बनैत-बिगड़ैत देश आ सुकान्त सोमक कविता — डॉ. तारानंद वियोगी

एक

सुकान्त सोम मैथिलीक एक विरल कवि छथि, आ हुनका कविता पर बात करब मैथिली काव्येतिहासक एक दुर्लभ अध्याय पर बात करब थिक। मुदा, एहि मे समस्या छैक जे अपन कवि-निर्मिति पर, अपना सोचक काव्य-परिदृश्य पर आ कि अपन कविता-प्रतिमान पर हुनकर अलग सं कोनो लेखन नहियेक बराबर हमरा लोकनि लग उपलब्ध अछि। दोसर, सुकान्त सन विद्रोही साधक-कवि पर जाहि व्यापकताक संग समीक्षा-विचार हेबाक चाही, से नहि भ’ सकल अछि। तेसर, मुख्यधाराक हिन्दी पत्रकारिता मे पछिला तमाम बरस ओ ततेक मुखर-प्रखर रहला जे हुनकर यशस्वी पत्रकारक छवि तर मे हुनकर ई दुर्लभ कवि पिचाएल आ नुकाएल रहि गेल अछि।

सुकान्त कें पढ़बा काल हुनकर पहिल जाहि विशेषता पर सब सं पहिने ध्यान जाइत अछि, से ई जे अपन कविता सब मे ओ बेर बेर कविता कें परिभाषित करैत चलैत छथि। ‘कविता लेल एकटा कविता’ आदिक तं शीर्षके स्वयं सैह अछि, बांकी बहुतो ठाम अवसर एला पर अथवा अवसर ताकि क’ ओ ई काज करैत छथि। अपन कविताक बारे मे हुनकर ख्याल छनि जे ई ‘मनुक्खक कविता’ थिक जे ‘एकटा सार्थक आ सामरिक चुप्पीक संग शुरू होइत अछि।’ अपन कवि-कर्मक चिन्हासय दैत कहैत छथि जे हम ‘अहांक राष्ट्रीय उद्यानक हरियर जंगल मे रत रत करैत कुरहरि भांजि रहल छी।’ एक ठाम कहैत छथि– ‘पातविहीन छाल नोंचल गाछक चीत्कार थिक हमर कविता।’ एक आर ठाम कहैत छथि, ‘सुखैल हड्डीक झनझनाहटि थिक हमर कविता।’ एक ठाम तं ओ इहो कहैत छथि जे ‘हमर कलमक नीब पर नचैत अक्षर अहांक शान्ति-व्यवस्था लेल घातक अछि।’

मिथिला मे सदा सं कविता कें कामिनी मानबाक चलन रहलैक अछि, पंडितो लोकनि कें जखन एकरा हीन साबित करबाक होइन तं ‘रजनी-सजनी’ कहथि। मुदा, सुकान्त कहैत छथि, ‘हमर कविता प्रेयसीक अंगक भूगोल नहि, ओकर सुखाइत-टटाइत आतंकक इतिहास थिक।’ हमरा तं कौखन लगैत अछि जे मैथिल कवि लोकनिक काव्यांग प्रक्रियाक एहि सं सुंदर विवेचना साइते कतहु आन ठाम भेटत जेना सुकान्त अपन एक कविता मे केने छथि–‘फूलपात काढ़ल कापी मे लिखल कविता/ उदासी मे गाओल गेल गीत आ/ हर आ हरबाहक मादे लिखल गेल आख्यान/ कोन दिशाक ज्ञान करबैत कोन युगक संकेत करबैत गुजरि जाइछ।’

दू

कखनो कखनो सोचै छी, सुकान्तक कविता मे ई सब एना एना किए अछि? कतहु बिंब पर बिंब चढ़ि जाइ छै। कतहु कमलाक बिंब गरम खून कें ठंडा करक प्रतीक के रूप मे आबै छै, कतहु घोर विक्षुब्ध बला व्यंग्य मे अपन पीड़ा ब्यान करैत कविता-वाचक ठेठ अभिधा मे चीत्कार करय लगैत अछि। कतहु निस्तब्धता तेहन भयाओन भ’ क’ आबै छै जे नबगछुलीक ठाढ़ि सभक कनफुसकी साफ-साफ सुनाइ पडै छैक। मुदा, ‘जलकुंभीक लेल अपस्यांत एकटा आतंकित वनमुर्गी’ एक तरह सं बुझू तं हुनकर स्थायी टेक छियनि। ई वनमुर्गी आठम दशकक आम भारतीय आदमी थिक, जकरा लेल सुकान्त लगातार जिबैत, सोचैत आ कविता लिखैत रहला अछि। कहै छथिन, ‘अन्हारक खिलाफ आदिम संघर्षक सैनिक’ थिक ई, मुदा आइ गर्दिश मे अछि।दोसर दिस, शासन के वहशीपन के जते चित्र सुकान्तक कविता सब मे ठाढ़ भेल अछि, से फेर हुनका समयक कोनो आन कवि लग दुर्लभ अछि।

आदमी सं आदमीक सम्बन्धक अनेक वृत्तान्त पर सुकान्तक ध्यान गेलनि अछि। माय अछि तं तेहन जे अपन कोटि कोटि जनमक वात्सल्य अपन एक संतान पर निछाबर क’ सकैत अछि। पिता तेहन पिता जे अन्यायक विरुद्ध लड़बे अपन विरासतक रूप मे छोड़ैत अछि। ओहि ठाम जे व्यक्ति-रूप जनता अछि,ओकर एक कर्तव्य मातृभूमियोक प्रति अछि। ई ओकरे देश थिक। ओम्हर ओ देश अछि तखनहि एम्हर ई गाम अछि। ध्यान देबाक थिक जे सुकान्तक ओइ ठाम देश अमूर्त भाववाची नहि। ओ जखन कखनहु आएल अछि तं अपन पूरा भौगोलिक राजनीतिक संदर्भ संग आएल अछि। ओकरा हम चीन्हि सकैत छिऐक जे भारत थिक। ओकरा पाछू महान स्वतंत्रता संग्रामक आदर्श छैक। तें, जखन हम सब सुकान्तक कविता मे हुनकर आदमीक खोज करी तं ओतय क्यो एक व्यक्ति नहि देखाब देत। ओ सामूहिक मनक दहाइ, सैकड़ा, हजार सनक जीव थिक। सुकान्त ओकर बात लिखैत कहै छथिन जे हमही कारखाना सं इस्पात बहार करै छी, शहरक प्रत्येक घर ठाढ़ केने छी, हमरे पसेना खेत मे खसैत छैक तं फसिल लहलहाइत अछि आ हिमालयक बर्फ पर खसय तं देशक लक्ष्मण-रेखा बनैत छैक, आदि आदि।

मोन रखबाक चाही जे आजादी बादक हवा मे एक नेनपन सं सांस ल क जबान भेनिहार आरंभिक पीढ़ीक एक कवि सुकान्त छथि। सत्तरि के दशक अबैत अबैत स्वतंत्रता-संग्रामक ओ आदर्श टूटि चुकल रहैक। आब तं हालत ई छल जे लोकतंत्रे मानू समाप्त छल। तानाशाही फासिज्म पूरा तरह सं देश कें गछाड़ि लेने रहै। पहिने अघोषित इमरजेन्सी छल बाद मे औपचारिको इमरजेन्सी लागू भेलै। मुदा आजादीक ओ आदर्श जकरा जीवन मे शामिल रहै, ओ आगि हृदय मे जरैत रहै, ओ विरोधक बिगुल फूकि देलक। ओतय हिंसा-अहिंसाक सवाल मिथ्या छल। ई युद्ध सुकान्तक कविता मे हम सब जारी देखैत छी।

सुकान्तक कविता-समय पर कने ध्यान देल जाय। ओ समय छल जखन विश्व भरि मे छात्र आन्दोलन भ’ क’ अपन परचम लहरा चुकल छल, जकर धमक हरेक ठाम, भारतो मे सुनल जा सकै छल। एही आन्दोलनक परिणाम-स्वरूप फ्रांस मे महाबली दिगालक पतन भेल छल। चे ग्वारा, कास्त्रो, सार्त्र-सन नामेक नहि, तारिक अली, कोहन बेंदित आ हर्बर्ट मार्कूसक नामक धूम छल। भारतीय युवा लोकनिक वामपंथी रुझान अपन चरम पर छल। ई दौर कैरियरिज्म के नहि, आदर्श सभक तलाश आ ओकरा लेल जीवन अर्पित करबाक समय रहैक। सेंट स्टीफन सं ल’ क’ सेन्ट जोन्स धरिक लड़का-लड़की नक्सलबाड़ी मे, श्रीकाकुलम के जंगल मे पाओल जा सकै छल। एहि युवा सभक हृदय मे अपन सपना छल जे अपना सं बाहर अपन देश धरि, दुनियां धरि जाइत छल। ई पीढ़ी परिवर्तन चाहैत रहय, आ ताहि लेल लड़ि रहल छल। ई पीढ़ी अपना कें सौभाग्यशाली बुझय कि ओकरा अपन किछु सपना छैक आ लड़ैत जं ओ मारल जाय, तं ओकरा समझ मे एहि सं बेसी सार्थकता ओकरा जीवनक आर किछु नहि भ’ सकैत अछि। आजादी कें तखन मात्र पचीस बरस भेल रहै। आजादीक पचीसम बरस सं पैंतीसम बरस धरि के कालक धुकधुकी सुकान्तक कविता मे एलनि अछि।

ओ समय जाहि ठाम, जाहि युगान्तरक घुमान-बिंदु पर छल, जं लंपट नेतातंत्रक नृशंस विजय नहि भेल रहैत तं आइ क्यो कल्पना नहि क’ सकैत अछि जे ई देश कतय रहितय। सुकान्तक कविता एही परिस्थिति सभक उपजा थिक। हुनकर कविताक अस्सल महत्व तखन उद्घाटित हैत जं ओहि समय मे हिन्दी आ बांग्ला सहित आन-आन भाषा-साहित्य मे लिखल कविताक संग ओकरा पढ़ल जाय। कहब जरूरी नहि जे एहि महासंग्राम मे मिथिलोक हिस्सेदारी कोनो कम नहि छल। कते प्रतिष्ठित घरक बेटा अपन शहादत देलक, कते युवा अपन महत्वाकांक्षी पढ़ाइ बिच्चहि मे स्थगित करैत श्रीकाकुलम पहुंचला। बंगाल एकर धधकैत प्रयोगशाला छल आ सुकान्त तहिया बंगालक महानगर कलकत्ता मे रहैत छला।

सुकान्तक कविता मे जलकुंभी लेल अपस्यांत आतंकित वनमुर्गीक रूपक सर्वांगता मे आएल अछि। ई आम लोकक दशा बतबैत अछि। कलकत्ताक सड़क पर तहिया सिद्धार्थशंकर रायक मस्तान के एकच्छत्र राज छल। कोनो कानून नहि, कोनो तर्क नहि, विरोध मे उठाओल गेल एको आबाज स्वीकार नहि। मुख्यमंत्रीक आ कि पार्टीक निजी गुंडा सय-दू सय लोकोक समूह कें बीच सड़क पर मारि क’ राताराती लाश गायब क’ सकै छल। आइ जखन इतिहास अपना कें दोहरा रहल अछि तं हम सब अटकर लगा सकै छी जे केहन ओ समय रहल हेतै। सुकान्तक कविता मे अबैत अछि जे ‘कमला, अहां विस्मृतिक गह्वर मे चलि जाउ/ कमला अहां एना नहि मोन पड़ू।’ कमला हुनक नेनपनक नदी छियनि जकरा संग जीवनक अनेको सुखद प्रसंग जुड़ल छै। ओ अपन प्रेयसीक प्रेम-स्मृति कें अप्रासंगिक बुझैत छथि–‘हे सुनयना,बर्फ गलाब’ बला सूर्य कत’ छै/ कत’ छै ओ आगि जे हमर/ हृदय मे भरल बारूद कें लहका सकय?’ अपना बारे मे खबर उऐह छै जे ‘एहि दारुण शीत मे हम/ एकटा अघोषित युद्ध लड़ि रहल छी।’ आ संकल्प यैह जगैत छैक जे ‘ठामठीम पसरल ओझरायल रेखा सब कें समेटि/ देशक नक्शाक बीचोबीच एक्केटा मोट रेखा खीच दी, आ/ पच्चीस बर्षक अभ्यन्तर लिखल गेल अपन समस्त/ कविता कें कविताक रक्षा मे/ अस्वीकार क’ दी।’

सुकान्त एहि ठाम मात्र अपन कविताक बात क’ रहल छथि। लेकिन हम सब समझि सकै छी जे ओ कुल्लम मृदुल कविता कामिनी विलास के पतन के बात क’ रहल छथि। ओ समूचा मैथिली काव्य-परंपराक निरर्थकताक बात करैत छथि जतय बड़का बड़का महाकाव्य मे बाझल कवि लोकनिक पतक्का फहराइत रहैत अछि आ ओम्हर ‘गामक पोखरि मे महीस सब पहिनहि जकां जलक्रीड़ा करैत रहैत छैक’। हम सब बूझि सकै छी अपन कविता सब मे कविता कें बेर बेर परिभाषित केनाइ हुनका किए जरूरी लागलनि अछि। ओ पौरुषक स्वर चाहैत छथि जाहि सं दुर्गत देश-समाज फेर सं उठि क’ ठाढ़ भ’ सकय। अपना कवि कें ओ ‘अन्हारक खिलाफ आदिम संघर्षक सैनिक’ बतबैत छथि। कहबाक चाही जे सुकान्तक कविता साहित्य आ राजनीतिक, जनवादीक राजनीतिक आत्यन्तिक मिलन विन्दु थिक। आजादीक बाद नेता लोकनि कोन तरहे देशक विकास केलनि अछि तकर कुल्लम हिसाब-किताब सुकान्तक कविता मे भेटि जाएत। देशक स्पष्ट उत्पाद थिक आतंकवादी सत्ता राजनीति। मुदा, सुकान्त लग प्रतिरोध हुनक स्थायिभाव छियनि। हमर ई सोनाकटोरा देश आ ताहि पर एकटा आतंकवादी गैंग कब्जा क’ लेत, आ जकर ई देश छियै तकरा संग एहन व्यवहार करत, एकरा कोना बर्दास्त कयल जा सकै छै, जीताजी तं एकर पुरजोर प्रतिरोध हेतै– सुकान्तक कविता-वाचक एहने सोच राखनिहार एक बौद्धिक युवा थिक, जकर भूमि मिथिला छियै मुदा मिथिला भारत मे अछि आ भारतक दुख सं अपना कें एकात करब ओकरा लेल कोनहुना संभव नहि छैक।

तीन

1984 मे सुकान्तक पहिल कविता-संग्रह एलनि ‘निज संवाददाता द्वारा’। एहि मे हुनकर 31 गोट कविता संकलित छलनि। 1986 मे कुलानंद मिश्रक 7 गोट कविताक संग सुकान्तक 9 गोट कविताक संयुक्त संग्रह ‘भोरक प्रतीक्षा मे’ शीर्षक सं आएल। संग्रहक भूमिका मे मोहन भारद्वाज लिखलनि–‘सुकान्तक कविता विरोध मे ओहि सब बिंदु पर ठाढ़ भेटैत अछि जतय सं शोषण आ मनुक्ख पर लादल यंत्रणाक यात्रा शुरू होइत छैक। अन्तर्विरोधी स्थितिक द्वन्द्व मे जिबैत लोकक व्यथा सुकान्तक कविता मे अपन प्रखरतम रूप मे आएल अछि। ई व्यथा एकटा व्यक्ति, एकटा गाम आ एकटा समाज– सबहक अछि। ओ व्यक्ति, गाम आ समाज देशो मे अछि आ विदेशो मे। ओकर सीमा भूगोल मे नहि, शाश्वत मानवीय स्वभाव मे छैक।’

कहबाक चाही जे मैथिली कविताक भौगोलिक सीमा कें जे कवि लोकनि बढ़ा सकला, ताहि मे सुकान्त सोम सर्वोपरि छथि। से एहि कारणें जे जेना जेना ई सीमा कविता मे बढ़ैत गेल अछि, तेना तेना ओ मैथिली कविताक पाठकोक मानसिक सीमा कें आगू बढ़बैत चलला अछि।

सुकान्तक कविताक कतेको गोट विशेषता सब अछि। एहि सब पर ध्यान देने हुनकर कविक विराटता प्रकट होइत छैक। असल मे, जाहि प्रयोजनक लेल ओ कविता लिखैत छथि, सैह बहुत विशिष्ट अछि। कवि लोकनि जे कविता लिखैत रहला अछि से या तं यश लेल, अथवा अर्थ लेल, अथवा अपन अकल्याण निवारण लेल, अथवा अपन आनंद लेल लिखला अछि। सुकान्तक काव्य-प्रयोजन एहि सब सं बिलकुल भिन्न छनि। ओ जनमुक्ति लेल लिखैत छथि। ई ‘जन’ शब्द बड़े व्यापक, आ पुरानो ततबे। कारण, ऋग्वेद मे सेहो एहि शब्द कें ठीक एही अर्थ मे हम सब प्रयोग होइत देखै छी। जन माने जनता, जकर एक इकाइ हम छी आ कि सुकान्त छथि। मार्क्सवादी लोकनि कें पुछबनि तं कहता जे ‘सर्वहारा’ शब्दक जे अर्थ ठीक वैह नहि छैक, जे ‘जन’ के अछि। सर्वहारा अबैत छैक औद्योगिक मजदूर समुदाय सं जखन कि जन गाम सं अबैत छैक। गामक किसान आ कृषि-मजदूर। सुकान्त मुदा एहि विभाजन कें कत्तहु स्वीकार नहि करैत छथि। हुनकर यैह जन कतहु जं खेत सं सोना उपजाबै छै, तं कतहु फैक्ट्री सं इस्पात, कतहु सियाचीन मे देशक सिमान बचबैत छैक।

भारतक इतिहास मे देखबै जे यैह जन थिक जकरा पर शासन कयल जाइत छैक, आ एहि शासन लेल जानि नहि कतेको तरहक शासन-प्रणाली चलन मे आनल गेल। सुकान्तक समय लोकतांत्रिक प्रणालीक शासनक समय थिक, जकरा बहुत आराम सं बाहुबली लोकनि, बनियां लोकनि, मनबढ़ू नेता लोकनि तानाशाही-प्रणाली मे रूपान्तरित क’ लेलनि अछि। जन के एतय ई हालति छैक जे अंगरक्षकक बूट तर मे ओकर कल्ला दबाएल छै आ ओ रोगाह कुकूर जकां कें कें क’ रहल अछि। वास्तविक स्थिति छैक जे एही जन के निर्माण केने देशक निर्माण होइत छैक आ देश आगू बढ़ैत अछि। मुदा, सुकान्तक कविता मे हमरा लोकनि देखैत छी, आ वास्तविक घटना-चक्र मे तं देखितहि छी जे शासन-संचालनक एहि समुच्चा कर्मकांड मे जनताक लेल कोन्नहु टा स्थान नहि छै। नीति आ योजना ककरो आन कें ध्यान मे राखि क’ बनैत अछि। लाभान्वित ककरो आन कें करबाक मंशा भीतर भरल रहैत छैक, यद्यपि कि कहल यैह जाइत अछि जे एहि सं देश के विकास हेबाक छै। एहि छद्म कें देखार करब सुकान्तक काव्य-प्रयोजन छनि।

मैथिली कविताक भारतीयता एक एहू बात मे निहित अछि जे आने साहित्य जकां एत्तहु नौटा रस छै। एहि नबो रस मे हास्यरस बली कि करुण रस बली, ताहि सम्बन्ध मे हमरा सब लग पुरखा कवि लोकनिक कतेको संस्मरण अछि। मुदा ई रस-शास्त्र सुकान्तक कविता बुझबा मे लेशमात्रो सहायता नहि क’ सकत। हुनका ओइ ठाम एकटा दशम रस भेटत। ओ थिक विक्षोभ रस।

लगातार लगातार के अन्याय आ उत्पीड़न सं ई उत्पन्न होइत अछि। अनीति एकर आलंबन थिक। विरोध केला पर पुलिसक गोली सं मारल जाएब उद्दीपन। सौंसे दिन बरद जकां खटलाक बादो ने निचैनक रोटी, ने मनुक्ख सन के आवास, ओकर आत्मसम्मान लेल शासक-दलक कोनो गत्र मे लेहाजक आभास तक नहि, ओकर बाल-बच्चाक भविष्य लेल दूर-दूर तक कोनो संवेदनशीलता नहि कतहु। एकरा सब कें विभाव, अनुभाव, संचारी भाव– जे कहि लिय’। सुकान्तक कविता पढ़ैत आइ अहां कें लागि सकैत अछि जे रोहिंग्या तं मात्र एक उपाधि थिक जकर निर्णय भूगोल केलकैए, बांकी असली उत्पीड़ित तं एहि देशक ई जन थिक। हुनकर आकलन छनि जे एहि दुर्घट परिस्थिति कें बदलल जा सकैत अछि। आ, अपन जीवनक चरम सार्थकता ओ एही मे देखैत छथि जे परिस्थिति कें बदलबाक चाही। तें हुनकर विक्षोभ आक्रोश सं विद्रोह धरिक अपन समुच्चा प्रक्रिया पूरा करैत अछि।

सुकान्तक कविता-वाचक मैथिली कविताक इतिहास मे एकटा अलगे पहचान ल’ क’ अबैत अछि। ओ ने यात्री जीक वाचक जकां गमैया किसान थिक ने राजकमल चौधरीक वाचक सन दिशाहारा बौद्धिक। जीवकान्तक वाचक जकां ओ सुधांग प्रगतिशील ग्रामीण सेहो नहि थिक। तखन सुकान्तक वाचक केहन थिक? ओ बौद्धिक थिक, कतहु बेसी गंभीर। मुदा ओकरा लेल चिन्तनक ओते महत्व नहि छैक जते पुरुषार्थक। ओ भला लोक मैथिल जकां भुखलो पेट ढकारक देखाबा करैबला नहि थिक। अपन एक-एकटा दुख कें ओ कलमबंद करै छथि जाहि सं सनद रहय। सामंती हमला मे पिताक बारहटा दांत टुटबाक प्रसंग हो कि मायक हुकरब कि भरि दिन खटलाक बादो आधा पेट खा क’ आठ बाय आठ के कोठली मे निन्न बिना बेचैन औनाएब–ओ कथूटा नुकाएब नहि जनैत अछि। एकर स्वाभाविक परिणति थिक नक्सलबाड़ी, भोजपुर। एक ठाम जखन ओ प्रिया कें बिसरि जाइ लेल संबोधित करैत छथि कि कमला कें नै मोन पड़बा लेल बरजै छथि, कि गाम-घर कें बिसरि जयबाक बात करैत छथि तं तकर मर्म मे जेबाक चाही। मिथिलाक माटि पर ओ नक्सलबाड़ीक फसल लहलहाइत देखय चाहैत छथि।

सुकान्तक कविता बहुत प्रौढ़। मैथिली कविता कें रजनी-सजनी बूझि क’ जे लोकनि एहि ठाम ढुकय चाहता, सुकान्तक कविता एहन लोक कें बैरंग आपस हेबा लेल बाध्य क’ देत। हुनकर जाबन्तो कविता दोहारा बान्ह के कविता सब थिक जाहि मे एक्कहि संग अनेक स्तर चलैत रहैत छैक। चित्र दर चित्र, विचार दर विचार अबैत छैक। शैली जे कहबै जे एकटा कोनो पकड़लनि आ समुच्चा कविता लिखि गेला, सेहो नहि। अक्सरहां कविताक आवेग अपना लेल बीच मे जा क’ अपन अलग शैली अख्तियार क’ लैत छैक। सौन्दर्यक पारखी सेहो ओ अलबत्त। हुनका ओतय ‘जुआन बांसक कोपड़ पर लुबधल चम्पइ रौद’ अछि तं कतहु ‘धान कटल खेतक सोन्हगर गंध मे मातल’ ‘एकटा हाक केराउ आ तीसी फूलक मेहराव दैत अछि’। हुनकर कविता मे जे आवेग आ लय अछि से तते लस्सेदार जे मानू अगिला बिंब-समूह कें तं घिचि-घिचि आनिते अछि, ओकर लस्सा पाठकक मन धरि पसरि जाइत छैक, जं ओ कविता मे एक बेर प्रवेश क’ गेल हो तं। ताहू पर सं कबीर टाइप के खिलंड़ापन। आ, बुझौअलि बुझेबाक गंहीर आ मारक कलाकारी से ठामठीम जगजगार।

हुनकर कविता ने जीवकान्तक कविता जकां एकहारा छनि ने उदयचंद्र झा विनोदक कविता जकां वर्णनात्मक। ओइ ठाम चित्र दर चित्र अबैत छैक जे अंत मे जा क’ एकटा निस्सन कथ्य मे निमज्जित होइछ। एहि सभक कारण हुनकर कविता भरल-पुरल, गज्झिन स्वरूप बनबैत अछि। एकटा स्तर विचारक रहैत छैक जे समुच्चा चित्र कें गतानने रहैत छैक, एकतान एकलय बनबैत छैक। स्वाभाविक थिक जे एहि सब कथूक अपन जटिलतो छैक। ई जटिलता तखन आरो बढ़ैत अछि जखन ओ सामयिक राजनीति पर अपन कोनो रूपक रचैत छथि। कोनहु ठाम नगर भरि मे एकटा जंगली चीताक हरबिरड़ो रहैत छैक, तं कतहु मुइल हाथीक मांसक लोभी गिद्ध समुदायक बीच तीन दांतवाली एकटा बुढ़ियाक प्रवेश होइत छैक। तें अहां अक्सरहां महसूस करब, सुकान्तक कविता अपन पाठक सं नव पात्रता, नव रसज्ञताक अपेक्षा करैत रहैत छैक।

सुकान्तक कविता मे भेटैत अछि जे देशक भीतर एकटा युद्ध चलि रहल अछि। जं ई जन अपन वाजिब रोजी, अपन आत्म-सम्मान आ अपन स्वतंत्रता लेल बेगरतूत अछि तं ई युद्ध अवश्ये अवश्यंभावी थिक। कोन युद्ध थिक ई? निश्चिते गृहयुद्ध थिक। कवि स्वयं अपनो एहि युद्ध मे शामिल छथि। अपन कविता सब मे जे हुनका हम सब बजैत सुनैत छी, ओ बाजब एकटा सामान्य बाजब नहि, एकटा सामरिक चुप्पी कें बीच मे राखि क’ बाजब थिक। ओ कहैत छथि, ‘महाश्मसान बनल ई देश हमर नहि भ’ सकैत अछि/ जल्लाद सभक ई देश हमर नहि भ’ सकैत अछि/ जोआन आकृति कें तेजाब सं जरा देब’ बला ई देश हमर नहि भ’ सकैत अछि।’ तखन, कोन देश अहांक देश थिक कवि? ओ कहैत छथि, ‘आब आवश्यक जे/ ठामठीम पसरल ओझरायल रेखा सभ कें समेटि/ देशक नक्शाक बीचोबीच एक्केटा मोट रेखा खीच दी।’ जखन ओ कहैत छथि जे ‘माय-बाप बेटाक जन्म मात्र ऊके लगाब’ लेल नहि दैत छै’ आ ‘पति मात्र ओछाओनेक साझीदार नहि होइत छैक’ तं कहय असल मे ओ यैह चाहैत छथि जे एहि जनयुद्ध मे भागीदार होयबे मनुष्यताक चरम अहोभाग्य थिक। ओ अपनो एहि युद्ध मे शामिल छथि। हुनक रणनीतिक आकलन छनि जे जनता जीतत आ वास्तविक स्वतंत्रता जरूर एहि देश कें नसीब हेतै। ओ कहैत छथि, ‘मौसम आबि रहल छै/ सभ किछु फरिछा जयबाक/ गाछ मे झूलैत पातक/ पयर तर दबाइत पातक/ अंकुरस्थ पातक/ स्थिति फरिछा जयबाक/ मौसम आबि रहल छै।’ हुनक स्पष्ट आकलन छनि जे जनता अपन युद्ध लड़ि क’ ई देश अवश्य बचाओत।

चारि

अपन कविता मे एकठाम ओ अपन देशक आजादी कें ‘एकटा चौंतीसवर्षीया भोतिआएल राजनीति’ कहलनि अछि। तखन देखबै जे हुनक कविता सब मे टुटैत गामक पीड़ा आ मुक्त बाजारक मायाजालक अनेक चित्र सेहो आएल अछि। एक ठाम कहैत छथि, ‘हमरा लोकनि अपन रचनात्मक मूल्य कें/ बेसी सं बेसी दाम मे बेचबाक लालसा मे/ प्रतिदिन व्यापारिक संघ सभ सं अपील कइये रहल छी/ युग सौदेबाजीक थिकै।’ एक ठाम सामाजिक सरोकारक मादे कहैत छथि जे ‘हमरा लोकनि परचर्चा मे लीन/ अपन दियादक मथदुक्खी सं आनंद मे बाझल रहि जाइत छी।’ एकठाम कतहु एहनो संकेत दैत छथि जे भारतक राजनीति आ नेतागिरीक कारण भारतीय मनुष्यता मे कतेक ह्रास भेल अछि। सुकान्तक काव्य-प्रवृत्ति कें देखैत कौखन प्रश्न उठैत अछि जे ई सब आखिर की थिक? ई सब थिक आजादीक आदर्शक पूर्णत: ध्वस्त हेबाक निशानी। आजादी नामक जे युवती चौंतीसेक उमेर मे उढ़रि गेल छल, से सत्तरि सालक बुढ़ियाक रूप मे आइयो कोना आ किए नरक भोगि रहल अछि? एहू प्रश्नक उत्तर सुकान्तक कविता मे भेटि सकैत अछि। एकटा सही कविता अपना कविता-समयक समस्त जटिलता अपना भीतर नुकौने रहैत अछि।

इमरजेन्सीक कालखंडक लिखल हुनकर कविता सब मे सत्ताधारी आतंकक चित्र सब तं अयबे कयल अछि, तकरा संग-संग राजनीतिक महाधूर्तइक बिंब सेहो आएल अछि। ओतय आजादीक आदर्श कें चालाकी सं पृष्ठभूमि मे ठेलि देबाक चतुराइ छैक। सरकार अपन पल्ला झाड़ि लेलक, बुझू। धर्मक राजनीति, अस्मिता-विमर्श, मुक्त बाजार, भूमंडलीकरणक स्वागत– ई सब की थिक? यैह सब तं विकास थिक। जे आजादी हरेक आंखिक सपना बनि क’ एक दिन उतरल रहय, हरेक हाथक लेल काज हरेक नागरिक लेल आत्मसम्मानक वचन उचारैत, हरेक हृदय मे ई आसभरोस जगबैत प्रकट भेल छल जे ‘जे काजुल से भरिपेट खाएत/ ककरो नहि बड़का धोधि होएत’, तकरे रक्षक संवैधानिक, जनकल्याणकारी सरकार आइ पूरा आत्मविश्वासक संग आंकड़ा गनबैत अछि जे पकौड़ा बेचब आ कि ओला-ऊबर चलाएब तं सेहो रोजगार थिक।

एहना मे तं उचिते जे सुकान्तक कविता असमाप्त लगैत अछि। से ठीके असमाप्त अछि, कारण ओ युद्ध असमाप्त अछि। ओ अपनहु गछने छथि। हुनक ‘प्रतीक्षान्त’ कविताक समापन पंक्ति छनि–‘बेरंग बुर्ज सभक दोहाइ दैत हमरा लोकनि/ कखनो बोकारोक विस्फोट मे/ कखनो चासनालाक बाढ़ि मे/ कखनो बंगोपसागरक चक्रवात मे/ कखनो लद्दाख आ कच्छक रण मे/ मारल जाइत छी/ सभ दिन सभ ठाम/ प्रतिवादविहीन/ मीत हे, हमरा लोकनि एखनो/ एहि चैती बसात मे प्रतीक्षारत छी कि/ क्यो तं आबय आ/ एहि खरायल कासवनक निरंग होइत आकाश मे/ एकटा रंग पसारय/ भ्रम आ सपना कें फरिछाबय/ क्यो तं आबय।’

साइत अपना युगक हरेक जिम्मेदार कविता अनागतेक आवाहन सँ समाप्त होइत हो।

डॉ. तारानंद वियोगी