मैथिली मे त’ आब कएक टा सिनेमा बनि गेल अछि। घुसकुनियाँ कटैत ई क्रम चलितो रहत से कहल जा सकैत अछि। एकर गुणवत्ता आ निर्माणक बहस होइते रहत आ तकर अछैत मैथिली अपन किछु घबाह आशावादक संग ‘रील लाइफ’क यात्र तय करिते रहत। मुदा मैथिलीक फिल्म निर्माणक 50 वर्ष होइतहुँ ई एकटा कर्णचुम्बी आँकड़ा सँ बेसी किछु नहि कायम भ’ रहल अछि। मैथिलीक गीतनादक मंच पर रवीन्द्र-महेन्द्रक जोड़ी सुविख्यात रहल अछि। कहल जाइत अछि जे रवीन्द्रजी गीत लिखथि, महेन्द्रजी तकर धुन बनाबथि आ स्वर सेहो देथि। यद्यपि ई धुन आ स्वरबला स्थापना आइ कएक वर्ष सँ हमरा मान्य नहि भ’ रहल अछि। महेन्द्रजीक संगीतज्ञान सँ त’ आइयो असहमते छी मुदा स्वर अवश्य नीक छलनि। जे-से। त’ तहिया सुनियैक जे रवीन्द्र-महेन्द्र ‘ममता गाबए गीत’ नामक एकटा सिनेमा बनौने छलाह। कएक बेर त’ स्वयं महेन्द्रजी सेहो ई बात बाजल करथि आ लगले एहि फिल्मक गीत- ‘अर्र बकरी घास खो’ आ कि ‘माता जे विराजै मिथिले देश मे’ प्रभृति गाबियो देथि। लोक एकरा ‘बाबा वाक्ये प्रमाणम्’ बूझि मानियो लेल करय। दू दशक सँ बेसीए धरि हमहूँ एहि भ्रम मे पड़ल रहलहुँ। जखन केदारनाथ चौधरीक टटका पोथी ‘अबारा नहितन’ पढ़लहुँ तखन एहन सन मारिते रास भ्रमक निवारण सम्भव भेल। मैथिलीक कहबी ‘माँड़ पसौलनि जीरा’ बेसीए चरितार्थ होइत रहल अछि। योग्य केँ स्थान आ श्रेय नहि देबाक हमरालोकनिक नमहर परम्परा रहल अछि। विराट केँ धकियाबय लेल लघुक पूजा-अर्चा करब हमरालोकनिक नेतक एकटा प्रमुख हिस्सा बनैत रहल अछि। लगैए जेना हमरालोकनि ने त’ मूल्यक निर्धारण जनैत छी आ ने मूल्य देब जनैत छी। अपेक्षित प्रतिबद्धताक घनघोर अभाव आ ताहि पर सँ दोयम दर्जाक चाँघुर मे फँसलि मैथिली- एक त’ गुड़ीच दोसर नीम चढ़ल सन।
केदारबाबू अपन पहिल उपन्यास चमेली रानी 2004 ई- मे लिखलनि आ तकरा बाद करार 2006 ई-, माहुर 2008 ई-, हीना मिथिला दर्शन मे धारावाहिक रूप मे 2011 ई- प्रभृति औपन्यासिक रचना सब आयल। अबारा नहितन (2012 ई-) संस्मरणात्मक उपन्यास त’ अछिए मुदा प्रचलित अभिप्राय सँ कने भिन्न स्वादक। वस्तुतः मैथिलीक पहिल फिल्म ‘ममता गाबए गीत’ कोना बनल तकर व्यथा-कथाक निस्सन आ प्रामाणिक चित्रण अछि ई पोथी। ई पोथी मिथिला- मैथिलीक मेमियायल नारेबाजी आ ताहिए नाम पर धन-जन-बल-बुद्धि हँसोथयबला चरित्र पर आ तकर तदर्थ इमानदार दरेग पर आंगुर सेहो उठबैत अछि। स्वजन केँ अनठाबय मे सेहो हमरालोकनि खूबे नाम केने छी नहि त’ एहि फिल्मक निर्माताद्वय सर्वश्री केदारनाथ चौधरी आ महंथ मदनमोहन दास केँ त’ मिथिलाक दादा साहेब फाल्के सन मान-प्रतिष्ठा द’ शिरोमणि बना क’ रहितहुँ। मुदा हाय रे हमरालोकनिक विवेक आ उदारता! नोटिसो लेबाक खगता नहि गमैत गेलहुँ अछि।
उपन्यास प्रारम्भ होइत अछि लेखकक वाल्यकाल सँ। तहिया लेखक आठमा मे पढ़ैत रहथि। प्रारम्भक चारि टा अध्याय केँ पोथीक मूल कथ्यक पृष्ठभूमि हेतु आवश्यक अध्याय कहल जा सकैत अछि। एहि मे लेखकक पढ़ाइ-लिखाइ, गाम-समाज, तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिदृश्य केँ अत्यंत सूक्ष्मता आ रोचकता सँ वर्णन कयल गेल अछि जाहि मे संस्मरणात्मकता आ औपन्यासकिताक अद्भुत सामन्जस्य भेल अछि। लेखक मिथिलाक सामाजिक-सांस्कृतिक ग’हसभ केँ खूबे चिन्हने-जनने छथि। प्रारम्भक एहि अध्यायसभ मे मिथिला-मैथिलीक निजगुत चिन्ता आ सुच्चा दरेग सेहो परिलक्षित होइत अछि। कलकतिया मैथिल समुदायक अपन गमैया दरेग त’ अद्भुत अछिए, एकर औपन्यासिक चित्र सेहो मार्मिक अछि। अध्ययन हेतु कलकत्ता प्रवासक क्रम मे लेखक ओतहुक लोकक मैथिलीक प्रति संवेदना केँ सेहो स्पष्ट कयने छथि। कलकत्ते मे मैथिली, एकर साहित्यिक पक्ष, एकर समाज, एहि समाज मे रचल-बसल आम लोक प्रभृति बिन्दु दिस लेखकक नजरि जाएब प्रारम्भ भ’ गेल छलनि आ ओ अबाह, धबाह आ रोगाह होबय लागल रहथि। रोग छलनि मैथिलीक, रोग छलनि मिथिलाक, रोग छलनि एकर सर्वस्तरीय उन्नयनक आ रोग छलनि एकर शैक्षिक सुधारक। तेँ त’ ओ अपन अध्ययनोपरांत कलकत्ता सँ गाम अयलाह एकटा नीक विद्यालय खोलय। मुदा पाँचम अध्याय मे हिनक भेँट महंथ मदनमोहन दास सँ होइत छनि, ट्रेन मे। दुनू गोटेक ई भेँट मैथिलीक हेतु कएक अर्थ मे ‘टर्निंग प्वाइंट’ अछि। दुनूक मित्रता गाढ़ होइत छनि। महंथजी क्वीन्स कॉलेज (इलाहाबाद)क छात्र आ केदारबाबू तहिया उदय प्रताप कॉलेज (बनारस)क छात्र रहथि। मिथिला-मैथिलीक दू टा अबारा (केदारबाबू आ महंथ मदनमोहन दासजी) मैथिली मे फिल्म बनाबय लेल तैयार होइत छथि। तैयारे नहि अपितु महंथजी त’ ताहि लेल पूँजीओ लगा दैत छथि। ई जे घटना अछि तकर किछु अतिरिक्तो महत्व अछि। मदनमोहन दासजी एक त’ महंथ दोसर भूमिहार। एकटा उपाधि (महंथ) सांसारिक काज मे बाधक आ दोसर (भूमिहार) मिथिला-मैथिलीक क्षेत्र मे योगदान लेल अजगुत सन। मुदा महंथजी दुनू कसौटी पर कसल लोक रहथि। आधुनिक शिक्षा केँ सुच्चा अर्थ मे सेहो पढ़ने रहथि। बरमहल कहल जाइत रहल जे मैथिली केँ भूमिहारवर्ग सँ अपेक्षाकृत कम समृद्धि भेटलैक। कदाचित सत्यहु होअय मुदा एहि धारणा केँ त’ एसकर महंथेजीक अवदान धकिया दैत अछि। मधुबनी लग राजनगर आ राजनगर लग मिर्जापुर। एहिए स्थानक महंथ रहथि मदनमोहन दासजी। महंथजी साहित्य-संस्कृति प्रेमी आ अंग्रेजी-हिन्दी-बाँग्ला साहित्यक गम्भीर पाठक। महंथेजी केदारबाबू केँ सिनेमा बनबय लेल सुझाव, पूँजी आ संग देलनि। से अंत धरि संग देलनि।
छठम अध्याय 1961 ई- सँ प्रारम्भ होइत अछि जखन लेखक 25 वर्षक रहथि। लेखकक शब्द मे गदहपचीसी। 1962 मे लेखक अपना नौकरी सँ इस्तीफा देलनि। एही वर्ष देश मे तेसर चुनाव भेलैक। काँग्रेसक सरकार बनल। मुदा संगहि नेतालोकनिक देशभावना सेहो विद्रूप आ स्खलित होयब प्रारभ क’ देने छल फलतः झूठ, अनीति, घूस, दाव-पेँच, छल-छप्र प्रभृति बढ़य लागल। पारस्परिक अविश्वासक नवजात वातावरण मे भारत-चीन युद्ध सेहो भ’ गेलैक। सम्पूर्ण देश अपमानित भेल छल। एहने सन किछु विषम दैशिक परिस्थितिक कारणे सम्पूर्ण देशक रचनात्मकता प्रायः थमकि गेल सन छल। लेखकक फिल्म निर्माणक योजना सेहो मकमका गेलनि मुदा पुनः 23 सितम्बर 1963 ई- क’ मित्रद्वय अपन योजनाक संग बम्बई प्रस्थान कयल। तहिया ने त’ एहि तिथिएक महत्व छल, ने एहि फिल्म निर्माण योजनेक आ ने एहि मित्रद्वयक। मुदा लोक कतबो अबडेरौक, समय सभटा अवदान केँ ओरिया क’ रखैत अछि। सेहो जँ रचनात्मक अवदान होइक त’ समकालीन लोकक आँखि मूनने रचना-सूर्य नहि झँपा सकैत छैक। उत्तर पीढ़ी ओकरा अकानि लैत छैक। उक्त तिथि, निर्माण आ अवदानक आइ किछु बेसीए महत्व अछि। आजुक बदलैत परिवेश मे लोक अपन जडि़ किंवा प्रस्थान-बिन्दुक ताकहेरक प्रति कने बेसीए सजग भेल अछि। ताहि परिप्रेक्ष्य मे जँ मैथिलीक फिल्मी लोक जँ एहि तिथि केँ अपन खुट्टा तिथि मानैत छथि त’ से उचित सेहो आ अपन पुरखाक महावदानक प्रति स्मृति-आभार सेहो। डा- भीमनाथ झा सेहो एहि तिथिक ऐतिहासिकता केँ रेखांकित करबा सन स्तुत्य काज कयल अछि।
सातम अध्याय सँ फिल्मक प्रक्रिया प्रारम्भ होइत अछि। निर्माताद्वय केँ बम्बई मे कएक तरहक अनुभव होइत छनि। उदयभानु सिंह, परमानंद चौधरी (फिल्म निर्देशक सी- परमानंद), रवीन्द्रनाथ ठाकुर (गीतकार), श्याम सागर (संगीतकार), सुमन कल्याणपुर-महेन्द्र कपूर-गीता दत्त-कृष्णा काले (गायक-गायिका), त्रिदीप कुमार (हीरो), अजरा (हिरोइन), प्यारे मोहन सहाय, कमलनाथ सिंह ठाकुर (चरित्र अभिनेता), फणीश्वर नाथ रेणु लोकनि सँ भेँट-घाँट होइत छनि। फिल्मक आनहु प्रभागक टेक्नीशियन सब ताकल जाइछ। पटना मे फिल्मक मुहुर्त होइछ। तहिया ‘तीसरी कसम’ बनेबाक सूरसार सेहो भ’ रहल छल जाहि मे सी- परमानंद अभिनय क’ रहल छलाह। तत्कालीन राज्यपाल फिल्मक मुहुर्त मे आयल छलाह। कमलनाथ सिंह ठाकुरेक नामकरण ‘ममता गाबए गीत’ एहि फिल्मक नाम रहल। तकर बादक अध्याय मे फिल्मक शूटिंग आ रोमांचक प्रसंग सब वर्णित भेल अछि, किछु अपरोजक प्रसंगक संगहि। दू मास तेरह दिनक शूटिंगक कथा यथासम्भव विस्तार सेहो पओने अछि। मुदा बम्बईक ‘लैब’ मे जा क’ बूझय जोग होइछ जे फिल्म अधे बनल अछि। निर्माता हतप्रभ! ओमहर महंथजीक महंथान पर सरकारी संकटक करिक्का मेघ। मुदा पुनः संगोर कयल जाइछ आ मास भरिक शूटिंग पुनः होइछ। तदुपरांत एडीटिंग, जे कि बेस महग। निर्मातालोकनिक जेबी हल्लुक होइते बम्बईया मैथिल आ ओतहुक मिथिला-मैथिलीक संवेदनाक पोल-पट्टी खूजय लगैत अछि। केओ मदति नहि करैत अछि, ने इनकम टैक्सक हाकिम आ ने ओतहुक मैथिल समाजसेवी बन्धुलोकनि।
तेरहम अध्याय सँ एतद्सम्बन्धित शहरिया मैथिलक छप्र आ द्वैध अपन सुच्चा रूप मे देखार होइत अछि। मित्रद्वय डिस्ट्रीब्यूटरक ताकहेर मे कलकत्ता जाइत छथि आ कलकतिया मैथिल केँ विश्वास दिया क’ फिल्म प्रदर्शन हेतु शेष खर्चक ओरियान कर’ चाहैत छथि। कलकत्ता आन जाहि कारणे मिथिला-मैथिली लेल सहयोगी सिद्ध भेल हो मुदा मैथिलीक पहिल फिल्मक मादे तँ कनौसिओ भरि सहयोगी सिद्ध नहि भेल। कलकतिया मुँहपुरुषलोकनिक निम्नकोटिक स्वार्थ, लोभ, छल-छप्र आदिक वर्णन बुलंदी सँ भेल अछि। ने त’ वितरके भेटलनि आ ने एकहु पाइक सहयोगे। पाइक कोन कथा, तत्कालीन पुरोधालोकनि सुबोलोक सहयोग देबा सँ चूकि गेलाह। सभ संस्था, धनकुबेर, शिक्षाविद्, सम्पादक, समाजसेवी, नौकरिहारा मुँहपुरुषलोकनि नाघरि घर केलनि। बाबूसाहेब चौधरी सन एकाध टा निर्लोभ, निर्भीक आ समर्पित व्यक्ति टा संग पुरलनि। निर्माताद्वय केँ ठक, फरेबी, झुठ्ठा कमीशनखोर, फनैत प्रभृति मैथिलीक सोदाहरण व्याख्या ओतहि भेटलनि। मुदा ताहू सँ विशेष उपलब्धिक बात ई जे मित्रद्वय केँ एहि महावदानक प्रति मैथिल बिड़लाक मोचंड छोट भाय द्वारा भेटलनि ‘अबारा नहितन’ सन दुत्कार-उपहार-वाक्य। कहल जाय त’ कलकत्ते मे एहि औपन्यासिक कथा केँ शीर्षक भेटैत अछि। चौदहम अध्यायक अंत वस्तुतः बेस मार्मिक अछि जतय मित्रद्वय ‘अबारा’ उपाधि ग्रहण क’ अपन मान-सम्मान आ अभिमान केँ अपनहि सोझाँ भुजरी-भुजरी होइत देखैत छथि आ अपन फिल्मक निर्माण-कार्य केँ पाप-पुण्यक तराजू पर जोखय लेल विवश भ’ जाइत छथि।
‘ममता गाबए गीत’क निर्माण-यात्र सत्ते बड़ दुखद रहल अछि। पुस्तकक अंत धरि अबैत-अबैत करेज दू टुकड़ी भ’ जाइत अछि, आँखि पनिया जाइत अछि ई बुझितो जे आइ ई पानि निरर्थक अछि, निष्प्रयोज्य अछि। कारण, तहिये जँ लोकक आँखि मे पानि रहितैक त’ आइ हमरासभक लग एकटा समर्थ फिल्म उद्योग भ’ गेल रहितय, सिनेमा-सिरियलक भरमार रहितय, रंगकर्मी-अभिनेता-निर्देशक-टेक्नीशियन सभक फौज रहितय, परभाषायी आ परसंस्कृतिक आक्रमण सँ आबंच रहितहुँ, जँ आबंच नहियो रहि सकितहुँ त’ एतेक घाहिल त’ नहिए रहितहुँ जतबा आइ छी। सांस्कृतिक-साहित्यिक चेतनाक स्तर अझुका सन नहि होइत। मिथिलाक लोकगीत शोकगीत त’ नहिएँ बनैत। मुदा जडि़क बात ई जे हमसभ अपन नायक पर गर्वे कहिया केलहुँ। जे केलहुँ से देखाउँसे। देखाउँसक गर्व अल्पकालिक होइत छैक, बल्कि अपरिपक्व होइत छैक।
अपन कॉलेजिये दिन मे मैथिलीक सांस्कृतिक मंच सँ हमर सम्पर्क होयब शुरू भ’ गेल छल। तहिया सिनेमा देखब नशेरीक अमल सन त’ नहिएँ छल मुदा प्रायः एकटा आवश्यक साप्ताहिक काज सन जरूरे छल। तहिये सँ वॉलीवुड आ हॉलीवुड सन शब्द चकबिदोर लगबैत रहल आ अनचोके सेहन्ता कर’ लगैत रही जे मैथिलीओक अपन फिल्म उद्योग होयत आ तकर नाम ‘मॉलीवुड’ राखल जायत। तहिया पटना, कलकत्ता आ कि बेगूसरायक रंगमंचीय सक्रियता बेस छल। किछु वर्ष त’ पटना मे औसतन प्रतिमास एकटा क’ नाटक होअय लागल छल। नहि नाटक त’ तकर रिहर्सले। मोटा-मोटी बारहोमास रंगकर्म। चेतना समिति, अरिपन, भंगिमा, आंगन, कला-समिति मे काज करबाक उपरा-उपरी उदाहरण। तदजन्य परिणाम सेहो। तहिया एतेक फिल्मो नहि बनैक। बिहार मे त’ कमे सम। मुदा भोजपुरी सिनेमा त’ बनिते छलैक आ एकर स्वभाषी-स्वक्षेत्री दर्शक ओकरा अलो-मलो सँ स्वागतो करैत रहल। मुदा हमरालोकनि पछुआयले रहि गेलहुँ। कते दिनक बाद पुनः एकटा फिल्म आयल ‘सस्ता जिनगी महग सेनुर’ जे कि एकरती हरहोड़ सेहो मचौलक आ कहाँदन व्यावसायिक रूपेँ सेहो ठीके-ठाक रहल। ‘नैन न तिरपित भेल’ सीरियल सहो बनल मुदा ई काजसभ परम्परा नहि बनि सकल अपितु आन्हरक डेग मात्र सिद्ध भेल। दोसर दिस समूहक सांस्कृतिक चेतना दिनानुदिन नीचे मुँहे गुड़कि रहल अछि। तखन त’ साहित्यिक चेतनाक चर्च करब बौक केँ ककहरा रटायब सन भेल। एहन स्थिति मे ‘मॉलीवुड’ शब्द असम्भव त’ नहि मुदा बेस भरिगर अवश्य लगैत अछि। पूर्वापेक्षा मैथिल समृद्ध भेलाह अछि। तेँ पाइयो छैक, लोको छैक, राज्यक स्थिति सेहो पहिले सँ नीक कहल जाइछ। कएकटा मैथिल ‘अबारा’ आब एहि मे सक्रिय सेहो छथि। मलंगियाजीक नाट्यकथ्य, नाट्यरचना आ तदनुकुल चुम्बकीय एवम् मारक-बेधक क्षमताबला चोटगर संवाद आ तदजन्य कौशल्य कएक दशक सँ देखैत आबि रहल छी। कुणालजी ‘नैन न तिरपित भेल’ सँ अपन एतद्विषयक क्षमता देखा चुकल छथि जकर उपयोग होयबाक चाही। मनोज श्रीपति ‘रक्ततिलक’ फिल्म बना क’ मिथिला-मैथिली केँ टोरन्टो फिल्म फेस्टिवल धरि पहुँचा आयल छथि आ आइ फिल्म निर्माणक क्षेत्र मे एकटा अँखिगर नाम सन भेल जा रहल छथि। सक्रिय-सांकाक्ष रंगकर्मी-अभिनेता-अभिनेत्रीक सूची मे नव-नव नाम निरन्तर जुटि रहल अछि। फिल्म निर्माणक प्रायः सभ प्रभाग मे आब मैथिल नाम खूबे अभरय लागल अछि। मुदा फिल्म निर्माणक एहि तमाम तत्व केँ एकठाम मिलाब’बला एकटा समर्थ ‘फैक्टर’क अभाव प्रायः आइयो ओहिना अछि जेना कि दू तीन दशक पूर्व छल। जतेक प्रकारक दिक्कत आ परेशानी केदारबाबू आ महंथजी केँ भेलनि, जँ बेराबेरी तकरे निदान भ’ जाय त’ मॉलीवुडक बाट स्वतः खुजि जायत। हमरा लग दिलीप कुमार, अमिताभ बच्चन कि आमिर-शाहरुख सन नाम त’ नहिए अछि, कुणाल, रविकिशन, मनोज तिवारी, निरहुआ आ कि पवन सिंह सन नामक सेहो अभावे अछि। एकरा लेल कोनहु एकटा कारण जिम्मेवार नहि मुदा जे आ जतबा कारण अछि से त’ एतद्विषयक चेतना केँ अबाह केनहि अछि। ‘नैन त तिरपित भेल’क बाद पाँतरे-पाँतर। जँ पूँजी किंवा विज्ञापन कारण बनैछ त’ सेहो त’ अपनहि टेटर भेल। मुदा जँ सेहन्ता आ दरेग सँ हटि क’ यथार्थक धरातल पर आबि विचार करैत छी त’ जखन मिथिला मे आन तमाम प्रकारक उद्योग चौपट्ट भ’ गेल अछि, हायाघाट-लोहट-पंडौल-सकरी-कपसिया-हसनपुर-पुर्णियाँ-कटिहारक सभटा उद्योग हाकरोस क’ रहल अछि। एहि परिप्रेक्ष्य मे मिथि्ालाक सामूहिक जनचेतना अपन सभ तरहक ‘फ्रीजिंग प्वाइंट’क रेकॉर्ड दिनानुदिन अपनहि तोड़ने जा रहल अछि, तेहन मे त’ मॉलीवुडक सेहन्ता जँ असम्भव नहि त’ मोसकिल अवश्ये लगैए। कखन हरब दुख मोर, आउ पिया हमर नगरी, दरभंगिया बाबू प्रभृति फिल्मक प्रदर्शनक अछैत अपनहि गाम मे एकघरा आ कि भगिनमान सन मोजर, ‘अपन गाम अपन लोक’क निःशब्द परलोकगमन प्रभृति मारिते रास टटका घटना सब देखि क’ त’ मोसकिल बढ़ले जाइत अछि।
आदर बिलहबाक जे सामूहिक आ कि संस्थानिक क्रिया-प्रक्रिया अछि से चोटमरू अछि। ओहिठाम दियादी भोज चलि रहल अछि। उबरत तखन ने सौजन्नी। संस्थासभ मे निष्पक्ष विचार देब’बला वृत्ति आ मानसिकता दुनू मे खूबे ह्रास भेल अछि। प्रायः सभ संस्था अपन मोतियाबिन्दक तह केँ दिनानुदिन मोटे कयने जा रहल अछि। अपरोजक-अपचेष्टक साहित्यिक संस्करण आ संस्कारक गुण-धर्म मे वृद्धिए भेल अछि जे कि हमरालोकनिक सामूहिक चरित्र आ परिचिति सेहो बनल जा रहल अछि। तेहन विकट स्थिति मे एहि दुनू अबाराक आवारगी केँ साहित्यिक किंवा संस्थागत प्रशंसा भेटत से अपेक्षा करबाक हिम्मति नहि होइत अछि मुदा ताहि सँ एहि पोथीक बहुद्देशीय विशेषता कम नहि भ’ जाइत छैक।
अजरा, केदारनाथ चौधरी, महंथ मदनमोहन दास, सी परमानंद, श्याम शर्मा, उदयभानु सिंह लोकनिक फोटो आ कि एहि फिल्मक पोस्टर पर्यन्त हमहूँ नहि देखने रही, फिल्मक कोन कथा! ‘आबारा नहितन’ प्रारम्भे होइछ चारि पेज मे हिनकालोककि फोटो सँ आ अंत होइछ एहि फिल्मक गीतसभ सँ। एहि पुस्तकक पाठ्यप्रवाह, स्वभुक्त घटनावलीक ठोस आ कटु यथार्थ-चित्रण, एकर चुम्बकीय औपन्यासिकता, लेखकीय कथ्यक पुष्टि करैत ऐतिहासिकता, प्रामाणिकता, हिन्दी फिल्मक संक्षिप्त आ आरम्भिक इतिवृत्त, स्वातंयोत्तर भारतक विदेश नीति आ एकर तीत-मीठ प्रभाव, उपन्यासक नायक मित्रद्वयक द्वन्द्व-संघर्षादि एकर किछु उत्तम पक्ष मे सँ अछि।
मैथिल कएक अर्थ मे अपना लोकक लेल कृतध्न समाज रहल अछि। एकर मारिते रास उदाहरण उपस्थितो कयल जा सकैत अछि। अपन वस्तुक महत्व केँ अबडेरैत रहल ई समाज सदति परानुरक्तिक परिचय दैत रहल अछि। तेँ ई सम्भव अछि जे मारिते रास आन-आन महत्वपूर्ण तिथि सन 23 सितम्बर 1963 ई- सहित एकर ऐतिहासिक-सांस्कृतिक महत्व केँ ई समाज बिसरि जाय, हमर सांस्कृतिक दारिद्रड्ढ आ पराघमुखी चेतना बढ़ले जाय, अगिला पाँच दशक पर्यन्त मॉलीवुड शब्दक प्रति हमर मोह मात्र एकटा मोहे बनल रहय, मुदा देर छैक अन्हेर नहि छैक। मैथिलीओक फिल्म निर्माण मे गति आओत, आ से अवश्ये आओत। एकर सूरसार त’ होबय लागल अछि। हँ, ई मानैत छी जे पछतीया रोटी खाएब मैथिलीएक कपार मे रहल अछि। आन ठाम त’ अपन जडि़ किंवा प्रस्थान-विन्दुक ताकहेर जोरो पकड़लक अछि। देखाँउसे मिथिलोक लोक तकताह। आ से जखन मैथिलीक फिल्मक जडि़ कोड़ताह त’ ‘ममता गाबए गीत’ अभरबे करतैक, आ तेँ ई निर्माण-दल आ एकर योगदान क्रालक्रमेण अपन बहुअर्थी प्रासंगिकता बढ़ौनहि चलत।
दादा साहेब फाल्के केँ भारतीय सिनेमाक प्रथम पुरुष होयबाक श्रेय प्राप्त छनि। ताहि अर्थ मे एहि मैथिल फाल्केक भूमिका कने न्यून, कने झूस सन अभरैत अछि कारण ई लोकनि फिल्म त’ बनौलनि मुदा एकर उत्तरांश अपूर्ण छल जकरा पूर्ण कए प्रदर्शित करौलनि रवीन्द्रनाथ ठाकुर सेहो कि त’ 16-17 वर्ष बाद। तथापि विजय कुमार मिश्र (दरभंगा) अपन पत्रकाररूपक परिचय दैत एहि मैथिल फाल्के आ हुनक रचना केँ रचना (अक्टूबर-दिसम्बर, 2004 अंक) मे लिखि एकटा भरल पोखरि मे ढेप फेँकि देलनि। हिलकोर भ’ रहल अछि आ ई तरंग जरूरे अपन गंतव्य धरि पहुँचत से हमरा सन लोक केँ विश्वास भ’ रहल छैक। ई हम गमियो रहल छी आ गछियो रहल छी, तथापि एहि पुस्तकक अंतिम बात, अंतिम प्रश्न-
‘‘फिल्म पूरा बनि गेलैक तकर सूचना पाबि हमरा दुख नहि प्रशन्नता भेल छल। मुदा एकटा जिज्ञासा मोन मे रहिए गेल रहए। की हम (केदारबाबू) आ मदनभाइ मैथिल समाज मे अपरिचित सँ परिचित भेलहुँ? जवाबक प्रतीक्षा मे मदनभाइ संसार त्यागि विदा भ’ गेला। मुदा हम एखन तक प्रतीक्षा मे जिबिते घुमि-फिरि रहलहुँ अछि।’’
हमरा बौक बनौने जा रहल अछि आ ओह-आह करैत लेखकक निजगुत उत्तर तकबाक ब्योँत मे लागि जाइत छी।
किछु विषय तात्विक रूपेँ आइयो ओहिना अछि जहिना 5-6 दशक पूर्व छल। एहि संदर्भ मे एहि पुस्तकक कथ्य-सीमा सँ बाहर आबि गम्भीरतापूर्वक विचार-विमर्श करबाक खगता छैक। केदारबाबू आ महंथजी दुनू गोटे फिल्म बनबय विदा भेलाह। एहि निर्माण-यात्रक पहिल विडम्बना त’ ई छल जे ओ लोकनि ओहि नव क्षेत्र मे काज करबा लेल प्रवृत्त भेलाह जकर कि मिसियो भरि प्राथमिक ज्ञान नहि छलनि। जे जेना कहलकनि तहिना होइत गेलाह। एहन सन जेना निर्मितिजन्य अपन कोनहु टा योजना नहि। तकर जँ ई लोकनि प्रायः खगतो नहि गमलनि त’ सेहो कोनो नान्हि टा आश्चर्य नहि। गहराइक थाह-पता लेने बिनु आ हेलबाक कौशल अरजने बिनु हेलिया सदति डूमैत रहल अछि। से एहू फिल्मक संग भेल। पुस्तक मे वर्णित समस्त परेशानी प्रकारान्तर सँ अपेक्षित पूर्वज्ञान-पूर्वयोजनाक अभावक कारणेँ सेहो छल। उत्तरकालिक दोख त’ बम्बईया कि कलकतिया मैथिल के बाद मे देल जाय। निर्माता मित्रद्वयक नेयार-भास त’ ततबे कचिया आ दोखाह-रोगाह छलनि जे बम्बई जाइते ध्वस्त भ’ गेल आ आन मिथक, आन कथा पर फिल्म बनल। कोनहु धार्मिक कथावस्तु पर सिनेमा बनल रहैत त’ उमेद करैत छी जे ई हाल नहि होइत। फिल्म निर्माणक अपन संस्कृति छैक आ अपन प्रक्रिया छैक जे कि कएक अर्थ आ कएक क्षेत्र मे समकालीन समाजक मनोविज्ञान कि दशा-दिशा सँ निरपेक्ष नहि भ’ सकैत अछि। बाकस मे बंद एहि अपूर्ण फिल्म केँ पूर्ण क’ रवीन्द्रजी प्रदर्शनक स्थिति धरि अनलनि त’ ताहि सँ रवीन्द्रजी केँ जे अर्थ लाभ भेल होनि, मैथिल समाज केँ त’ एकटा ऐतिहासिक लाभ चट द’ भ’ गेलैक।
मैथिली फिल्म निर्माणक अझुको स्थिति प्रशंसनीय नहि अछि। बम्बइया आँखि सँ मिथिलाक फोटो खिचबाक षड्यंत्र थम्हि नहि रहल अछि। कोनहुटा निर्देशक मैथिली फिल्म केँ अपन निजता आ परिचितिक संग विकसित करबाक आग्रही नहि देखाइत छथि। ई एकटा नमहर बाधक तत्व अछि। दोसर बात जे मिथिलाक जनसामान्य मे अपन भाषा-साहित्य आ संस्कृतिक प्रति दरेगे कतेक रहि गेल छैक! जे गोटपगरा फिल्म बनैए तकर रिव्यू धरि नहि छपि पबैए। फिल्मी लोकक साक्षात्कार कत’ आबि रहल अछि? फिल्मी पत्रिकाक ओरियाओन किएक ने होइत अछि? ‘परिकल्पना’ (सम्पादक- किसलय कृष्ण) एक अंकक बाद तेहन ने अकल्पनीय पतनुकान लेलक जे एकर दोसर अंक नहि आयल। मैथिलीक दरभंगिया समाचार-पत्र ‘मिथिला आवाज’ (दैनिक) सँ एतद्क्षेत्रीय सम्भावना बनल छल मुदा ओहो गहनमरू भ’ क’ बंद होयबाक बाट जोहि रहल अछि।
अदौ सँ ल’ क’ आइ धरि मैथिली दोयम दर्जाक लोकक मुखियागिरी गछार सँ मुक्त नहि भेल अछि। एकर फिल्म सेहो छूटल नहि अछि। तेँ एकर प्रोडक्शनो दोयम दर्जाक होइत रहल अछि। नहि त’ 50 वर्षक सुदीर्घ कालखंड मे एकहुटा ‘पैरेलेल’ आ कि ‘क्लासिकल’ फिल्म एहन नहि बनल जकर गुणवत्ताक तुलना आन क्षेत्रीय भाषाक फिल्मक संग कयल जाइत। मुदा जतय निर्माण पर संकट हो ओतय तुलना पर गप करब त’ नितान्त मूर्खता अछि। विराट सम्भावनाक अछैत एकटा नमहर शून्य पसरल एहि मैथिली फिल्म निर्माणक क्षेत्र मे आइयो अँखिगर लोकसभक बाट जोहल जा रहल अछि। मुदा इहो बात संगहि सत्य अछि जे सिर्फ वीरता सँ आ कि सिर्फ चतुराइ सँ कोनो संग्राम नहि जीतल जा सकैए। विजय लेल दुनूक संयोग आवश्यक।
साभार: पुर्वोत्तर मैथिल, अंक-30, जनवरी-मार्च 2014