। से अरूणाभक जनपक्षधरता कवितो मे आ वैचारिक अभिव्यक्तियो मे, असंदिग्ध अछि। तें ओ आजुक काव्य-सृजन केँ, ‘सजग कविता-संस्कृति’क नाम दैत छथि। आ खुलिक’ तकर पक्षो लैत छथि। ओ अपन जनोन्मुखी सोच केँ देखार करबा मे कनियों ततमत्ती नहि देखाबैत छथि। क्रांतिधर्मी चेतना केँ परिपुष्ट करैत, जड़-मूल्य केँ ललकारैत हिनकर काव्य-प्रवाह, काल-प्रवाहक समानान्तर चलायमान अछि। सेहो अपन लोकधर्मी अभिमुखताक संग। वस्तुत: ‘ग्लोबल बनाम लोकल’ केर संघर्ष मे ओ कविता केँ उचिते एकटा ‘लोकल सिपाहीक हस्तक्षेप’,’जन-संस्कृति सँ स़ंवाद बनाबक लेल हस्तक्षेप’, क्षेत्रीय अस्मिता आ संघर्षक हस्तक्षेप’ मानैत छथि। काव्य-सम्बन्धी ई सभ अवधारणा, हुनकर कवि केँ ‘जन-संघर्षक कवित्वमय अभिव्यक्ति’ लेल तैयार करैत अछि। काव्य-गंभीरताक अपन प्रयास केँ स्वीकारैत,अगंभीरताक प्रतिकारक अभिज्ञान सेहो स्वीकारैत छथि। मुदा अपन एही आमुख मे अपन सब कविता केँ ‘अपूर्ण’ गछब, ‘पूर्णताक सामर्थ्य आ अपन इच्छा’ पर अपने सँ प्रश्नचेन्ह लगायब, निश्चितरूपेण विरोधाभासी भ’ गेल अछि। से उत्साह मे विरोधाभासी अभिव्यक्ति परहेजनीये थिक। ‘तें किछु आर’क पहिले कविता ‘कनेर'(कनैलक फूल) संस्कृति आ कविता मे संवाद करैत, इतिहास मे हस्तक्षेप करैत, प्रार्थना आ पूजा केँ निषेध करैत अछि। से कहबाक आ सैह करबाक कवि केँ अधिकार छनि। मुदा ‘अपनेक ई हँसी हमर तागति छी’ मे कविक आत्मनिष्ठ आस्थाक चरम- प्राकट्य भेल अछि। कविता मे संस्कृति-तत्व, स्मृति-तत्वक वरणेका त’ भेल, मुदा आशीषक व्यक्तिगत उत्कट आकांक्षा, कविताक आत्मनिष्ठता केँ बढ़ा देलक अछि।

तहिना ‘हमरा लेल जीवकांत’ मे आत्मनिष्ठ भावनाक व्यक्तिनिष्ठ काव्य-प्रदर्शन, साहित्यिक आस्था सँ कनेक आगूए भ’ गेल अछि। जीवकांतजी त’ पूरा-पूरी ‘होलटाइमर लेखक’ नहि भ’ क’ शिक्षको छलाह। राजकमल चौधरी आ यात्रीजी त’ हुनका सँ पैघ ‘होलटाइमर’ छलाहे। जीवकांतजी कविते टा मे नहि, कथा- उपन्यास-निबन्ध-पोस्टकार्ड -लेखन, सब किछु मे एक समान गति-वेग रखैत समानान्तर जिबैत आ रमैत छलाह। एहि कविता मे व्यक्त आत्मनिष्ठताक प्रतिशत, तथ्य पर भारी पड़ैत, आन ‘असली लेखक’क उपेक्षा करैत, ‘कनेर’क पूजा-निषेध-भावक विपरीत, ‘भक्ति -भावे’ व्यक्त भ’ गेल अछि। से भेल अछि, स्नेह-सम्मान सँ बहुते आगू बढ़िक’, जखन कि कविक वैचारिकता जीवकांतजी सँ एकदम्मे फराक अछि। जखन प्रेमक भाषा ‘उलटबांसी’ सन बुझाय लागय ककरो, त’ ‘चिकारी भाषा’ विशुद्ध प्रेम लेल बहुत उपयुक्त होइत छै, जे मिथिला मे सबदिन स़ँ होइत आयल अछि। तकरा लेल ‘आइ लव यू’ सन घ़सल-पिटल फिल्मी अपरिपक्व अभिव्यक्तिक आ छौंड़ा-छौंड़ीक प्रेमविहीन सेक्स-विस्फोट आ छिनरपनक मैथिली अनुवादक कोनो टा जरूरतियो नहि अछि आ प्रेम-संवेग अनुवादक वस्तुओ नहि थिक। तथापि एहि बचकानी कामावेग-वाक्यक जिनका मैथिली मे अनुवाद-अभिव्यक्ति नहि भेटलनि, से ओइ लेखकक (जेना, राजमोहनझा, वा तेहने कोनो जमीनी भाखा-गरीब लेखकक) सीमा थिकनि, मैथिली भाषाक नहि।

‘आब जौं हमरा प्रेम अछि’ (1आ 2), तकर लोप व्यवस्थित दाम्पत्यक सूरसार मे, अथवा दाम्पत्यक चरण सभ मे भ’ रहल अछि, त’ विवाह- दाम्पत्य- संस्थोक दोष भ’ सकैछ आ हमर प्रेम-कलाक अपटुताक सेहो, कारण, जीवन मे बीस बेर प्रेम हैब, एको बेर प्रेम हैब नहि थिक। प्रेमक ताप सेरायब आ लोप हैब दुनू दू बात थिक। मुदा से बात ‘मातृभाषा-1 आ 2’ मे नहि अछि। दुनू कविता मे ठाम-ठीम ‘कवितो’ आयल अछि। मातृभाषा ‘पियास मे समुद्र सन’ अछि। तें किछु आर, जेना सिनेह, मुक्तिगीत, मिश्री आ सकरपेड़ा, मैथिली मे रचल कविता, आदि-आदि। कविता मे आयल मातृभाषा-प्रेमक नीक उपमान अछि। मुदा मातृभाषा- प्रेमक माध्यमे , कविता कम्मे आबि सकल अछि, कविता मे।

अरूणाभ ‘निधोख कविता’ केँ ‘सुच्चा कविता’ कहलनि अछि। कवि वस्तुत: निधोख कविताक बाट पर छथि आ’अभिव्यक्तिक सब तरहक खतरा’ उठेबाक लेल तैयार छथि। तें कम-सँ-कम तीन-चारिटा कविता मे हिनकर युवा काव्य-पात्र डांड़ मे थिरनट्टा, रिवाल्वर,कट्टा, पेस्तौल खोंसैत अछि अथवा हवा मे लहराबैत अछि। वस्तुत: छुच्छ वैचारिकता कविता केँ समकालीनता आ प्रसिद्धि त’ द’ सकैत छै, मुदा कालजयी नहि बना पबैत छै। ई संभव अछि जे अरुणाभ ‘राजनैतिक एक्टिभिज्म’ केँ ‘सोसल एक्टिभिज्म’ बुझिए क’, तंत्रक विरुद्ध नैराश्य-प्रदर्शन मानिए क’ , अपन काव्य-कथ्य मे तकर समावेश केने हेताह ।

सामाजिक कटु यथार्थक संज्ञान लेब कविक दायित्व त’ थिक, मुदा थिरनट्टाक दिशा-संधान आ सम्यक् समाधान पर विमर्शो आवश्यक अछि। जे काज सामाजिक संगठन-आन्दोलन सँ संभव अछि, से ‘थिरनट्टा-गुंडागर्दी’क नक्सलवादी फैशन सँ संभव नहि अछि। थिरनट्टा-कट्टाबला राजनैतिक उग्रवाद,आदर्श- पथ-विचलित भ’,एरिया कमान्डर सबहक विविध भ्रष्टाचार, विकास-विरोधी हेबाक आ अन्य कारणे अपन प्रासंगिकता समाज आ साहित्य सबठाम समाप्त क’ लेलक अछि। तेँ अरुणाभक काव्य केँ बारुदक धुआँ बनिक’ नहि उड़बाक चाही,सृजन-प्रधान भ’ निर्माणक पक्ष मे, आक्रोश-पाचन आ भावावेश-चयापचयक संग आबक चाही। कारण, निधोखपन त’ अरुणाभक काव्य मे अन्तर्गुंफित रहितहि अछि।

मानल जे कोसी-क्षेत्रीय लम्पट नेतृत्व-वर्ग, परिवेश मे असंख्य थिरनट्टा लहरा देने अछि। मुदा हमर काव्य-पात्र ताहि गुटक सदस्य नहि ने बनत? थिरनट्टाबला हाथक (हमर काव्यपात्रक) अंतत: की नियति होइत अछि ? साहित्य,समाज आ ओहि व्यक्तिक कोन कल्याण भ’ पबैत अछि? आइ धरिक नक्सली आन्दोलनक मूल्यांकन हो,जे देस-समाज-साहित्य केँ की-की फायदा भेलैक? थिरनट्टा काव्यक धार केँ भोथे करैत अछि, रेतीक शान नहि चढ़ाबैत अछि।

हमरा काव्य आ काव्य-पात्र केँ वर्गविहीन आ शोषणमुक्त ‘वर्गविहीन सिविल सोसाइटी’क निर्माण केनाइ छै, जे दक्षिणपंथ, नक्सलपंथ, चीनपंथ, अमरीकापंथ, ककरो सँ सँभव नहि। भारतीय सिविल सोसाइटी ‘अपना जमीन पर ठाढ़ भ’ क’ अहिंसक, मुदा प्रगतिशील, अग्रेतर यात्रा’ पर विमर्श करत। से आदर्श-विचलित राजनीति आ सुविधाभोगी कूटनीति , दुनू सँ हेबाक संभावना समाप्त अछि। कोनो सामाजिक परिवर्त्तन लेल काव्यमे जे ओजस्विता चाही, तकर अभाव मे बौआ-बुच्चीक आँखि मे धधरा नहि धधका सकबाक ‘अबिनखेद'(स्वत: प्रमाणम्) राजकमलो केँ भेल छलनि, तकर बादो अनेक कवि केँ भेलनि अछि। आ अरुणाभो केँ छनि। साहित्य सामाजिक आक्रोश केँ स्वर त’ दैत अछि, मुदा ‘सम्पूर्ण क्रांति'(जे.पी.आन्दोलन) गलत हाथ मे जा क’ आ नक्सलवाद हिंसक दिशा मे जा क’ अपन अस्तित्व पर कुठाराघात क’ लैत अछि। तकर अबिनखेद त’ ‘स्वत: प्रमाणम्’ हेबे करतैक। सभ तरहक राजनैतिक दलक ‘एकरंग’ अवसरवादी हेबाक कारणे, वैचारिक प्रगतीशीलता पर चलैत, साहित्य-सृजनक आ भीषण सँ क्रांतिकालक विश्लेषणक समय थिक ई।

वामपंथक अहिंसक आ खांटी स्थानीय भारतीय संस्करण पर विमर्श आ विकासक समय थिक ई। समस्त अवसरवादी भारतीय वामपंथी राजनैतिक दल केँ भंग क’ क’ अथवा एकीकृत (तत्काल असंभव जकाँ) क’ क’, अवसरवादी-स्वार्थ सँ ऊपर उठि, विचारधारा-आधारित (मुदा लेखकीय स्वतंत्रता पर समझौता कयने बिना) काज करबाक समय थिक ई। ई समय अपन लेखकगण सँ प्रतिबद्धता गहबाक आ कट्टरता-उग्रता छोड़बाक मांगक रहल अछि। आइ समाजक भिल्लेनगिरी आ सत्ताक कसाइपनाक ध्वंस जरूरी अछि, विद्यालय भवन केँ अथवा रेलगाड़ी केँ डाइनामाइट सँ उड़ेनाइ नहि। एहने सन परिस्थिति मे ‘कखनो नेनाक शिकार’, कत्तहु भ’ जाइत अछि। बेगूसराय सँ गायब भेल कनकिरबाक, बिना किडनी-लीभरक लहास, मुम्बइ मे भेटि सकैत अछि।

सामूहिक बलात्कारक शिकार मंगलीक पक्षधरता मे (आब मंगली कहिया गेतइ गीत) काव्यक संवेदनशीलता त’ आयब आवश्यक छल, से आयल। मुदा आक्रोश-प्राचुर्यक स्वांगीकरण (एस्सीमिलेशन)कविता मे भेनाइ छल। मंगलीक शास्त्रीय-संगीतक धुनक गूंज गाछी सँ गाम मे नहि पहुँचब, अपना समाजक दु:खद विडंबना थिक। आमजन केँ मधुमाछी कटबेबाक षड्यंत्र ‘सन् सैंतालिसे सँ’ वा तकरो पहिने सँ निस्संदेह चलि रहल अछि, तकर वर्णन-यथार्थक चरम भ’ गेल अछि। कोसी-क्षेत्रीय ‘गतानल मोन’ मे बालुक चौल अन्नदाताक माथ केँ आउल-बाउल क’ दैत अछि आ अन्नदाता सरकार केँ सम्बोधित भैओक’, अपन कीड़ामार दवाइ अपने खाक’ किसानक आत्महत्याक कथा बनिक’ रहि जाइत अछि।

‘दुखिया दास कबीर’ मे, सुखिया सब संसारो नहि अछि। समाज, दियाद आ दालि केँ संग-संग दरड़ैत अछि आ सत्ता गरीबक लहास पर शॉपिंग मॉलक पाया ठाढ़ करैत अछि। तकर विरोधाभासी विडंबना अत्यधिक शिल्प-विस्तार पाबि गेल अछि। ‘निछच्छ गाथा’ काव्य मे कृषि-शास्त्रक उपयोगक’ प्रयोग- गाथा’ बनितो ‘निछच्छे गाथा’ बनि क’ रहि गेल अछि। गामक विसंगतिक यथार्थवादी उपस्थापन, मचानक सामूहिकता-सार्वजनिकताक पक्ष मे ‘मचान कविता’ करैत अछि। मचानक सहजीवन-भावनाक विस्तार, समाजक सभ वर्ग धरि करैत अछि। मचान नहि, तखन गामे कथीक?मचानक फट्ठा पर औंघरेबाक आह्वान, अरुणाभक कविक जनसामान्यीकरणक अनिवार्य प्रक्रिया थिक। ‘मीता’ केँ ई कहब जे, जिनगी जीबाक छौ त’ ‘भारती-मंडन-गान भए जो’, ‘मरनाइ छौ, त’ लड़िक’ वियतनाम भ’ जो’, ओही प्रक्रियाक काव्यात्मक निष्पत्ति थिक। ताहि काव्यात्मक अभिव्यंजनाक चरम प्राप्त करैत अछि, ‘हमर कहए के मानि’ क’ शिल्प-कथ्य-समन्वय आ संतुलन।तहिना आमजन बनाम सत्ताक काव्याख्यान ‘हम कहब… ओ कहता’ प्रतिमान-काव्य बनि गेल अछि।

‘हम कहब खेती, ओ कहता डिजिटल,
हम कहब रोटी, ओ कहता पिज्जा !
पहिने ओ अनठेताह, फेर लाठी चार्जक’ जहल देखेताह।’

तखन ककरा कहबाक मानि भेलैक? आमलोकक कहबाक मानि नहि हैब, एहि देसक आजुक कटु यथार्थ थिक। मुदा कथ्यक संग तेहेन कवित्तनहि हैब, राग-रसोइ-पागड़ी जकाँ, ‘कभी-कभी बन जात’ भेल अछि! मुदा ‘बनत-बनत बन जात’ सेहो कोनो कविक विकास-प्रक्रिये थिक। गाम-स्वरुप आ ग्रामीण संस्कृतिक समवेत स्वरक वर्णन लेल ओ ‘बघवा’ नामक गाम केँ चुनैत छथि। मुदा वर्णनाधिक्य मे अनेरोक विस्तार भ’ गेल अछि। मुदा फेर ‘रहस्येतर’ मे मिथिला समाज मे चान-तरेगन-इजोतक निष्कासनक, फेफड़ा पर चलैत हथौड़ी, करेजा पर मारैत ब्लेडक, कालभैरव सँ पिशाचमोचन धरि मणिकर्णिकाक लहासक छाउर औंसबाक, सब किछुक कारण, भयावह जीवनक यथार्थ, सम्बन्ध-बन्धक अपमान थिक। से सुस्पष्ट अछि।

से अप्पनपन ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ मे छल, कि भूमंडलीकरण मे अछि? की सौंसे दुनियाँक बच्चा एक्कहि भाखा मे कानि-बाजि सकैछ? तखन त’ ओ ‘भूमंडलीकृत बच्चा’ भइये जायत! तखन कविताक अस्तित्व खतरा मे पड़ि जायत, से अरूणाभ कहैत छथि। ‘ताधरि कविता’ बाँचल रहत, जाधरि विविध भाखा मे नेना सब तोतरायत। श्रम-गंध बाँचल रहत जाधरि, ताधरि हिंसा-हत्याक प्रतिपक्ष मे कवितो बांचल रहत।’ जहिना उत्तर-आधुनिकतावादी विनाशी घोषणाक बावजूद, इतिहास आ संस्कृति बाँचल अछि, तहिना! ताधरि! कवितो !

पूर्व-किशोर-वयक नव आँखि, नव उत्साह आ नेनपनक नैसर्गिक उन्मुक्तता केँ आनन्दब आ तकर मधुर स्मृति मे, जीवनक आनो चरण मे चुभकब, वस्तुत: ‘गजबे समय केँ मोन पाड़ब’ थिक। अकास मे साइकिल चलेबाक ओ समय, तखन विरोधाभासी भ’ जाइत अछि, जखन डाँड़ मे फिल्मी थ्रीनट्टा खोंसा जाइत अछि। से नेनपनक जीवनो मे आ कवितो मे आँकड़ सनक लगैत अछि। कारण, एक्के डेग आगू बढ़ला पर ‘व्यवस्थित दाम्पत्यक सूरसार’ चलैत रहैत अछि। नेनपन आ पूर्व-किशोरवयक मध्य मुदा, ‘मेडोना आ ब्रिटनी स्पीयर्सक फोटो कतरने घूरब वा रंजुआ केँ अनेरे कसिक’ पंजिया लेबाक ओहि समय केँ आनन्द वस्तुत: ‘गजबे समय केँ मोन पाड़ब’ त’ थिक। से ‘कमाल के समय’ जीवनक एकटा अपरिपक्व कालखण्डक उदात्तता थिक। ‘गजबे’ समयक स्मृति थिक। मुदा, ध्यातव्य ईहो थिक, जे सैह ‘गज़ब समय’ जीवनक बनबाक आ बिगड़बाक, दुनूक, समय होइत अछि।

कथ्यक वैविध्य अरूणाभक कविताक प्राणतत्व आ धनिकपन थिक। जीवनक अनुभवक वैविध्य आ धनिकपन, कथ्यक आधारभूमि आ प्लॉटक ‘कच्चामाल’ होइत अछि। ताहि मे धनीक हैब अरुणाभक कविक धनिकपन थिक। देस-दशा-कथ्य, हिनकर काव्यक ओहिना आधारभूमि बनैत अछि, जेना भारतेंदु हरिश्चन्द्रक नाटक मे ‘हा हा, भारत दुर्दशा न देखी जाई’ ! सामाजिक अभगदशा, हिनकर काव्य मे हाहाकार करैत अछि, जे सामाजिक आ राजनैतिक चेतनाक एकटा आयामे थिक। सेहो प्रतिरोधी चेतनाक संग। ‘जेना कि गरमा धान’ कटनी-दौनीक उपरांत किसानेक संग परदेस पहुँचि जाइत अछि आ ‘भात, भूख बिसरबाक एकटा साधनक नाम’ बनि जाइत अछि। ‘जब्बर जाड़ मे मोन’ ऊनक लेल मूड़ी उठबैत अछि, त’ ऊनी कपड़ाक बदला मे कश्मीरक नक्शा देखा जाइत अछि। ‘सेहो हमहीं कहब’ मे पलायनक दर्द, सुन्न- मसान गाम मे टिटहीक व्याकुल स्वर आ गामक ओगरबाहिक चिन्ताक निराकरण मे, कवि आ कविते केँ ठाढ़ कयल गेल अछि।

सत्ता किसान केँ ‘सपनौर’ जकाँ निच्छोह परदेस भगा रहल अछि। सत्ताक खलनायकीक विरुद्ध, सत्ता केँ सम्बोधित कविता थिक, ‘दू पाटनक बीच’। से दू पाटन थिक, राजनैतिक सत्ता द्वारा प्रादुर्भूत समस्या आ सामाजिक पाखण्डबला परंपरा। ताहि मे सांस्कृतिक आदान-प्रदानक निषेध, साम्प्रदायिक सद्भावना केर ताड़-भंग, टुनटुनमाक थ्रीनट्टा लहरायब सँ ल’ क’, लीभर-किडनी-शहर-गामक खरीद-बिक्री धरिक उपभोक्ता-संस्कृति, शोषण-विकृतिदेस-दशाक काव्य-कथ्य बनिक’ अबैत अछि।तहिना आदिवासी जीवन केँ आधार बना क’ लिखल गेल व्यंग्यात्मक सम्बोधन-काव्य थिक, शीर्षक-काव्य, ‘तें किछु आर’, जकर मुख्य स्वर अछि, ‘सावधान ग्लोबलिया ! जिततौ लोकलिया !’ प्रत्यंचा चढ़ौने, प्रतिकारक मुद्रा मे कड़े-कमान आदिवासी, अपन देसक शोषक समाज सँ ल’ क’ ‘ग्लोबल पाहुन’ धरि केँ टंकार मारि रहल अछि। चापाकल मांगैत जनता केँ बिसलरीक बोतल थम्हेबाक विडंबना केँ देस-दशा-काव्य-कथ्य बनायब अरुणाभक राष्ट्रीय चेतनाक समाजीकरण थिक, समस्या-काव्यक जनसामान्यीकरण थिक।

ग्लोबलक विरुद्ध लोकल-नीतियेक अन्तर्गत, कोसी-क्षेत्रीय स्थानीयता-काव्य-सृजनक एकटा श्रृंखला अरुणाभ प्रस्तुत केलनि अछि, जाहि मे स्थानीयताक डिगडिगिया ओ निधोख भ’ क’ पिटलनि अछि। स्थानीयता-काव्य केँ सार्वजनीन आ विश्वजनीन बनेबा मे भेटल सफलताक प्रतिशत आ ताहि दुनू तत्वक संतुलनक उपलब्धि, विचाराधीन आ विमर्शाधीन रहितहुँ, जमीनी कविता, अपन ‘जमीनक ओकालति’ खूब नीक सँ अवश्य केलक अछि, भलें ‘सुच्चा कविता’ बनि सकल हो अथवा नहि। हिनकर कवि सेहो करीप-करीप समस्त कोसी-क्षेत्रक काव्य-भ्रमण केलक अछि, यद्यपि अनेक काव्य-पात्र त’ थ्रीनट्टे पेस्तौलक संग नक्सली-शैली मे भ्रमण केलक अछि।

कोनो आंचलिक स्थानीयता-काव्य मे, जतेक प्रश्नाकुलताक सामंजन जरुरी अछि,से ततेक अरुणाभक ‘लोकल कविता’मे आयल अछि। ‘जेनाकि बनगाम’ मिथिलाक एकटा सांस्कृतिक उपादान बनिक’ आयल अछि। मुदा ‘बाबाक कुटी'(लक्ष्मीनाथ गोसाइंक)लगक ‘साँझक गाछ'(राजकमलक कथा) बला चबूतरा अनुपस्थित रहल।

‘सहरसा-थरबिटिया पैसेंजर’क मिथिलाक विकास जकाँ हुकरि-हुकरि चलब, गोबर सँ संसद भवन केँ ढ़ौरब, बथान पर शेयर बजार चलायब, कोसीक पानि पीयब आ हकरैत जीवन जीयब, एहेन काव्यीकरण थिक, जे कोसी-क्षेत्रक चीत्कार केँ स्वर देलक अछि। सहरसा केँ प्रतीक बना, ओतुक्का जीवनक निरीहताक संवेदनात्मक शब्दचित्र हृदय केँ छूबैत अछि, जखन ‘मधेपुरा आ सुपौलक संग गजबे टुकधुम करैत अछि सहरसा’।

कविता मे गाम सबहक नामक घमासान प्रयोग, स्थानीयताक प्रतिशत पार करैत, अतिरेक उत्पन्न करैत अछि। कविताक सार्वजनीनता आ सार्वजनिकता केँ प्रभावित हेबाक बावजूद, सांस्कृतिक स्थानीयता आ उपादान सब, कविता केँ सार्थक बनबैत अछि।

प्रो. मायानन्द मिश्र पर लिखल व्यक्तित्व-आधारित कोसी-क्षेत्रक स्थानीयता-काव्य ‘सिरजनहारक माया मे’ मायाबाबू केँ, माया मे आनन्द लैत, आ सहरसा केँ महानगरक अपशिष्ट गीजैत, लेखकविहीन होइत,कहल गेल अछि। प्रकारान्तर सँ तकर केन्द्रबिन्दु सहरसे बनल अछि। मुदा सहरसाक सत्य से नहि अछि। सहरसा कहियो लेखकविहीन नहि भेल अछि, भलें कहियो-काल निष्क्रिय भेल हो वा सहरसाक लेखकगण कोनो विशेष अवधि मे सुषुप्त रहल होथि।

‘फूल बाबूक गाम'(राजकमल चौधरीक महिषी) मे भारती-मंडन सँ ल’ क’ आजुक समाजक विकृति, महिषी मे राजकमलक असली (अ)परिचय धरिक सम्बोधन-आख्यान वर्णितभेल अछि। त’ ‘महिषी हमर दोसर गामक नाम छी’ मे राजकमल, भारती-मंडन, तारामाइक सांस्कृतिक उपादानक संग महिषीक पहिचान जोड़ल गेल अछि। तारा-थानक बलि-प्रथा सँ बहैत शोणितक स्थान पर कारू खिड़हड़िक दूध बहबाक सपना देखब, सांस्कृतिक अन्धविश्वासक शुद्धिकरण थिक। महिषी मे राजकमलक संधान करबाक कवित्त सँ फराक, ‘चैनपुर जँ हमर गाम थिक’ मे कवि अपन गामेक मानवीकरण आ ग्रामीण अस्तित्ववादक काव्यमय उपस्थापन केलनि अछि।

कोसीक ‘कटनियाँ’ सन घनघोर आपदाक सब-साला यथार्थक काव्यीकरण, पलायनक दर्दक संग, नीक भेल अछि। अचक्के मे माया बाबूक गाम ‘बनैनियाँ’ कटनियाँ मे निपत्ता भ’ जाइत छै आ वसात गुम्मीए लधने रहि जाइत अछि। स्थानीयता- काव्यक अइ श्रृंखला मे सघन स्थानीयताक नामकरणक संग, संस्कृति-तत्वक विवरण, काव्यात्मक अभिव्यक्तिक संग त’ आयल अछि, जाहि मे व्यंग्यक अन्डरटोन सेहो अछि आ प्रश्नाकुलता त’ अछिए !

प्रश्नाकुलता त’ स्थानीयता-काव्यक प्राणतत्व होइतहि अछि, मुदा काव्यक प्राणतत्व केँ माँस-मज्जा आ शरीरो चाही। ताहि कलात्मक काव्य-सौष्ठव पर, स्थानीयताक जोश मे, कतेक ध्यान गेलनि कविक, से त’ देखले जेतनि। ओना अरुणाभ अपन ‘लोकल काव्य’ मे राजनैतिक -सामाजिक चेतनाक संग, सांस्कृतिक चेतनाक नीक प्रतिशतक अन्तर्गुंफन क’ सकलाह अछि। से हमर ‘कोसी घाटी सभ्यता’ आ ‘प्रलय रहस्य’क उपरांत, कविता मे जमि क’ अरुणाभ सौरभ अथवा अजिते आजाद केलनि अछि, एखन धरिक प्रकाशित काव्य-सूची मे।

ओना, कनेर (कनैलक फूल) कविता सुस्पष्ट अछि, जे हिनका काव्यक अभिधा, लक्षणा आ व्यंजनाक पूर्ण ज्ञान छनि। मुदा की ‘पूर्ण’ अभिधा मे काव्य रचब संभव आ उचित अछि? तखन काव्य आ गद्य मे अन्तरे की रहत? से दुर्घटना हिनक संग्रहक अनेक कविता मे भेल अछि, जे अभिधाक प्रतिशत सत्तरि-पचहत्तरि सँ बेसी भ’ जेबाक कारणे, वर्णन-विवरण-प्रधान, वक्तव्य-प्रधान, भ’ गेल अछि, जाहि मे कवित्त आ काव्यकरण केँ आर बढ़ाओल जा सकैत छल। जेना ‘तों एक्केटा गोली सँ नहि मरि सकै छें दोस’ एहेन कथाकाव्य थिक, जाहि मे कथा अछि, काव्य नहि,जखनकि कविताक प्रारूप मे त’ प्रस्तुत भेले अछि। ‘मोन पाड़ि काटैत जाड़क बिसबिस्सी-1’ मे शीर्षक मे त’ कविता अछि, मुदा कविता मे वक्तव्य-वर्णन अछि।

असल मे, हिनकर कविता मे, अभिधाक माध्यमे कविताक जनसामान्यीकरणक प्रयास होइत अछि, जे हिनकर ‘वैचारिकता आ रणनीतिक अनुकूल’ त’ सय प्रतिशत अछि, मुदा काव्यकरण त’ कविताक सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्राणतत्व थिक। वस्तुत: हिनकर कविता हिनकर कविक सामाजिक संघर्षक औजार थिक। तें ई अपन कविताक ‘जनवादीकरण’ जानि-बूझिक’ करैत छथि। जेना ‘आब मंगली कहिया गेतइ गीत’ मे थोड़ेक आर कविता गहल जा सकैत छल। ‘अन्नदाता’ मे परिस्थितिक वर्णन किछु बेसीए भ’ गेल अछि। ‘दुखिया दास कबीर’ संवेदना सृजित करितो, अति-विस्तारित भ’ गेल। ‘गरीब-रथ केर शीशा पर मारल पाथर’ कथाकाव्यक ‘प्लॉटे’ जकाँ रहि गेल। ‘दू पाटनक बीच’ मे सेहो वर्णनाधिक्य त’ भइये गेल अछि। यद्यपि अभिधात्मक अभिव्यक्तिक आधिक्यक एकटा फायदा सेहो होइत छै। हिनकर कवि केँ संप्रेषणक समस्या शून्य अछि आ हिनकर कविताक संप्रेषणक प्रतिशत सयक-सय अछि।

माटि परहक भाखा, कोसी-क्षेत्रक टोन, कोसी-क्षेत्रीय शब्दक सौन्दर्य सँ भरल-पुरल जनभाखाकेँ, हिनकर कविता केँ, चेतना-सम्पन्न आ सजग स्वरूप प्रदान केलक अछि। संगहि, ‘कविता-संस्कृति’क लय मे त’, वैचारिक रुपें अछिये हिनकर कविता सब। मुदा ताहि मे वैचारिक सजगता जकाँ, काव्यकरण-प्रक्रिया आ काव्यतत्वक सजगता, ‘सजग कविता अभियान’ लेल, अपेक्षित त’ अछिये।

तहिना जरूरी अछि, सजग कविता मे शैल्पिक सजगता। नवकविताक वर्त्तमान स्थापित शिल्प सेहो आब पारंपरिक भ’ गेल अछि। हिनकर खाँटी जमीनी कोसी-क्षेत्रीय मैथिली टोन आ कविताक भाखा ‘गद्यात्मक काव्यशिल्प’ लेल उपयुक्त अछि, जँ काव्य-प्रतिशत बढ़ाक’, काव्य-विस्तार नियंत्रित कयल जा सकय। हिनका मे सजग चेतनाक संग ‘निधोखपन’ सेहो अछि। देसी कविता मे, बेसी कविता आनिक’, गद्यात्मक स्वरूप प्रदानक’ आजुक कवि जनकवि बनि सकैत छथि। हिनकर ‘तें किछु आर’ निधोख बनिक’ आयल अछि, जकर बोली कतहु अतराइत नहि अछि। कविताक अइ जनपक्षीय संस्करणक सार्थकता आ प्रासंगिकता त’ असंदिग्ध अछिये।

अरुणाभ सौरभक तेसर मैथिली काव्यपोथी मे उपर्युक्त सब अपेक्षा-पूर्त्ति संभव अछि। ओ अपनो, संभावना सँ डगडग करैत आलोचना-सर्जक छथि। ओ समय, परिस्थिति, देस-दशा, समाजक अभगदशा आ विकृति-विडंबनाक सम्यक् मूल्यांकनकर्त्ता/आलोचक बनिक’ अपन कविता सब मे एलाह अछि।

कविताक कोसी-क्षेत्र मे, कोनो कविक एतेक बेसी भ्रमण, एहि संग्रह केँ कोसी-क्षेत्रक एकटा सजग आ प्रतिरोधी साहित्यिक प्रतिनिधि बनाक’ ठाढ़ केलक अछि।

समीक्षित कृति : ‘तें किछु आर’ (कविता-संग्रह)
कवि: अरुणाभ सौरभ
प्रकाशक: नवारम्भ

रमेश

साहित्य-संस्कृति आ समाजक इतिहास ओ वर्तमानक गम्भीर अध्ययन, जिनगीक विशद अनुभव, चौंचक विवेक-सम्मत ओ प्रगतिशील दृष्टि-बोध एवं फरिछायल वैचारिकता सँ जाहि कोटिक लेखक बनैत छैक, से छथि रमेश। मैथिली साहित्य मे पछिला सदीक आठम दशकक आमद एहि बहु-विधावादी लेखकक यू.एस.पी. छन्हि – हिनक प्रयोगधर्मिता। हिनक गजल होनि, कविता होनि वा कि कथा, कथ्य, शिल्प-शैली आ भाषा सभ स्तर पर ई नव-प्रयोग करबाक चुनौती आ जोखिम लैत रहलाह अछि। नवतूरक लेखन पर धुरझार समीक्षा लिखनिहार एहि विधाक ई विरल लेखक छथि। एखन धरि हिनक जमा पन्द्रह गोट मूल-पोथी प्रकाशित छनि, जाहि मे गजल संग्रह (नागफेनी), कविता संग्रह (संगोर, कोसी-घाटी सभ्यता, पाथर पर दूभि, काव्यद्वीपक ओहि पार, कविता-समय), गद्य-कविता संग्रह (समवेत स्वरक आगू), दीर्घ-कविता संग्रह (यथास्थितिक बादक लेल), कथा संग्रह (समाँग, समानान्तर, दखल, समकालीन नाटक, कथा-समय) आ समीक्षा संग्रह (प्रतिक्रिया, निकती) सभ अछि। हिनक सम्पादन-सहयोग मे सेहो विभिन्न विधाक पाँच गोट पोथी प्रकाशित अछि। हिनक दू गोट कविता संग्रहक हिन्दी-अनुवाद प्रकाशित भेल अछि। डॉ. इन्द्रकांत झा सम्मान (विद्यापति सेवा संस्थान, दरभंगा), तिरहुत साहित्य सम्मान (मिथिला सांस्कृतिक परिषद, हैदराबाद) आ मिथिला जनचेतना सम्मान (मिथिला लेखक संघ, दरभंगा) सँ सम्मानित लेखक रमेश सम्प्रति दरभंगा मे रहैत छथि । हिनका सँ +91-7352997069 पर सम्पर्क कयल जा सकैछ ।