वर्तमान सभ्यता और रचनात्मकता : गुंजन श्री

नमस्ते!
सभागार में उपस्थित सभी बन्धु/बान्धवी आपको यथोचित अभिवादन।

बन्धु,
आप जानते हैं कि आज दुनिया में कई सभ्यताएं चल रही हैं। और समग्र रूप से आज के वर्तमान सभ्यता का कोई आधिकारिक नाम नहीं है। आमतौर पर इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द “वर्तमान सभ्यता” है। मानव इतिहास की वर्तमान अवधि, जो औद्योगीकरण के कारण प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ शुरू हुई, को अधिक सटीक रूप से ‘पूंजीवाद’ या ‘पश्चिमी सभ्यता’ कहा जा सकता है क्योंकि कई गैर-पश्चिमी समाज वर्तमान में औद्योगीकृत हैं। यह सही है की भारत में विकसित कई सभ्यताएं लगभग शेष हो चुकी है, जैसे हड़प्पा या वैदिक सभ्यता। परन्तु तब और अब की सभ्यताओं में कुछ मूलभूत अंतर है। हड़प्पा जैसी पुरानी सभ्यता जो कि लगभग 5000 साल से ज्यादा पुरानी जिसे (अलग-अलग पुस्तकों में इसकी प्राचीनता भिन्न है) सिंधु घाटी की सभ्यता भी कहते हैं। यह एक अत्यंत विकसित सभ्यता थी और अनेको बार अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्षशील रही है। कई बार लगा की यह सभ्यता अब अपनी अंतिम दौड़ में है, लेकिन इसका अंत नहीं हुआ। भारत में प्रथम नगरीकरण का श्रेय भी इसी सभ्यता को है। इस सभ्यता का अंत कैसे हुआ यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। परन्तु ऐसा माना जाता है की वाह्य आक्रमण, प्राकृतिक आपदा, किसी तरह की महामारी ही इसके लिए जिम्मेदार रही होगी। या ये भी कि जिसको आना है उसका जाना तय है।

वैदिक काल से लेकर आज तक कि जो ईश्वर की यात्रा रही है वो अद्भुत है। प्राचीन समय मे ईश्वर आसमानी थे। मतलब लोग ये मानते थे कि ईश्वर कहीं दूर आसमानों के पार हैं जो सबको देख-परख रहे हैं। फिर धीरे-धीरे युग बदला और ईश्वर का मानवीयकरण हुआ। जैसे- राम, कृष्ण, आदि-आदि। ईश्वर की ये धार्मिक-यात्रा कई मायनों में अद्भुत रही। वे मनुष्यों के बीच आये और मनुष्योचित व्यवहार किया। लेकिन फिर युग ने बदला खुद को और धार्मिक यात्रा, ईश्वर के कथित अनुयायियों के द्वारा उन्माद में बदलती गयी। जिस भाव और मार्ग का निर्माण शांति के लिए हुआ था उससे उन्मादी आने लगे। अक्सर मैं ये सोचता हूँ कि इन सब कारणों से वर्तमान सभ्यता आगे गयी या पीछे? जहाँ भी गयी हो, ये एक अलग ही विमर्श को आमंत्रित करती है लेकिन इन सब परिस्थिति में एक रचनाकार की क्या जिम्मेदारी बनती है? क्या कहती है लेखक कि रचनात्मकता?

वर्तमान सभ्यता अभी अपनी प्रारंभिक अवस्था में है। अभी तो आधुनिकीकरण की शुरुआत हुई है । फिर यह सभ्यता अपने मध्य अवस्था में पहुंचेगी उसके बाद इसके अंत में कोई और नई सभ्यता इसका स्थान लेगी। मशहूर शायर राजेश रेड्डी कहते हैं —

“जो नया है वो पुराना होगा,
जो पुराना है नया था पहले”

एक रिसर्च और आज के मशीन बेस्ड जीवनशैली को देखते हुए मुझे लगता है कि अगली आने वाली सभ्यता ‘मशीन युग’ के नाम से जानी जाएगी । या फिर इंसानी सभ्यता शांति की तलाश में वापस वैदिक युग की तरफ लौट जाएगी। पहले के सभ्यताओं के दौर में संचार क्रांति ना होने की वजह से उनका आपस में किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रहता था। परन्तु आधुनिक युग की सबसे बड़ी देन यही है। कनेक्शन!

आधुनिकीकरण की यह हवा अभी यूरोप, अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशो में तो विकसित हो चुकी है परन्तु अभी सम्पूर्ण विश्व में इसका विकास बाकी है। भारत जैसे देश में अभी इसने पैर फैलाना शुरू किया है। छोटे शहरो और गांवो ही आज भारतीय सभ्यता और संस्कृति है। लेकिन वहाँ के मौसम में भी पाश्चात्य सभ्यता के झोंके देखे जा सकते है। ऊँची एड़ी की सैंडिल पर संभल कर चलती छोटी लड़कियाँ, बीयर की शॉप पर मॉडल लड़के, पाउट वाली सेल्फी, डूड और ब्रो जैसे शब्दों के साथ ही फेसबुक और व्हाट्सअप पर अपडेट होती स्टेटस को देखकर लगता है वह दिन दूर नहीं जब वीडियो कॉलिंग से ही बहन, भाई की कलाई पर राखी बांधेगी और बेटा आजकल के कथित प्रेम विवाह के बाद फेसबुक पर फोटो लगाकर माँ-बाप और दूसरे रिश्तेदारों को टैग करेगा। मैथिली के लेखक डॉ. कमल मोहन चुन्नू अपने एक शेर कहते हैं —

“कोन बसात सिहकलै जनमारा पछबा,
गामक गाम रोगाह लगैयै, की बाजू!”

कहते हैं कि ‘Culture is what we are and civilization is what we make.’ हम जो हैं, जैसा बने हैं वह हमारी संस्कृति है और खुद बनने के दौरान हमने जो चीजें बनाई जैसे भवन, सड़क, स्कूल, कपड़े, मशीन ये हमारी सभ्यता है। इसलिए सभ्यता खत्म होने की बात तभी होगी जब पूरे भारत में एक साथ आपदा या प्रलय आ जाये। सभ्यता के साथ इसके जुड़वा जैसी ‘संस्कृति’ आती है। युग्म हैं दोनों। संस्कृति को मैं जीवन जीने की विधि मानता हूँ। मतबल एक पैटर्न; जीवन जीने का रिफाइंड पैटर्न। जिसमें हम सोचते हैं और काम करते हैं। इसमें वे चीजें भी शामिल हैं जो हमने एक समाज के सदस्य के नाते उत्तराधिकार में प्राप्त की है। जैसे- जो कपड़े हम पहनते हैं, जो हम खाते हैं, जिस भाषा को बोलते हैं या जिस धर्म को मानते हैं ये सभी संस्कृति के ही पक्ष हैं। संस्कृति हमारे जीने और सोचने की विधि की अभिव्यक्ति है। संस्कृति के दो उपभाग भौतिक और अभौतिक है। भौतिक पक्षों में हमारी वेशभूषा, भोजन, घरेलू सामान आदि हैं और अभौतिक संस्कृति का संबंध हमारे विचारों, आदर्शों, भावनाओं और विश्वासों से है।

प्रसिद्ध इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी को सभ्यताओं के अध्ययन में सबसे अग्रणी और मानक नाम माना जाता है, ऐसा गूगल कहता है। उनके अनुसार 30 प्रमुख सभ्यताएं हैं। जिनमें —
• 5 जीवित
• 16 विलुप्त
• 4 अवर्द्धित (aborted)
• 5 अवरूद्ध (arrested)

और 5 जीवित सभ्यताओं में —

  • पश्चिमी ईसाई सभ्यता
  • ऑर्थोडॉक्स ईसाई सभ्यता
  • इस्लामिक सभ्यता
  • हिन्दू सभ्यता
  • सुदूर पूर्वी सभ्यता (Far Eastern Civilization )

अब थोड़ी बात रचनात्मकता पे करते हैं। रचनात्मकता का मतलब है, पारंपरिक विचारों, नियमों, पैटर्न, रिश्तों, रूपों, तरीकों, व्याख्याओं आदि को बनाने की क्षमता। यह किसी व्यक्ति या प्रक्रिया की एक विशेषता है जो कुछ नया रचती है। ओशो कहते हैं कि- ‘रचनात्मकता सामान्य से परे जाने की एक अलौकिक क्षमता है।’ यह एक महत्वपूर्ण आर्ट है जो आपको ‘बॉक्स के बाहर सोचने’ की अनुमति देता है। मैथिली के एक दिवंगत लेखक श्याम दरिहरे जी ने एक बार मुझे कहा था कि ‘कभी ये सोचना कि तुम्हारे उम्र के हजारों-लाखों युवा हैं इस देश मे लेकिन क्यूँ तुम्हें ही या तुम्हारे ही समानधर्मा व्यक्ति को वो सब दिखता या मिलता है जो एक सामान्य से अलग हटकर है।’ मैं अब समझ पाता हूँ कि रचनात्मकता सामान्य से परे जाने की क्षमता है। और सच में यह एक आर्ट है जो आपको “बॉक्स के बाहर सोचने या करने” की अनुमति और दृष्टि देता है। हम अक्सर रचनात्मकता को कला तक ही सीमित मानते हैं, लेकिन यह तो जीवन के सभी क्षेत्रों में एक आवश्यक तत्व जैसा है। आप सोचें कि अगर माताएं भोजन बनाते हुए अगर रचनात्मक ना हो तो आप कैसे जीवित रह पाएंगे!, सड़क के डिजाइन बनाने वाले अगर डिजाइनिंग के समय क्रिएटिव होकर ना सोचें तो कैसी होगी लम्बी-लम्बी यात्रा इतने सुगमता से? तो ये कह रहा था कि रचनात्मकता जीवन के समानधर्मा है; जीवन है, तो ये भी है।

कई महत्वपूर्ण शोध-पत्र प्रमाण देते हैं कि हरेक आदमी अपने ढंग का एक अलग रचनात्मक मनुष्य है। समस्या ये है कि हम गिलहरी से तैरने कि उम्मीद लगायें हुए बैठे रहते हैं या फिर शार्क से दौड़ने की। अमूमन स्कूल या कॉलेज में, जो लोग अच्छी कहानी लिख सकते हैं या सुंदर चित्र बना सकते हैं, उन्हें विशेष रचनात्मक माना जाता है। कभी किसी ने नहीं कहा या सुना होगा कि दिन भर घुमने वाले बच्चे के भीतर एक उम्दा यात्री होने की संभावना है। इस दुनियाँ मे कई ऐसे लोग हैं जिन्हें हम मात्र उनकी यात्राओं के लिए याद रखे हुए हैं। जैसे कि- फाहयान, कोलंबस, आदि-आदि। अभी जो दुनियाँ है, इतनी बड़ी, इसकि भी खोज किसी यात्री ने ही की। उन्हीं सबों के यात्रा के कारण हम कनेक्ट हुए। तो हमने गुनाह ये किया कि संभावना ही नष्ट कर दी हमने। क्या ऐसा कारण है कि यहाँ बैठे जितने भी लोग अपने जीवन में जो भी सुख-सुविधा या सुगम जीवन के लिए जो भी वस्तु प्रयोग करते हैं उसमें से ज्यदातर चीजों को हमने अविस्कृत नहीं किया है। ज्यादातर अविष्कार पश्चिम में हुए। पश्चिम के अपने यात्राओं में देखा है मैंने कि वहाँ जो भी जो करना चाहे वो कर पता है। उसकी वैल्यू है वहाँ। हम क्यूँ नहीं करते क्यूँ क्यूँकी हमने संभावनाओं पे काम ही नहीं किया। संभावना ही नष्ट कर दी हमने अपने अनुभव और जजमेंट को अपने बच्चों पे जबरदस्ती थोप कर। और जहाँ संभावना नहीं है वहाँ रचनात्मकता कितने दिन तक आश्रय पाएगी ?

आप जानते हैं कि मशहूर जनरल सिस्टम साइंटिस्ट जॉर्ज लैंड ने 1968 में एक परीक्षण किया था। परीक्षण से एक बात निकल के आयी कि गैर-रचनात्मक व्यवहार सीखा जाता है जबकि रचनात्मक व्यवहार जन्मजात गुण है मानव में। मतलब ऑटो-इन्सटाल्ड। हुआ यूँ कि जॉर्ज लैंड ने कुछ बच्चों पर अलग-अलग उम्र में एक रचनात्मकता परीक्षण किया था। ये उन्होंने नासा के लिए वैज्ञानिकों और इनोवेटीभ इंजीनियरों के चयन करने के लिए आयोजित किया था। आपको पता है परिणाम क्या आया था उनके परीक्षण का?

5 साल के बच्चों में रचनात्मकता 98% थी, 10 साल की उम्र तक पहुंचने पर यह घटकर 30% हो गई थी और जब 15 साल की उम्र में उनका फिर परीक्षण किया गया तो यह केवल 12% थी। और सबसे आश्चर्यजनक बात ये थी कि जब यही परीक्षण 280,000 वयस्कों पे किया गया, तो रचनात्मकता केवल 2% थी।

तो सवाल ये है कि क्या कारण है कि वयस्कों में बस इतनी ही रचनात्मकता थी? क्या लगता है आपको ? मुझे लगता है कि तथाकथित सभ्य और बुद्धिमान होने के नियम और कानून मूल रूप से रचनात्मकता को ख़त्म करते हैं। हमारी स्कूल प्रणालियाँ आम तौर पर कल्पना करने वाले, स्वप्न देखने वाले जैसे मनुष्य को अयोग्य होने के श्रेणी मे रखती हैं। वे सभी गुण जिनके बारे में महान दिमाग कहते हैं कि वे उनके सबसे क्रांतिकारी विचारों की key-पॉइंट थे। हमारा एजुकेशन सिस्टम अक्सर हमें अलग तरह से सोचने के लिए नहीं, बल्कि निर्देशों का पालन करने और यथास्थिति का पालन करने की सीख देती हैं। जिस बच्चे को साहित्य पढ़ने मे आनन्द आता है वो क्यूँ बनेगा एक अच्छा इंजीनियर? या कि उसे क्यूँ बनना चाहिए? क्यूँ हमें मानव से मशीन बनाते रहना है? क्या मशीन कोई रचनात्मक काम कभी कर पाएगी? जाहिर है नहीं करेगी । मैं समझता हूँ कि यही कारण है कि वर्तमान सभ्यता में रचनात्मकता का तेजी से ह्रास होता जा रहा है।

आज के समय में रचनात्मकता (creativity) को लगभग ‘इंस्टेंट आइसोलेटेड इवेंट’ मान लिया गया है। जबकि ये एक सतत और लगभग दीर्घकालिक प्रक्रिया है। जो भीतर कहीं बहुत गहरे मे अपने आतंरिक सांगीतिक रिदम पे चलते रहती है। मैं समझता हूँ कि क्रिएटिविटी कभी भी इंस्टेंट इवेंट नहीं हो सकती है। हाँ, इसका प्रकट होना जरुर इंस्टेंट होगा। लेकिन इन इंस्टेंट प्रकट होने कि क्रिया के भीतर एक गहरी और स्वभाव से शांत नीयत से अशांत मन तथा विचार होना चाहिए। तो मैं ये कह रहा था कि इंस्टेंटली आप सिर्फ कॉफ़ी या मैग्गी ही बना सकते हैं; क्रिएटिविटी नहीं।

आज के समय में, मतलब कि 2024 के दशक में टेक्नोलॉजी और इन्टरनेट हमारे जीवन के हरेक अंग मे दखल रखते है। आप बस यहाँ बैठे-बैठे कल्पना करें कि कुछ ऐसा हो कि एक घंटे के लिए इस दुनियाँ से इन्टरनेट शट-डाउन हो जाए तो हमारे दैनन्दिनी जीवन पे इसका क्या असर होगा! आप जानते हैं कि आपको कितनी मुश्किलें होंगी रोजमर्रा के जिन्दगी में!

तो मैं ये कहना चाहता हूँ कि टेक्नोलॉजी ने हमें सुविधाएँ तो दी हैं लेकिन इसके बदले जो लिया है इसमें, वो जरुरत से ज्यादा ले लिया है। हमारी रचनात्मकता लगभग शून्य कर दी है इसने।

आपको याद होगा कि एक ज़माने मे लोग चिट्ठीयाँ लिखा करते थे। कई लेखकों के पत्र-संकलन प्रकाशित हैं और प्रशंसित भी। आप देखें कि उनमे कितने उम्दे धन ढंग से रचनात्मकता आयी हैं। एक अद्भुत-अनजाना आदमी सामने खुलता है आपके, जब आप उनके पत्रों को पढ़ते रहते हैं। फिर समय बदला और हम ईमेल लिखने लगे। क्रिएटिविटी का क्षरण तो हुआ, लेकिन चल सकता था। आज हो ये रहा है कि हम Chat-GPT को बोलते हैं कि मेरे लिए ईमेल लिखो। लगभग सारे काम आज AI कर रहा है।

मैं पेशे से इंजिनियर हूँ। मैंने अपने प्रोफेशनल लाइफ में देखा है कि कैसे मशीन को मानव के समकक्ष में लाने के लिए डेटा-इंसर्शन किया जाता है। इसको अगर गौर से देखेंगे तो समझ सकेंगे कि जिस दिन मशीन मानव के समकक्ष लगभग आ जायेगा तो दुनियाँ का इंटेलीजेन्स एक ही जगह पे घूमता रहेगा। ये बात अलग है कि इतने बड़े अमाउंट में डेटा को सर्कुलेट किया जायेगा कि आपको लगेगा कि ये हमारे लिए परफेक्ट प्रेडिक्शन है।

आज पूरे दुनियाँ में पर्यावरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। यहाँ तक कि पश्चिम में CliLit नाम से साहित्य में एक अलग ही जोन है, जो मूल रूप से पर्यावरण से सम्बंधित साहित्य के लिए प्रयुक्त होता है। कई पर्यावरणविद बताते हैं कि साल 2050 तक जल लगभग समाप्त हो जायेगी। लेकिन हम ट्रिलियन इकॉनमी बनाने के चक्कर में फिर भी वही कर रहे हैं जो कि करना नहीं चाहिए। मैं समझता हूँ कि रचनात्मकता बरक़रार रहे इसके लिए व्यक्ति को प्रकृति से निकट होना आवश्यक है। कई ऐसे लेखकों का उदाहरण है हमारे सामने।

तो जब प्रकृति और पर्यावरण ही नहीं बचेंगे तो फिर AC कमरे में बैठ कर एवेरेस्ट की खूबसूरती कैसे लिखेंगे? और अगर लिख भी लेंगे तो शब्दों में प्राण कहाँ से आयेगा?

साफ़-सुथरी दिख रही चीजों के पीछे जो चेतना या व्यक्ति का खुरदरापन है वहीँ असल में रचनात्मक है। लेकिन हमारी वर्तमान सभ्यता तो खुरदरे होने को लगभग असभ्य मानती है। फिर कैसे बचायेंगे रचनाकार अपनी रचनात्मकता? साफ़-सुथरी चीजें फिसलन लिए होती है अमूमन; लेकिन रचनात्मकता दीर्घ टिकाव का आश्रय चाहती है।

आप सब जानते हैं कि सभ्य होने के दीर्घकालिक यात्रा को ही सभ्यता कहते हैं। लेकिन हजारों वर्षों कि इस यात्रा के बाद भी क्या हम सभ्य हैं? अगर हैं तो फिर क्यूँ बार-बार जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर, नस्ल के नाम पर या फिर क्षेत्र के नाम पर हमारी आदिम बर्बरता निकल आती है बाहर? और इन सबके बीच अगर किसी कि जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है तो वो हम-आप जैसे रचनाधर्मी लोगों की है। हमें ये तय करना होगा कि अपनी रचनात्मकता को बचाकर विपरीत परिस्थिति में भी दुनियाँ को कैसे सुन्दर बनाये रखना है। वर्तमान सभ्यता में सबसे सुन्दर जो है, वो है इसका लोकतान्त्रिक होना। अभी लगभग पूरी दुनियाँ लोकतान्त्रिक प्रक्रिया से चल रही है। ये आज से पहले शायद ही कभी हुआ हो। लेकिन हमें ये भी सोचना होगा कि क्या इस सुन्दर प्रकिया कि सुन्दरता बरक़रार है आज के सन्दर्भ में? है तो क्यूँ नहीं है, नहीं है तो क्यूँ नहीं है? हम रचनाकार क्या कर रहें हैं दुनियाँ के लिए? क्या हम अपनी जिम्मेदारी समझ पा रहे हैं ?

तो ऐसे वर्तमान मे हम कैसे अनुभव करेंगे उन अनुभूतिओं को जिनमें कहा गया है कि- “मैं निपट अकेला, कैसे बचा पाउँगा तुम्हारा प्रेम-पत्र?”

मुझे लगता है कि जीवन के किसी भी क्षेत्र में अंततः जीवन के लिए सिर्फ रचनात्मकता की ही आवश्यकता है। लोग रचनात्मक ही जन्म लेते हैं नैसर्गिक रूप से, बस जिन्हें सही वातावरण मिलता है वे अपने इस जन्मजात गुण का उपयोग दुनियाँ को थोड़ा और सुन्दर बनाने में करते हैं।

मैं मानता हूँ कि दुनियाँ को किसी ‘कविता’ जितनी सुन्दर होनी चाहिए और ये काम सिर्फ रचनाकार कि रचनात्मकता ही कर सकती है।

आप अपने रचनात्मकता को कैसे बचायें ये मैं आपके ही क्रिएटिविटी पे छोड़ते हुए आपसे विदा होता हूँ। आपने मुझे सुना, आभारी हूँ। आभारी उन सभी का भी हूँ जिनके कारण इस अवसर को मैं उपलब्ध हो पाया। नमस्ते!

Content Courtesy:

  1. Study of History – Arnold Toynbee
  2. Machine Learning and AI
  3. Google.com
  4. Qura.com
  5. Creativityworkshop.com
  6. Poetry Foundation
  7. NASA creativity test by George Land

ई लेख भारतीय भाषा परिषद् मे देल गेल हमर व्याखान थिक। पछाति ई व्याख्यान लेख स्वरुप मे परिषद्क मासिक हिन्दी पत्रिका ‘वागर्थ’क जून २०२४ अंक मे प्रकाशित भेल।