हुनक (मने कुलानंद मिश्र) जन्मतिथिपर, मन पड़ि गेल अछि एक अन्तरंग रोचक प्रसंग–
रही एहि साहित्य- कुलक आनन्दप्रदाता समकालीन मैथिली भालक चन्द्र-कला,ता आह्लादकता भरल रहै छल स्वजन-बीचमे बहुत दूर रहितो, लगैछ– छीहे लगीचमे।
ते हि नो दिवसा: गता:
जहिना आवाज गड़गड़ाइत कंठसँ बहराइत छलनि, तहिना कुलानन्दजीक निर्भीकतो कतोक बेर कने अधिके झलकि जाइत छलनि । स्पष्टवादिता हुनक अमोघ हथियार छल, जकर तेज धार मतभिन्न विचारक प्रहार बेरमे आर चमकि जाइत छल । बहुत अन्तरंग लग, बहुत ठंढायल रहलापर, कखनो कदाचित ठमकियो जाइत छल । सुराह धरि कने छलाह । जे सूरपर चढ़नि, तकरा कोनो तरहे छोड़बा ले’ तैयार नहि । हँ तँ हँ, नहि तँ नहि । फेर ताहिमे संशोधन नहि । कहैत-कहैत थाकि जैतियनि तैयो नहि । आफिस जयबाक सूर, तँ कतबो मन कसराह, के मानैत अछि ? नहि जयबाक सूर, तँ केहनो जरूरी काज होइ, तानि कमरिया पड़ि रहे । लिखबाक सूर तँ मास दिनमे बीस कविता, तीन समीक्षा । नहि सूर तँ मासक मास कलमबन्द हड़ताल । पत्रिकावला करैत रहथु प्रतीक्षा ।
हमरालोकनिक अन्तरंगता कहल नहि जाय । कथंकदाच चौलो भ’ जाय । नङोचङो सेहो भ’ जाथि, मुदा कथी ले’ कनेको मलिनता ? मित्रताक रंग आर गाढ़े भ’ जाइक ।
एहने एकटा नङोचङोवला घटना सुनयबाक मन होइत अछि ।
पटनाक ताहि दिनुक जीवन्त वातावरण । कनकन करैत युवालेखकगण ! अन्तरंग मित्रमण्डली । हास-उल्लास गली-गली । घटना थिक सन् 1975-76क । गप थिक ‘फराक’क । फराक माने ‘फराक’ पत्रिका ।
‘फराक’-प्रकाशनक पाछाँ कल्पना छलै फराक सोचक, फराक चिन्तनक, फराक दृष्टिकोणक रचनाधर्मिताकेँ मंच देब, ओहन रचनाकेँ प्रकाशमे आनब जकरा छपबामे आन पत्र-पत्रिका कतराय । पटनामे जे युवा साहित्यकार-साहित्यप्रेमी छलाह, जे फराक-फराक अपन-अपन डफरी बजबैत छलाह, से सभ एकठाम जुटलाह । जुटलाह प्रभासजी, राजमोहनजी, कुलानन्दजी, मोहन भारद्वाजजी, विनोदजी, ‘आलोचक’ रमणजी, सुकान्तजी, पूर्णेन्दुजी, हम आ आर के के, से मन नहि पड़ैत अछि । हँ, गुंजनजी भागलपुर चल गेलाक कारणे एत’ रहबे ने करथि । मार्कण्डेय प्रवासीजी वयसेँ समतुरिया रहितो एहि ललोचपोमे नहि रहैत छलाह । मुखियाजी (गौरीकान्त चौधरी कान्त) तँ जन्मजाते महान् रहथि ! बटुक भाइ (छत्रानन्द सिंह झा)क सांस्कृतिक चौपाल ता सौंसे प्रान्तमे पसरि गेल रहनि । तेँ ओसभ नहि छलाह ।
से, बैसकमे सहकारिताक आधारपर एकटा पत्रिका बहार करबाक निर्णय लेल गेल । रचनाक चयनक आधार राखल गेल गोष्ठीमे तकर पाठ आ बहुमतक निर्णय । ‘वीटो पावर’ ककरो नहि । सम्पादकोकेँ नहि । समय रहैक ‘इमरजेंसी’क । सम्पादकमे पहिने विचार भेलै जे कोनो छद्मनाम द’ देल जाय– ‘जटायु’ जकाँ । फेर भेलै जे ई भीरुता होयत । तेँ असले नाम देबाक चाही । सभक नाम तँ देल जा नहि सकैत छलै । अन्ततः कुलानन्दजीक निर्भीकता, व्यक्तित्वक तेजस्विता आ दवंगपनीकेँ देखैत हुनक नामपर सभक सहमति भेलैक ।
कुलानन्दजी ‘फराक’क सम्पादक भ’ गेलाह । काज जोरसोरसँ शुरू भ’ गेलैक । कुलानन्दजी, भारद्वाजजी, राजमोहनजी आ हम महेन्द्रूमे रही । विनोदजी प्रतिदिन आबथि । हमरा लोकनि, आफिसक बाद, कुलानन्दजीक नेतृत्वमे अधिकसँ अधिक समय देवेन्द्र झाक मुरलीधर प्रेसमे बिताबी । कुलानन्दजीक हस्ताक्षरक (हमर सौजन्यसँ, माने ‘मिथिला मिहिर’क नामपर) बड़का ब्लॉक तैयार भेल । अन्ततः पहिल अंक महाप्रकाशक कवितामे, सम्पादकक जोरपर, ‘बन्दूक’केँ ‘कोदारि’ क’क’, बिना प्रकाशन-तिथिक उल्लेख कयने, बाहर भेल । बाँटल गेल । स्वागत भेल । पाठकीय प्रशंसापत्र आयल । सम्पादककेँ वाहवाही भेटलनि ।
आब दोसर अंक । प्रक्रिया पहिले अंक जकाँ । बैसकमे एकटा लेखपर मतान्तर भ’ गेलैक । किछु कहथि– छपय । किछु कहथि– नहि छपय । वोटिंग भेलैक । छपबाक पक्षमे बहुमत अयलैक । सम्पादक अल्पमतमे भ’ गेलाह । वीटोक प्रोविजन रहैक नहि ।
कुलानन्दजी ओहुना दबंग, ओहुना निर्भीक, ओहुना भारी (माने विचारमे भारी) । ताहूपर ‘फराक’क सम्पादक लेल, इमरजेंसीक विकराल समयहुमे, अपन हस्ताक्षरक महान् त्याग कयने । तैयो, हुनक विचारक कोनो मोजर नहि ! एना भ’क’ हुनक धज्जी ! सम्पादक ओ आ निर्णायक आन ? आखिर ‘फराक’पर कोनो केस भ’ जयतैक तँ जवाब ककरा देब’ पड़तै ? के ठाढ़ होयतग’ कठघरामे ? जहल के जायत ? जुर्माना के भरत ? परिवार ककर बेलल्ला होयतैक ?
कुलानन्दजी उत्तेजित भ’ गेलाह । तनावमे रह’ लगलाह । तनाव जखन हुनका बेसी भ’ जाइत छलनि तँ भाङक मात्रा दुन्ना क’ दैत छलथिन । अनदिना पचीस गोली तँ आब चालिस गोली, पचास गोली, साठि गोली । दुखित पड़ि गेलाह, आ आफिस जाय लगलाह ।
(कुलानन्दजी निकेँ रहलापर मासो दिन धरि आफिस नहि जैतथि तँ क्षति नहि । दुखित पड़ि गेलापर आफिस जायब बड़ जरूरी भ’ जाइत छलनि । सभटा सी.एल. चट क’ जाथु एखने ? आ भरि साल ?)
— नहीं, हम नहीं छपने देंगे । कभी नहीं । क्या मजाक है ! सम्पादक कोई, निर्णय ले कोई और ?
हमरा लोकनि रणनीति बनौलहुँ । पहिल ई जे ‘फराक’ जाहि प्रेसमे छपैत छल, ताहिमे कुलानन्दजी नहि जाथि । जँ कदाचित चलो जाथि तँ एकसर नहि जाथि । तेँ महेन्द्रूमे रहनिहार हमरा लोकनिमेसँ एक गोटे अवश्य हुनका संग लागल रही । प्रेसकेँ कहि देने रहिऐक जे हुनका साफ कहि देनि ‘नहि छपैत अछि’ । ईहो बुझा देने रहिऐक जे ओ जाधरि प्रेसमे रहथि, कोनो कंपोजीटर ‘फराक’क काज नहि करय । जे करैत रहय, से ठामहि रोकि देअय आ मैटरकेँ नुका लेअय । छपबाक भनको हुनका नहि लगनि, ताहि लेल सभ सचेष्ट रही ।
दोसर रणनीति ई बनौलहुँ जे हमरा लोकनि सभ गोटे हुनक खसैत स्वास्थ्यपर चिन्ता व्यक्त करी, जाहिसँ ओ बूझथि जे ओ अस्वस्थ छथि, आ रोज आफिस गेल करथि ।
तेसर ई बनौलहुँ जे हुनका लग हुनक सम्पादन-कौशलक अत्यधिक प्रशंसा करी । पहिल अंकमे हुनक निर्भीकताक लेल हुनक गुणगान करी । मुदा, धोखोसँ दोसर अंकक चर्च नहि करी ।
एहिना, सम्पादकसँ बचबैत ‘फराक’केँ छपब’ लगलहुँ । हम पाँच बजे मिहिरसँ चलि छौ बजे कुलानन्दजीक ओहिठाँ हाजिर । ओ भाङ पीने तैयार ।
उत्तेजना-कालमे हुनक मुँहसँ खड़ीबोलिए फुटैत छलनि अधिक काल– ‘फराक’ नहीं छप सकता है । अगर कोई छापेगा तो हम केस कर देंगे । फराक के सम्पादक हैं हम । मेरी राय से ही काम हो सकता है ।
हम– ककरापर केस करबै भाइ ?
— केस फराक-गोष्ठीपर करबै, जे घटियाँ रचना छपबाक निर्णय लेलक ।
— ओहिमे तँ अहूँ रही ।
— की कहलहुँ, हम रही ? सभटा अहीँक फसाद थिक । अहाँ पक्षमे किए भोट देलिऐ औ ? कोर्टमे जखन ठाढ़ करब तँ बुझबै ! मैं सब की साजिश जानता हूँ । कोई भयंकर षड़यंत्र चल रहा है मेरे खिलाफ । इमरजेंसी में लोग मुझे फसाना चाहते हैं । लोग मुझे जेल भेजना चाहते हैं । चाहते हैं कि मैं जेल में सड़ जाऊँ । लेकिन मैं एक-एक कर उन्हीं लोगों को जेल भिजबा कर दम लूंगा ।
दोसर दिन—
— कहाँ है मेरा ‘हस्ताक्षर’ ? दे दीजिये मेरा ‘हस्ताक्षर’ ।
— पहिल अंकक बादे अहाँ हस्ताक्षरवला ब्लॉक ल’ लेने रहिऐक ।
— नहीं, प्रेस में है ।
— अहाँ डेरापर आनि लेने रही ।
— देखेंगे ।
ओही दिन प्रेसमे जाक’ हमरा लोकनि हुनक हस्ताक्षरवला ब्लॉककेँ अपन जिम्मा क’ लेलहुँ ।
तेसर दिन—
— नहीं मिला । भीम भाई, क्या हुआ वह ब्लॉक ?
— अहाँ तँ ल’ गेल रही डेरापर । हमहीँ तँ प्रेससँ ल’क’ देने रही ।
— नहीं मिला ।
— छोड़ू । दोसर बनबा देब ।
— बात से नहि ने छै । ओहि ब्लॉकक दुरुपयोग क्यो क’ लेअय, तखन ? तखन तँ हम जेलमे ।
— अखबारमे विज्ञापन द’ दियौ जे हमर हस्ताक्षरवला ब्लॉक चोरि भ’ गेल अछि । ओकर जँ उपयोग होअय तँ ओकर जवाबदेही हमरापर नहि ।
— ठीक कहै छी । बुझियौ पेपरमे ।
— मुदा, जँ जानियो-बुझिक’ अहाँ उपयोग करबै तँ लोक कोना बुझत जे जाली नहि थिक ?
— सो तो है । तब ?
— तकियौ डेरेपर भाइ, भेटि जायत ।
एक राति भाइ साहेब (राजमोहन झा)क डेरापर गप नमरि गेलै । अबेर भ’ गेलैक– एगारह-बारह । ‘फराक’क कोनो प्रसंग उठाक’ कुलानन्दजी बमकलाह– आपलोग नहीं मानियेगा तो मैं अकेले यहाँ से चल दूंगा । रास्ते में कुत्ता मुझे काट लेगा । मैं मर जाऊंगा । मेरा परिवार बिलट जायेगा । आपलोगों की यही मंसा है । मुझे रोकिए नहीं, मैं चलता हूँ ।
कुकुरक हुनका डर होइनि । तेँ, एकसरे ने हुनका जयबाक छलनि, ने जाय देलियनि ।
‘फराक’ छपि गेल । आब बाँकी रहल सम्पादकीय टा । ई कोना होयत ? मोहन भारद्वाजकेँ हमरा लोकनि भार देलियनि जे कुलानन्दजीक कोनो अप्रकाशित लेखकेँ ऊपर करथि । ओकरे अंश सम्पादकीयमे द’ देबैक । सैह भेल । हुनक हस्ताक्षर रहबे करय । ‘फराक’ तैयार भ’ गेल ।
एक दिन–
पाँच बजे प्रेससँ ‘फराक’ हमरा लोकनि ल ‘ लेलहुँ । सम्पादक– कुलानन्द मिश्र, हुनक सम्पादकीय, हुनक मोटका हस्ताक्षर ।
ओही दिन छौ बजे साँझ । कुलानन्दजी महेन्द्रूक सड़कपर भाङ पीने हाथ फनका रहल छथि– देखते हैं, कैसे छप जाता है ‘फराक’ ? सम्पादक का कोई कद्र नहीं ? मैंने ‘फराक’ के लिए अपने नाम का त्याग किया, अपना हस्ताक्षर दिया, और उसका पुरस्कार यही कि जेल भेज दिया जाऊँ ?
— भाइ, ‘फराक’ लेल अहाँ अपन नामक त्याग कयने छी । तेँ ‘फराक’ सेहो अहाँक नामक त्याग नहि करत कखनो ।
— क्या मतलब ?
— मतलब साफ अछि । ‘फराक’ जखन निकलत, अहाँक नामक संग निकलत ।
— सो, हम निकलने देंगे तब न !
— से तँ अबस्से । मुदा आब तेसर अंकसँ ने ।
— आ दोसर ?
— दोसर तँ अहाँ निकालि देलिऐक ।
— क्या ?
राजमोहनजी, भारद्धाजजी, विनोदजी आ सुकान्तजी चारू दिससँ कुलानन्दजीकेँ घेरने जे टगताह तँ ध’ लेबनि । आ, हम ‘फराक’क सद्य:प्रकाशित अंक ओकर सम्पादककेँ समर्पित क’ देलियनि ।
एक क्षण स्तब्धता । पुन: विस्फोट । पुन: भय । पुनः भयमुक्ति । कुलानन्दजी पन्ना उनटौलनि । हुनका द्वारा वर्जित लेखकेँ देखि बजलाह– एही ले’ ने अहाँ लोकनि एते कयलहुँ ! आ ई सम्पादकीय ?
अहीँक तँ लिखल थिक । पढ़िक’ देखियौ ने !
दोसरे दिनसँ कुलानन्दजी साठि गोलीक बदला पचीसे गोली लेब’ लगलाह आ आफिस गेनाइ छोड़ि देलनि । माने निकेँ भ’ गेलाह ।
बादमे ‘फराक’क तेसरो अंक छपल।