43 वर्ष पहिने डा.गंगेश गुंजनक संग डॉ. रामानन्द झा रमणक गपशप : सन्दर्भ मैथिली नऽव गीतक

प्रश्न: सहस्राधिक्य वर्षसँ प्रवाहित मैथिली गीत साहित्यक धाराकेँ आचार्य रमानाथ झा ‘प्राचीनगीत’ तथा ‘नवीनगीत’ मे वर्गीकृत कएलनि, किन्तु ओ प्रवाह ठकमल नहि, आगू बढ़ैत गेल। नवीन गीतक आगूक गीतकें फूटेबा लेल कोनो नामकरणक प्रयोजनक प्रसंग अहाँक की विचार ?
उत्तर: व्यक्तित्व निर्धारित करबा लेल नामकरण आवश्यक होइत छैक। मुदा कोनो उप नामकरण साहित्यक विधाक प्रसंग हो, हम अनिवार्य नहि बुझैत छी। समालोचककेँ सुभीता छनि, तें नामकरण कए लेथु। हम मुदा लिखैत छी गीत, जखन लिखैत छी नव वा पुरानक बुद्धिसँ नहि।

प्रश्न: साहित्यक कोनो विशेष धारा कहिआ आ कतयसँ प्रवाहित भेल, से निर्धारित करब कठिन, किन्तु ओ कहिआ आ कतयसँ देखार भए जाइछ, से कहल जा सकैछ। ओहिना नऽवगीतक प्रारम्भक प्रसंग अहाँक की विचार अछि?
उत्तर: साहित्यक धारा विशेषक प्रस्थान स्थलक तिथि आ काल कोनो मनुष्यक जन्म दिन जकाँ निश्चित कहल जा सकब, हमरा जनतवे अनुपयुक्त। अनावश्यक से हो। जकरा अहाँ नवगीत कहि पुछैत छी, तकरहु सन्दर्भमे इएह असौकर्य। समीक्षक वा इतिहासक अधिकार क्षेत्रमे हमहु प्रवेश करय लागब तँ तारीखे तय करबामे आ ताहिमे अपन स्थानक निरापद रूपें स्वर्णाक्षिरित करबामे अपस्याँत रहय लागब, तखन हम गीत कोना लिखि सकब?

प्रश्न: हिन्दीमे नव कविताक प्रतिक्रिया स्वरूप नवगीत आएल। एहिना मैथिलीक नऽवगीत सेहो कोनो प्रतिक्रिया स्वरूपमे आएल अछि अथवा ई मैथिली गीत साहित्यक स्वाभाविक विकास थिक ?
उत्तर: ई सत्य थिक जे मात्र मैथिलीएक नहि, समकालीन प्रायः समस्त भारतीय भाषाकें हिन्दीक काव्यान्दोलन सभ प्रत्यक्ष वा परोक्ष रूपें प्रभावित-अनुत्प्रेरित कएलकैक अछि। मैथिलीमे आएल बहुत रास ‘आन्दोलन’ क सन्दर्भमे सेहो एहि तथ्यसँ आपत्ति नहि कएल जा सकैत अछि। मुदा जतय धरि गीतविधाक विचार अछि, हम मानैत छी आ विश्वासक धरातल पर ई अनुभव करैत छी जे मैथिली गीत अपन नितान्त परम्पराक स्वाभाविक विकास थिक। हमरा जनैत यदि ई सम्भव होइतैक जे एकटा कवि अनेक सए वर्ष जीवित रहि सकितय तँ आइ विद्यापति हमरे भाषातेवर आ अनुभव घनत्वसँ अपन पद रचना करितथि। हे नामकरण अवश्य हिन्दीक तर्ज पर अछि नवगीत। तेँ नकल। यदि मूलतः मैथिली रहैत तँ अहाँ नवगीत नहि कहि क नऽव गीत कहितियैक। रक्ष रहलैक जे हिन्दी नवकविताक प्रतिक्रियामे जनमल नवगीत जकाँ मैथिली नऽव गीत नहि लिखेलैक।

प्रश्न: वर्त्तमान यांत्रिक युगक फसिल ‘ नऽव गीत’ मे बुद्धि तत्त्वक प्रधानताक कारणें गीत लेल परमावश्यक तत्त्व भाव तोपा गेल अछि। एहि सँ की गीतक प्रभावक क्षमतामे कमी नहि आबि गेल ?
उत्तर: आलोचक साहेब! शब्दे मात्र प्रधान नहि छैक रचनाक हेतु। लाचारीवश चहटगर उदाहरण दैत छी- ‘चुम्मा’ ई शब्द केहन, कोनहु युवा स्त्री वा पुरुषक लेल एकर की हार्दिक असरि, केहन से सहजहि कल्पनीय । मुदा एतेक प्रियगर आ प्रायः सार्वजनिक रुपें स्वीकृत प्रिय शब्द रहितहुँ मात्र एतबे ई कविता नहि बनि जाइत अछि। बनि नहि सकैत अछि।
कविता गीत कोनहु रचना अपन शब्द प्रयोगक परम्परामे युग साहित्य नहि बनैत अछि। से बनैत अछि अपन परम्परित शब्द प्रयोगकें युगीन भावदान आ तदनुकूल व्यंजनाक प्रासांगिकताक कविक रचनाधर्मी चेष्टासँ। प्रायः इएह ओ स्थान बिन्दु छैक जतय विद्यापतिक बादहु यात्रीकें जन्म लेबय पड़लनि आ यात्रीक अछैते राजकमल, सोमदेव आ प्रो. धीरेन्द्रकें । पुनः हिनका लोकनिक अछैत मार्कण्डेय प्रवासी, बुद्धिनाथ आ गंगेश गुंजनकें (सन्दर्भ अहाँक प्रश्नावली)। मुदा आलोचक साहेब ! हम अपन सभ पूर्ववर्ती समकालीन बहुत रास रचनाकार मानि केँ चलैत छी। उत्धृत नाम अहाँक नऽव गीतक प्रसंगमे कएल अछि।
कवितामे गीततत्व सेहो, कहि सकैत छी से कथ्यक स्वभावसँ जन्मैत आ विकसैत छैक। शब्द योजना वा ध्वनि प्रयोग मात्रसँ कथमपि नहि। अर्थात् गीतक लेल एक खास अनुशासनमे छन्दशास्त्रक कसौटी पर नापि तौल कए लिखि लेब हम आजुक गीतक पूर्णता नहि मानैत छी। भाव यदि छैक (क्षमा प्रार्थी होइत कहब जे कविता गीतक नाम पर अधिकांश प्रतिशत कविता, कविता नाम पर मात्र शब्द प्रयोग थिक। भाव ओहिठामसँ एहिना अनुपस्थित अछि जे कागजक फूलसँ प्राकृतिक, फूल तत्त्व) कविताक कथ्य यदि अनुभूत छैक तँ ओ बुद्धि रस सिंचित रहितहुँ पाठककें छूतैक मात्र ई कारण जे बौद्धिकता कोनो गीत विशेषकें असम्प्रेषणीय बना देतैक। तकरा हम नहिं मानैत छी।
जेना हमर जाहि गीतक एतेक व्यापक आ हार्दिक प्रसार भेल तकर ‘करिया पहाड़ तर प्रान जाँतल अछि’ क व्यंजनाकेँ अहाँ की कहबैक? मुदा पढ़ला सुनला उत्तर वेशी लोककें छूअलकनि। भावक अपन अपन मनोदशा अनुभव-वैभवक अनुसार! कविता अपन काज कएलैकक ।
कविता जखन-जखन जतय-जतय शब्दक मारि करैत छैक तँ ओ प्राकृतिक गर्जन-तर्जनक शंकासँ मनकें भरैत छैक आ जखन-जखन जतय-जतय अर्थबोध आ अनुभवक मारि करैत अछि तँ प्रत्यक्ष वर्ण रसधारक आनन्द दैत छैक।
कहय नहि पड़त जे शब्द प्रयोगक कविता मेघे जकाँ बहुत गरजि तरजि कए बेसीकाल एक ठोप पानि खसयबामे पर्यन्त अयोग्य भए जाइत अछि, जखन कि दोसर स्तरक कविताक विषय मे ई सीमा नहि। दूनू स्तरक उदाहरण पूर्ववत, समकालीन अनेक रचनाकारमे अनेरे देखल जा सकैत अछि।
हम तं इहो मानैत छी जे काव्यमे बुद्धि तत्त्वक प्रवेश यात्रीये नहि, अपनयुगीन आ स्वाभाविक रूपमे विद्यापति सेहो कएलनि। मुदा अहाँ जनैत छी जे दूनूक लोकप्रियताक एकहिटा सामान्य धरातल रहितहुँ अपन विशिष्ट संदर्भ छनि फराक? बेसी कहा गेल की?

प्रश्न: जै प्रभावक क्षमतामे कमी आएल अछि अथवा नवीन गीत वा प्राचीन गीतक अपेक्षा नवगीतक क्षेत्रमे संकोचन भेल अछि तं की नवगीत वर्गीय नहि भए गेल ?
उत्तर: वर्गीय तँ साहित्य होएबेक चाही। चालू शब्दावलीमे निम्न आ उच्च वर्गीय नहि । वर्गीय हम विषयजन्य प्रतिबद्धतासँ जोड़ि कए देखैत छी। हमर सृजनधर्मा सभ ओही काव्यवर्गक गीत करैत अछि जकर प्रयोजन अधिकांश प्रताड़ित बन्हायल शोषित समाजक अनुभव संसारकें पूर्वस्थितिसँ अपेक्षाकृत स्वतंत्र धरातल पर ठाढ़ होएबाक रस्ताक संकेत कए सकय। अर्थात् जाहि अर्थमे हम कथ्यवर्ग कहल अछि तकरे आर स्पष्ट करी तऽ कहब जे हमर गीत विलासी नहि अछि प्रयाशी अछि (प्रयासित नहि)।
वर्गीय यदि अहाँ ई अर्थ लगबैत होइ जे किछु पढ़ले लिखले लोक ओहन गीत बुझि
बैत अछि, से बुद्धि तत्त्वयुक्त रहैत छैक, तँ हम कहब जे अहाँक ई भ्रम भए सकैत अछि। हमरा नहि अछि, ‘सुनसान बाट पर एक ठुट्ठ गाछ ठाढ़’ व्यंजनाकेँ एकटा विद्वान पर्यन्त ( गपशप सँ गम्य भेल) मात्र वाक्य सौन्दर्य कए बूझलनि। तँ कविता आ अनुभूतिक भाषा बौद्धिकताक गुलाम कखनहुँ नहि बनैत अछि। दोसर दिस पढ़ि लिखि, डिग्रीधारी भइयो केयो कविताक समझदारी उपलब्ध कइए लेअए, से सहज नहि छैक।

प्रश्न: आइ देशक राजनीति एतेक ने प्रभावशाली भए गेल अछि जे केओ ओहि सँ अप्रभावित रहि सकत, तकर संभावना कम। एहना स्थितिमे कतेक दूर धरि राजनीतिक प्रभाव अहाँ नवगीतमे स्वीकार करब ?
उत्तर: जतेक दूर धरि सृजन साहित्यक कोनहुँ विधाकें स्वीकार करबाक चाही । मुदा मोशकिल तई अछि जे अहाँ जे चाहैत छी से चाहला सँ भए जाइत अछि? उचित आ तथ्य रहितहुँ अहुँक आलेखकें सम्पादकजी काटि देताह कैकठाम। आह! अनेरो फलां बाबूक विषयमे कियेक कहबनि? बिना से नाम लेने कहनहुँ तँ भाव पकड़ाइऐ जाइत छैक।’ हुनका तक प्रजातांत्रिक हाल! अपन सीमामे अपन आवश्यकता से हो। अर्थात् प्रकाशन माध्यम अहाँक नियंत्रणमे नहि। तँ विचारोक कांट-छांट संग प्रकाशित होएब अहाँक विवशता। तहिना अहाँ जे साँस लेब वायुमण्डल सँ, ताहि पर अहाँक अधिकार अछि जे कोनो प्रदूषणजन्य घातक तत्त्व नाक आ मुँह बाटे अपना फेफड़ामे नहि जाय देबैक ?
राजनीति एकटा अनिवार्य तथ्य छैक। आजुक जीवनक सामाजिक अस्तित्व । तँ एकर मात्राक विषयमे अहाँ कतहुसँ निर्धारक तत्त्व नहि बनैत छी। ओना राजनीतिक भाषणहुँ जँ कविए देबय लागथि तँ नेतालोकनि कविता लिखय लगताह, सैह ने!
भरिसक हमर पाँती मन होएत-‘बन्द हो ई बसात बुधियार।’ सम्पूर्ण क्लेश तँ मूल्यहीन समाजदर्शनसँ हीन राजनीतिक दुरभिसंधिक क्लेश छैक। अधिकांश लोकक, तें ओकर उपस्थिति लगातार छैक। जीवनमे मुख्यतः दू स्तर पर पहिल महत्त्वाकांक्षा पर पहुँचबाक सीढ़ीक रूपमे आ सम्पूर्ण मानवीय संवेदनासँ विमुख षड्यंत्र रूपमे एकटा तआतंकित आ असुरक्षित अछि।

प्रश्न: नऽवगीत एवं नऽवकविता समसामयिक तँ अछिए अनेक नऽवकविता लिखनाहर कवि नऽव गीतो लिखैत छथि। संगहि नवगीतक अपेक्षा नवकविताक क्षेत्र विशेष व्यापक अछि। एहना स्थितिमे नवगीतकेँ नऽव कवितामे अन्तर्भुक्त मानि लेबाक प्रसंग अहाँक की विचार ?
उत्तर: ई घरारीक बटवारा जकाँ नितान्त व्यक्तिवादी सामन्तवादी स्वामित्ववादी गोत्रक विचार थिक। हम पूब दिससँ घर लेब तँ हम पच्छिम दिससँ। आ बजरि गेल भैयारी कुकाण्ड। पंचलोकनि झगड़ाक तय-तसफिया कएलनि। कवियो आलोचकमे तँ मतिभ्रम छनि ।
कविता क्षेत्रमे ई नहि चलय। भरिसक अनमन जमीनेक बटबाराक स्वार्थ काव्य विचारक संदर्भ जखने प्रवेश कए जाइत छैक तँ इएह उत्त्पात प्रारम्भ होइत छैक। नऽव कविताकारकेँ अपन इन्द्रासन डगमगाइत सन्देह भेलनि कि अपस्यांत भए गेलाह विधाक उष-विधाकरण षड्यंत्रमे । व्याकुल छथि साबित करबा आ करएबा मे जे नऽव कविता, ई नऽव कविता नहि ई नऽव गीत। ई नवगीत नहि। प्रश्न छैक जे समकालीन लेखनकेँ विषय आ कथ्यक स्तर पर तँ श्रेणीबद्ध कएलो जा सकैत अछि विधाक नामकरण आ तकरा अपन सीमा पर खुट्टी गाड़बाक चेष्टा जकाँ विवाद उठाएब बड़ अनुत्पादक प्रवृत्ति बुझाइत अछि। खुस्टम खयाल करब भेल। कम सँ कम सृजनधर्मा प्रवृत्ति नहि ई। कोनहु इतिहासक एक समयक वेदना, संघर्ष आ दृष्टिकें देनिहार चेतना आ समकालीन सभटा रचना विधाक समग्र स्वर करैत छैक। कोनो एकटा विधा वा रचना नहि। अपन-अपन अभिव्यक्ति सामर्थ्य आ इमानदारी होइत छैक। बहुत नीक कंठ आ नीक लिखनाहर रचनाकार यात्रीक तेजस्विताकें एखनहु धूमिल कए सकैत छथि? प्रकाशित रचना हो मंच काव्यपाठ। तँ क्षेत्रक व्यापकता आ संकीर्णता सेहो रचनाकारक प्राण शक्ति आ कथ्यक सामंजस्य पर निर्भर करैछ ।
एकटा मंचपर आदरणीय अग्रज गीतकार मायानन्द जीक सस्वर काव्यपाठक तुरन्त वाद राजकमलजीक नवशिल्पक काव्यपाठ खूब उत्साह आ मनोयोगसँ ओतबे व्यापक स्तर पर सुनल आ प्रशंसित भेल रहनि, से हमर देखल सुनल अछि। तें माया भाइक बाद ओही मंच पर कोनो नव शिल्पक कविता कएनिहार आन कवि कहाँ जमलाह!
अभिप्राय जे रचनाक अपन प्राणवत्ता ओकर सीमा आ संभावना बनैत छैक। मने मन गजै छी जे हम गीतकार वेशी लोकप्रिय आ प्रशंसित छी, फल्लां कवि कम पढ़ल आ सुनल जाइत छथि, ई धारणा अपरिपक्व, तें, अबौद्धिक!

प्रश्न: नऽवगीत आ नवकविताकें अहाँ कोना फुटाएब ?
उत्तर: हम एकरा फुटाएब लिखि कए। हम तँ आलोचक नहि जे फुटयबे करबैक । नहि फूटओ हमरा कोन बेगर्ता? अपन-अपन शिल्प आ कथ्य आ अन्तर्लय दूनू केँ ई रेखांकित करतैक। अपना दूनू गोटे कोनो ठाम जाए तँ ई कहय पड़तैक जे ई रमणजी आ ई गुंजनजी’ ई तँ अनेरे प्रगट रहतैक। पाठकक ग्रहणशीलता आ भाव प्रणवतामे हमरा आस्था अछि। हम ओकरा अज्ञानी नहि मानैत छियैक। यदि हमरा ओ कतहु नहि बूझि पड़त तँ अपने मे तकै छी, फेर सँ। ओकरा दोष नहि दैत छियैक जे नहि बुझैत छैक।

डा.गंगेश गुंजनक संग डॉ. रामानन्द झा रमण

प्रश्न: गीत लेल गेयता आवश्यक किन्तु अतिशय गेयता नऽव गीतक प्रकृतिक प्रतिकूल अछि। जेना किछु गीतकार ग्रामीण भास आ कंठक बले तँ मंच पर बाहबाही लूटि लैत छथि, किन्तु पढ़ला पर ओ झुझुआन लगैछ। एहि प्रसंग अहाँक की विचार ?
उत्तर: गेयताक मात्राकट निर्धारण कोना करबैक? कम आ वेशी? दोसर गेयतासँ अभिप्राय की। गाओल जा सकबाक संभावना? तँ हमरा ‘मिथिला मिहिर’ क देसकोस समाटटठचार दिअ हम गाबि देब, पढ़ि नहि देब, गाबि देब। तें की ओ गीत ?
देखू, गेयता अभिव्यक्त भावनाक ओ सूक्ष्म तत्त्व छैक जकर यांत्रिक नाम जोरब संभवे नहि । जँ छन्दोबद्धताक सीमामे सोचल जाय तँ आजुक गीत तकरा पाबन्दीमे नहि अछि। उदाहरण लिअ-
‘ई केहन दिन उपजल अछि मनमे
लिखय बैसलहु चिट्ठी अहाँकेँ
रुपैयाक हिसाब करऽ लगलौ ई।’
अपन ई रचना हमर गीत रचना थिक । कठिन बात पारंपरिक विचार आ मान्यताचसँ ई आन जे किछु हो, गीत तँ कथमपि नहि। वेशी सँ वेशी ‘बरनी कविता भेल सैह।’ तें जकरा अहाँ गेयता कहबैक तकर मात्रा ओही रचनाविशेषमे व्यक्त ओकर कथ्य तय करा लैत छैक, कवि स्वयं ओतय बेहाथ भए जाइत अछि । जेना ‘एहू वर्ष एहिना बसात बहैए’ क गेयधर्मिता आ ‘बहय एहिना बसात बुधियारक’ गेयधर्मितामे एकटा खास अन्तर छैक। तें बड़ स्वाभाविक जे मंच पर सुमधुर कंठे शब्द संकलनकें तुकान्त छन्दोबद्धताकेँ हजारो वर्ष उपरान्त स्वरहु गाबि सुना कर वाहवाही अर्जित कए लेनिहार तथाकथित गीतकारक मुद्रित गीत पढ़ि कए कोनो टा अकुलाहट नहि होइत छैक मनमे पाठककें। औसत ध्यान तक नहि आबि होइत छैक। कंठ स्वरक अनुपस्थितिमे ओहन रचना स्वभावतः बौक भए जाइत छैक। मुद्रित भेला पर जकर कोनो अर्थ गम्य नहि, तें व्यर्थ भए जाइछ।

प्रश्न: अहाँ साहित्यक अनेक विधामे रचना करैत छी। तें जिज्ञासा अछि जे की नऽव गीतक लेल पृथक मानसिकताक आवश्यकता होइछ? तात्पर्य जे नवगीतक रचना प्रक्रियाक स्वरूप की छैक ?
उत्तर: जकरा अहाँलोकनि नऽव गीत कहैत छी तकरहु रचनाक प्रक्रिया कोनो विधाक रचना प्रक्रियासँ भिन्न नहि छैक। जहाँधरि मानसिकताक गप्प छैक, जेना नवविवाहितकें साधारणतः विवाहक नव स्वाद, अपन नवकनियाँ, सासुर आ एहने सभ प्रसंग प्रिय रहैत छैक शुरू शुरू मे आ से ओ स्वादिस्वादि कए चर्चा करैत रहैछ तहिना एकटा सृजनधर्मीकें अपन अनुभव विचारक संसारमे अनेक भंगिमा आ स्वरमे। तँ हमर सभ विधाक जड़िमे हमर ओएह विचार अनुभव आ तकर सामाजिक उपयोगिताक चिन्ता वा ‘रस’ प्रवहमान अछि जे हम अभिव्यक्त करैत छी। अनमन ओही नवविवाहित जकाँ जे अपन नव कनियाँक आ सासुरक नव स्वादक चर्चा अपन बालसखा, अपन भाउज, अपन जेठ बहीनकेँ मात्रा भेद आ भंगिमाभेदसँ सुनबैए। आशा करैत छी जे हमर कहब स्पष्ट भेल होएत। ओना एतबा अवश्ये जे हमर कोनो रचना हमर मनमे एकटा स्पर्श करैत इजोत जकाँ बिन्दुसँ विस्तारक प्रक्रियामे जन्म लैत अछि। गीत कविता वा कथा सभक बीया भूमि आ जलवायु तथा समय समाज छैक। मुदा ओ तर्क शुद्ध कए अन्नक उपमामे तौलल नहि जा सकैत अछि ने बूझल जा सकैत अछि। कृपया।

प्रश्न: अहाँक गीत ‘हमरा ने सोर पाड़’ मे प्रणयानुभूतिक तीव्रताक अभाव खटकैत अछि। नऽव गीतक संदर्भमे प्रणयानुभूतिक प्रसंग अहाँक की विचार ?
उत्तर: नः । प्रणयानुभूतिक तीव्रताक अभाव नऽवगीतक योग्यता नहि थिकैक जहाँधरि ‘हमरा नहि सोर पाडू’ हमर रचनाक प्रसंग अछि हमरा जनैत प्रणयानुभूति अपन स्वाभाविक उत्कर्ष पर छैक। एकरे अपन रंग, स्वाद आ लयात्मक संगति छैक। जाहि नऽव गीत मे एकर अभाव छैक, यदि कथ्यवर्ग ओकर प्रणयानुभूति छैक तँ, ओ न्यून रचना भेल। हमर हो, प्रवासीजीक वा बुद्धिनाथ जीक ओना स्मरण करब जे प्रेमानुभूतिक प्रखरतम परिणति क्रान्तिधर्मितासँ जुटैए एकटा दृष्टि निष्कर्षकें घोषणात्मक संग, जखन हम कहैत छी-‘हारल सन गीत कथा कहि ने होइए आब, हारल सन गीत कथा कहिने होइए। ‘

प्रश्न: नवगीत मे नव बिम्ब, नव प्रतीक आ नव शब्दावलीक प्रयोग भेल अछि से कहल जाइछ। तें प्रसन्नता होइत जँ अहाँ एकरा अपन नवगीतक माध्यमसँ फरिछबितहुँ।
उत्तर: जेना कहलहुँ नऽव गीत आ दृश्य ढाँचाकेँ रेखांकित नहि कएल जा सकत कारण जे एहिमे बहुत राश पारम्परिक छैक। नऽवगीत अपन कथ्यवर्ग आओर तज्जन्य अभिव्यंजनाक विलक्षणताक सन्दर्भमे प्रचलित शब्दकें युगीन अर्थ संगति आ मार्मिकताक सन्दर्भमे नऽव अछि एकर प्रसंग नव छैक। ‘कान्ह पर चुनमुन्नी उदास आइ हमरो मन एहिना उदास रहैए।’ एकर शब्द बहुप्रचलित छैक। बल्कि खियाएल ‘कान्ह’ ‘चुनमुनी’ ‘उदास’ सभटा शब्द बहुप्रयुक्त। परन्तु, एहि शब्द संयोजनक आन्तरिक भावसंगति आ कथ्यवर्गक युग प्रासंगिकता एकरा परम्परायुक्त करैत छैक। हमरा विश्वास अछि ई कोनो मसुआयल प्रेमगीत नहि बनि सकत।

प्रश्न: अन्तमे अन्य नवगीतकारक प्रसंग अहाँक की धारणा अछि, से जानय चाहब।
उत्तर: आशान्वित छी। अपनत्व अछि। मुदा नव गीतक जाहि कथ्यवर्गक तेवरक आ ठ अभिव्यंजना गेयताक हम आग्रही छी, तकर संगी गीतकार अत्यल्प छथि। प्रवासी जी, बुद्धिनाथ जी आ कनीमनी प्रो. महेन्द्र। मुदा प्रो. महेन्द्र जानि नहि किएक एहि विधामे काज नहि करैत छथि। बड़ सकाल प्रोफेसर भए गेलाह। मानताह तँ भरिसक नहि, मुदा सुकान्तोकें पढ़त काल नए बेर हमरा अनुभव भेल जे सुकान्त एहि नऽव गीतक रंगमे कियेक नहि किछु कहैत छथि, संभावनाक विचारसँ कहलहुँ ।
एतबा अवश्य अनुभव होइत अछि जे नऽव गीत एक खास मनःस्थितिक सर्वाधिक्य मर्मस्पर्शी काव्याभिव्यंजनाक विधा थिक। कैप्सूलक एहि घोर यंत्र युगमे संवेदनशीलताक सभसँ उचित आ उर्वर चेतना जगतकें अपन सभ समकालीन विधाक अपेक्षा गीत वेशी सटीक आ हार्दिकता तथा सुग्राह्य बौद्धिकतासँ अभिव्यक्त कए सकैए। व्यापक आ गहीर। तें, ई विधा लोकानुभूतिक अद्यतन अभिव्यंजना विधाक रूपमे स्थापित होएत। यदि एहि पर सुविचारित आ संगठित रचनाधर्मितासँ अग्रसर भेल जाए। देखा चाही। युगयुगीन तकलीफक अंतर्लोककें नऽवगीत जीवित रेखाचित्र बनबैत अछि जाहिमे चेतना आ तकर उद्घोषणाक बड़ साफ-साफ गुंजाइश छैक। एहन गीत बेसी दूरधरि मारि करैत छैक। अर्थात् एहिमे अपेक्षित युगक आक्रामक भंगिमाकेँ खूब दमगर रूपें प्रकट कएल जा सकैत अछि। एकर रंग प्रेमक परिपक्वता आ दृष्टि सम्पन्नताक छैक, तें लाल होइत छैक!

— मिथिला मिहिर, 5 जुलाई 1981