पटना से सुबह छह बजे ‘प्रसाद’ के ‘कंकाल’ से यात्रा शुरू होती है। दोपहर को आसनसोल पहुंचता हूँ , भोजन-आराम-गप्पें-निद्रा और एक दिन खत्म । सोचता हूँ कि एक दिन की यात्रा तो खत्म हो गई और अपने गंतव्य के निकट पहुंच भी चुका हूँ आज लेकिन जीवन की इस यात्रा में कब पहुँच सकूँगा अपने गंतव्य पे। क्या कभी पहुंच भी पाऊंगा ? सहसा बच्चन याद आते हैं-
“यह प्रश्न शिथिल करता मन को,
भरता उर में विह्वलता है
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है।“
अगले दिन आसेनसोल से श्री नवद्वीप धाम के लिए विदा होता हूँ । संग होते हैं मेरे अनुज रतन बाबू। ये असनसोल में ही रहते हैं सपरिवार। आसनसोल बस स्टैंड से जो बस श्रीधाम नवद्वीप के लिए जाती है, उसका नाम है ‘श्रीचैतन्य’। मन में आनंद होता है कि अभी से ही संग-साथ हो चला है महाप्रभु श्रीचैतन्य का जिन्होंने भारतीय दर्शन में अचिन्त्यभेदाभेद का प्रतिपादन किया था । पूरे रास्ते हरीतिमा देखने में गुजर जाती है। शाम को नवद्वीप पहुंचता हूँ । बस स्टैंड से सीधे भागीरथी गंगा किनारे पहुंचता हूँ। बड़ा ही मनोरम दृश्य होता है वहां शाम के धुंधलके में। यहां गंगा के एक किनारे पर श्रीधाम नवद्वीप और दूसरे किनारे पर मायापुर। नवद्वीप बाजारवाद और चहल-पहल से कोसों दूर और मायापुर अपने नाम के अनुरूप ही माया का संसार। पुरे बाजारवाद को खुद में लपेटे हुए। गंगा में नाव का अनवरत चलना बड़ा ही अप्रतिम और आनंददायक लगता है मुझे। यहां गंगा के दोनों छोर को जोड़ने का साधन नाव ही है। नाव पर ही मनुष्य, साइकिल, मोटरसाइकिल सब पार होते हैं। कोई भेद नहीं। सब एक जैसे हैं इस प्रेम कि नगरी में। कुछ देर बाद मेरे स्थानीय संतमित्र विश्वजीत प्रभु आते हैं । आते ही कहते हैं- आखिर निमाई पंडित ने बुला ही लिया प्रभु । यहां के लोग महाप्रभु को निमाई पंडित ही कहते हैं। यहां अभिवादन के शब्द हैं “जय निमाई-जय निताई”। फिर हम तीनों आवास के लिए जाते हैं महाप्रभु श्री चैतन्य के परिकर में से एक श्रीअद्वैत प्रभु के वंशज के यहां। इनका घर मंदिरनुमा अतिथिशाला है। यहां रहने के लिए आपका वैष्णव होना अनिवार्य है। प्रवेशद्वार पर श्रीठाकुर का मंदिर। साष्टांग प्रणाम करता हूं। फिर स्नानादि क्रिया से निवृत हो धोती-कुर्ता धारण कर निकलता हूँ विश्वप्रसिद्ध मायापुर इस्कॉन की संध्या आरती में भाग लेने। यहां ज्यादातर लोग पारंपरिक वेशभूषा में हैं। नाव से विदा हूँ मायापुर। बीच गंगा में एक दूसरी नाव पर कुछ विदेशी लड़कियां भारतीय वेशभूषा में हाथ में मजीरा और गर्दन में ‘चांद खोल’ धारण कर पुरे रमे हुए दिखती हैं। वे उच्च स्वर में “हरे कृष्ण-हरे राम” का कीर्तन करते जा रही हैं। विश्वजीत बताते हैं -यह इस्कॉन की नाव है। यहां रोज ऐसे ही कीर्तन होता है। गंगा के ठीक बीच में देखता हूँ कि आधी गंगा सफेद हैं और आधी काली। नवद्वीप बाजारवाद से कोसों दूर और मायापुर अपने नाम के अनुरूप ही माया का संसार है। मित्र बताते हैं कि एक बार श्रीनिमाई पंडित को वृंदावन भाव जागा। उन्होंने परिकर से कहा कि मुझे अभी यमुनास्नान करना है। परिकर ने कहा कि हम अभी नवद्वीप में हैं, तुरंत वृंदावन कैसे जा सकते हैं। लेकिन निमाई जिद पर अड़े रहे। उन्हें मानते देख श्रीपाद नित्यानंद प्रभु ने गंगा के उस पार ले जाकर कहा कि यही है यमुना, स्नान कीजिए। महाप्रभु ने डुबकी लगाई और जिधर डुबकी लगाई उधर की गंगा यमुना हो गई। इसलिए आज भी यहां का पानी ठीक वैसा ही है जैसा यमुना जी का पानी। यहाँ नवद्वीप की तरफ की गंगा ‘भागीरथी-गंगा’ कहलाती है और मायापुर की तरफ की ‘गौर-गंगा’। दोनों बिल्कुल अलग। यह सब देख-जानकर अभिभूत हूँ। मायापुर उतरकर ठेले से इस्कॉन पहुंचता हूँ । शाम को इस्कॉन की आरती में पहुंचकर लगता है कि हम दूसरी ही दुनिया में गए हैं। परमानंद रसिकों की अजीब दुनिया। हजारों लोगों का एक साथ नृत्य-गान और ‘निताई-गौर-हरि-बोल’ का जयघोष। इस्कॉन के सभी लोगों ने गेरूआ वस्त्र पहन रखा है। मेरी सफेद और मिथिला धोती देख एक संन्यासी ने परिचय पूछा। बांग्ला में। मैं कहता हूँ कि मैं मिथिला से आया हूँ। और उसके बाद वे संन्यासी महोदय बड़े ही प्रेमपूर्वक एक चांदखोल (एक प्रकार का वाद्ययंत्र) लाकर पहना देते हैं मेरे गले में। मैं हैरान भी हूं और परेशान भी। ‘खोल’ बजाए कई वर्ष बीत गए। अब तो उंगलियां कंप्यूटर की अभ्यस्त हैं। तभी लगभग 70 ‘खोल’ एक साथ बजने लगते हैं। सैकड़ों मंजीरे बजने लगते हैं और शूरू होती है महाआरती। और तुरत मुझे याद आता है कि मेरे ताल-वाद्य गुरु ने कहा था कि संध्या आरती में “ज्यादातर कहरवा-दादरा आदि के बोलों के ही प्रकार बजते हैं कभी-कभार दीपचंदी भी बजती है। अब तो मेरी भी उंगलियां दौड़ने लगीं। घंटे भर आनंदातिरेक में डूबा कीर्तन होता है। यहाँ क्या पुरुष, क्या स्त्री, सब मग्न हैं। स्थानीय लड़कियां गोपी वेश में माथे पे तिलक, गले में तुलसी माला, हाथों में झोरी-माला और पैरों में नुपूर के साथ नृत्य करती बड़ा ही अद्भुत दृश्य उपस्थित करती हैं। ‘भालि गौरा चांदेर आरती बनि’ से लेकर ‘नमो-नमो तुलसी कृष्ण प्रेयसी’ के दरम्यान डेढ़ घंटा कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता है। अब इस्कॉन दर्शन करने हैं। इस्कॉन के संस्थापक श्रीमद ए.सी. भक्तिवेदांंत प्रभुपाद की भजन कुटी में कई सालों से अनवरत हरिनाम-संकीर्तन चल रहा है। वो देखकर फिर प्रभुपाद की पुष्प समाधि पर जाता हूँ। इतना विशाल-अनूठा समाधि स्थल, यहां की चित्रकारी, नक्काशी देख हैरानी होती है। मित्र बताते हैं कि इस समाधि को फोर्ड कंपनी के मालिक अल्फ्रेड फोर्ड ने बनावाया है। स्वामी प्रभुपाद ने उन्हें दीक्षा देकर ‘अरविंद प्रभु’ बनाया। शादी एक बंगालिन से करवाई। अब भी वे हर साल आते हैं। जूते के काउंटर पर खड़े होकर भक्तों की सेवा करते हैं। मित्र आगे कहते हैं कि वो जो सामने विशाल मंदिर बन रहा है न प्रभु , उसकी लागत सोलह सौ करोड़ है। आठ सौ करोड़ वे(फोर्ड) ही दे रहे हैं अकेले । (जारी)…
साभार :- दैनिक भाष्कर |