पनरह किलोमीटरक बाट पार कयलाक बाद राम पदारथ पाठकक मोन बन्हयलनि। भरोस भेलनि जे मित्रक जन्मदिनक आयोजनमे समय पर उपस्थित भ’ सकताह। अगिला दू दिन छुट्टी छनि। तेँ ओहि दिन आधा दिनक बाद औफिस सँ बहरा गेल छलाह। साहेबक मूड नीक छलनि मने। तेँ हुनका छुट्टी द’ देलखिन। मुदा, अपन हिस्सकक अनुसारे कहिए देने रहथिन जे औफिसक काज सभ ओरिया क’ जाथि।
ओ साहेब केँ कहने रहथि जे सभ सोझरायले छनि। आनन्द बाबूक फेयरवेल लेल सेहो सभ ब्योंत भ’ गेल छनि। अफसोचक बात ई जे फेयरवेल मे ओ नहि रहि सकताह। ताहि पर साहेब कहने रहथिन, “अहाँ केँ रहब आवश्यक छल। अहाँ औफिस मैनेजर छियै। ई सभ अहीं केँ देखबाक चाही।”
“से बूझै छियै सर। संयोगे बुझल जाय जे सविता मैम अपन गाड़ी सँ जा रहल छथि। तेँ हमहूँ प्रोग्राम बना लेलहुँ। सभ बेर मित्र बजबैए जन्मदिनक आयोजन मे, मुदा जा नहि पबैत छी। एहिबेर सुयोग लागल तेँ सोचलहुँ जे भ’ ली।”
सविता मैडमक नाम सुनि साहेब ल’त भेल छलाह।
राम पदारथ सोचैत छलाह। मित्र ओकरा देखितहि भरि पाँज ध’ लेतैक आ कहतैक, “आजुक आयोजन तोरा अयने महत्वपूर्ण बनि गेल।”
सोचैत छलाह राम पदारथ। आब जन्मदिन मनयबाक चलनसारि बढ़लैए। सोशल मीडिया जन्मदिन केँ लोकप्रिय बनौलकैए। जकरो ने कहियो सुनथि, तकरो जन्मदिनक फोटो फेसबुक पर देखैत रहैत छथि। पछिला साल गाम मे रहथि। गामक एकटा पित्ती बुचकुन पाठक केँ पुछलनि, “कक्का यौ! फेसबुक सँ पहिने जन्मदिन बुझल छल?”
“बुझल की रहत?” बुचकुन बजलाह, “जे ने करय पोता-पोती सभ। वैह सभ मनबै छै। हमरा त’ अंग्रेजी तारीख नहि बुझल अछि, मुदा फेसबुक पर यैह सभ एकटा राखि देलकैए।’
” माने ई ओरिजनल नहि भेल?”
“हौ पदारथ! ओरिजनल की आ डुप्लीकेट की? जनमदिन मनाब’ मे खर्चे की लगै छै। धिये-पुता सभ केक पठा दैए। बस, सैहटा खर्च। बांकी फोटो-फाटोमे कोनो खर्चे ने। यैह सभ खीचै छै आ बिलहै छै।” हँसैत बजलाह, “केक थोड़े बिलह’ पड़ै छै? ओ त’ अपने परिवार खयलहुँ। बदला मे ओत्ते लोकक लाइक-कमेन्ट भेटै छै। शुभकामनाक प्रभाव त’ नीके ने होइत हेतै। हौ, गाम मे कोनो नीक काज उपस्थित होइ तखन ने नीक धोती-कुरता पहिरी। केक काट’ लेल नीक जकाँ तैयार होइ छी। ई सभ नीक लगै छै हौ। तोँ सभ त’ सरकारी नोकरी करै छह। मनबिते हेबह जनमदिन।”
“नहि, हम नहि मनबै छी। ओना आब बहुत औफिस मे कर्मचारी सभक जन्मदिन मनाओल जाइ छै।”
“अएं हौ पदारथ! तोँ कहियो केक काटलह अछि?”
“नहि। हमरा नहि सोहाइए।”
“हौ, फेसबुक के कारणे हमरा काट’ पड़ैए। मुदा, हम मोमबत्ती पर फूक नहि मारै छी।”
“से किएक?”
“जानि नहि किएक? पहिने कहि दै छियै जे बरैत मोमबत्तीक फोटो खीचि क’ राखि ले। तकर बाद खाली केक कटैत कालक फोटो खीच। तहिना करै जाइए।”
“कक्का! ई सभ त’ नीक लगैत हैत?”
“नीक की? तखन, फील गुड होइए हौ, फील गुड।”
पछिला बर्ख औफिस मे राम पदारथक जन्मदिन मनाओल गेल रहनि। केक त’ नहि रहै, औफिसक कर्मचारी सभक समक्ष सेलेब्रेशनक टौफी आ गुलदस्ता दैत साहेब शुभकामना देने रहथिन। अपन सीट पर अयलाह त’ एकटा कर्मचारी पूछि देलकनि, “अजुका ओरिजनल अछि कि डुप्लीकेट?”
राम बहादुर केँ अपगरानि भेल रहनि।
गाड़ी बढ़ि रहल छल। मोबाइलक घंटी सँ तंद्रा टुटलनि। हेलो कहितहि साहेबक स्वर सुनलनि, “अहाँ केँ कथुक होस रहैए कि नहि?”
“से की भेलैए सर?”
“की नहि भेलैए?” साहेब बजलाह, “फेयरवेल लेल जलखैक व्यवस्था की भेलै? ई ककरा करबाक छलै। एखन सभ किछु भेलाक बाद जलखै बेर मे कोनो व्यवस्थे नहि। की क’ क’ गेलियै। खाली अपने काज सुझैए। औफिसक एहन बदनामी आइ धरि नहि भेल हेतै।”
राम पदारथक कंठ सुखि गेलनि। तथापि बजलाह, “सर, असल मे बात रहै जे विजय सर सभ कथू कयलनि। चन्दो वैह असूलि क’ रखलनि। हमरा खाली गुलदस्ता मंगाब’ कहने छलाह।”
“हम कोनो अजय-विजय नहि जानी।” साहेब बजलाह, “विजय जी केँ गिफ्ट आनबाक छलनि। बाकी काज सँ हुनका कोन मतलब? ई ककर काज छलै?”
“छलै त’ हमरे।” राम पदारथ बजलाह, “गलती भ’ गेलै सर।”
“गलती की माफ कर’ योग्य भेल? कम-सँ-कम अपन दुनू असिस्टेंट केँ कहि देने रहितियै, त’ एहन बेज्जती नहि होइत। दू-दू टा स्टाफ भेटल अछि। तैयो बेथुत क’ दै छियै। रिटायरमेंटक समय ककरा भेटै छै दू-दू टा असिस्टेंटक सुविधा? दोसर औफिस मे रहितहुँ, त’…।” साहेबक तामस कम नहि भेल रहनि, “नहि सम्हरैए त’ छोड़ि ने दियौ। अहाँ केँ जत्ते देल जाइए ताहि मे तीनटा बेरोजगार केँ नोकरी भेटि जेतै। बुजुर्ग बूझि जतेक अहाँक आदर करै छी, ततेक अहाँ…”
साहेब फोन काटलनि। ठीके, सभ बात केँ सुनिश्चित क’ क’ चलक चाही छल हुनका। राम पदारथक मोन उतरि गेलनि। सविता मैडम पुछलखिन, त’ हुनका सभ खेरहा कहलनि। ओ किछु नहि बजलीह। चुप्पे रहलीह। सविता मैडमक चुप्पी सेहो हुनक मोन केँ भारी बना देलकनि।
ओ सोचलनि। सभ नोकरिहारा केँ एकदिन रिटायर होयबाक समय अबैत छैक। सभक सँग की एहिना होइत हेतै? मोन पड़लनि। पछिलो बेर एकटा भूल भेल रहनि। सोझे- सोझ त’ केओ किछु ने कहलकनि, मुदा हुनका बारे मे आपसमे जे संसद चलैत रहैक, से ओ सुनने रहथि। साहेबक चेम्बरे मे संसद चलैत छलैक। एक प्रकारे हुनका सुनयबाक उद्देश्ये सँ गप चलि रहल छलैक, तेँ चेम्बरक बाहर स्पष्ट रूपें आवाज अबैत छलैक।
“छोड़ि दियनु सर। सात मास नोकरी बाँचल छनि। लिखित मे किछु थम्हेबनि त’ अंत समय मे गंजन भ’ जेतनि। कहुना उघि लिअ’ सात मास।”
“त’ की हम अपन कैरियरक गंजन कराउ? हिनकर सात मासक नन परफोरमेंस अपना हिस्सा मे ल’ क’…”
“जानि नहि, एहन किएक भ’ गेलाह। पहिने कहाँदन नीक कर्मचारी मे गन्ती रहनि। आब त’ किदन भेल जाइ छथि।”
“हे यौ। एकटा बात बुझियौ। जन्मतिथि मे अबस्से उप्पर-नीचाँ हेतनि। मानसिक रूप सँ रिटायर्डक भावना मे जीबैत हेताह। औफिसियल जन्म तिथिक अनुसार भने साठिक नहि भेलाह अछि मुदा…।”
“से कहाँदन डेढ़ बर्खक अन्तर छनि।”
“कम्मेक फरक छनि। किछु के त’ तीन-चारि, कि ओहू सँ बेसीक रहै छै।”
“हँ, ओ जमाना रहै। सुतरि गेलै। आब त’ एहन हेरा-फेरी मोश्किल छै।”
“यौ, ओहू जनामा मे सही जन्मतिथि बला लोक छलाह। सभ हिनके सन नहि…”
“ताहि मे हिनकर कोन दोष?”
“बेस, एहि बेर छोड़ि दियनु सर। सभ तरहक लोक केँ ल’ क’ चल’ पड़ै छै। सात मास बितैत समय नहि लगतै।”
“समय त’ लगबे करतै। सात मास लगतै। ताबत उघैत रहियनु….!”
राम पदारथ केँ आर सुनल नहि भेल रहनि। हुनका अपन भाय मोन पड़लखिन। पितियौत। जेठ। वैह सातमा क्लासक बोर्ड परीक्षाक फार्म भरैत काल हिनकर जन्मतिथि लिखौने रहथिन आ आँगन मे गर्व सँ कहने रहथिन जे डेढ़-पौने दू बर्ख उमेर कम द’ देलियैए। बेसी दिन धरि नोकरी करत। हिनक माय-बाबू केँ सेहो विजयक बोध भेल रहनि।
तीने मास पहिनेक गप छैक। ओ भैया फोन पर हालचाल पुछलखिन, त’ राम पदारथ बजलाह, “लाबादुआ मे अहींक देल जन्मतिथि केँ उघि रहल छी। निमाहि रहल छी नोकरी। सही जन्मतिथि लिखायल रहितय त’ रिटायर भेल रहितहुँ आ एखनुक नोकरीक तनाओ सँ मुक्त रहितहुँ ।”
भैया ठठाक’ हँसैत कहने रहथिन, “जतबे कम लिखा देलिअ’ तत्ते बेसी दिन धरि समय अबूह नहि ने लगतह। रिटायरमेंटक बादक समयक अन्दाज नहि छह, तेँ एना बजै छह। हौ, तोँ एसगरे एहन नहि छह। बर्ख मे दूटा जन्मदिन मनौनिहार बहुत लोक अछि देश मे। आम लोकक बाते छोड़ह, बहुत रास कवि-लेखक सेहो छथि, जिनकर एक्के बर्ख मे दू बेर जन्मदिन होइत छनि- एकटा ओरिजनल आ एकटा सरकारी फाइलक अनुसार। एहिना चलै छै।”
“मुदा, भैया। हमरा लगैए जे ई ठकब भेलै।”
“नहि, नहि। से सब किछु ने भेलै। मोन मे ई सभ नहि राखह आ जतबे बाँचल छह, इन्ज्वाय करह।”
मोन भेलनि जे भैया केँ किछु आर कहथि, मुदा संस्कारक सिक्कड़ि किछु बाज’ नहि देलकनि।
ह्वाट्सेपक मैसेज टोन बजलनि त’ मोबाइल खोललनि। पत्नी पुछने रहथिन, “आर कत्तेकाल लागत?”
“जानि नहि। गाड़ी ड्राइवर चला रहल छै।”
“एना बतलाइत ढेकी जकाँ किए बतिआइ छी? औफिस मे कोनो टंटा भेलए कि?”
“नहि, किछु नहि।”
पत्नी आगाँ किछु नहि लिखलखिन। मुदा, ओ राम पदारथक आँगुर दुनू प्राणीक पहिलुक चैट सभ पर चलि गेलनि।
“आखिर की सोचै छियै बौआ द’? कहिया धरि बेरोजगार रहतै?”
“हम की सोचबै? सोचतै त’ अपने ने। परीक्षा त’ ओकरे ने पास कर’ पड़तै। हम सुविधे ने देबै। पाइए-कौड़ी देबै ने। जेठका के देलियै, पढ़लक आ जग्गह पकड़ि लेलक। एकरो त’ दैते छियै। पढ़बे ने करतै त’…।”
“अहीं जनै छियै जे नहि पढ़ै छै।”
“आर नहि त’ की? शुरुहे सँ आदति छै ओकर। पढ़’ बेर मे माथ दुखाय लगै आ अहाँ बाम ल’ क’ ठाढ़ भ’ जइयै।”
“दुर जाउ। ओकरा प्रति अहाँक सोचे सोझ नहि अछि। पढ़ै नहि छल त’ ओहिना एम. ए. पास क’ गेल। तखन जेठका सनक चन्सगर नहि अछि, से दोसर बात। सभ आंगुर एक्के रंगक नहि ने होइ छै।”
“त’ अहीं कहू। की करी हम?”
“से हम कहू? अहाँक बुद्धि चर’ गेल अछि। हमर कहब अहाँ कहिया मानलहुँ? बौआ कहै छल जे अहाँ केँ रिटायर केलाक एक मासक बाद ओकर सरकारी नोकरीक बयस बीति जेतै। तखन…?”
“तखन की ? हम की करबै?”
“हमर बात सोहाएल जे करितियै। कहने रही जे जनम तिथि मे दू-तीन साल कम’ क’ दियौ, से त’ केबे ने केलियै। राजा हरिश्चन्द्र बनल रही। रहू बनल।”
राम पदारथ आगाँ नहि पढ़लनि। ह्वाट्सेपक पेज बदललनि।
सविता मैडम केँ यथायोग्य अभिवादन क’ घर दिस गेलाह। घर पहुँचलाक बाद गेट ढकढ़कौलनि त’ उजरल-उपटल डीह सनक मुखाकृति लेने छोटका बेटा गेट खोललकनि। गोड़ लगलकनि।
बेटा केँ देखि क’ लगलनि जे ओ ठकाएल छथि।
मित्रक ओहिठाम जयबा मे समय छलनि। चाहक संग फेसबुक देख’ लगलाह। अरे, शंकर रिटायर क’ गेल। शंकर हुनक ग्रामीण छनि। हुनका सँ बयस मे छोट। रांची मे रहैत अछि। बधाइ देबा लेल ओ शंकर केँ फोन कयलनि। औपचारिकताक बाद ओ पुछलकनि, “अहाँ कहिया रिटायर हेबै कका? की हेबे ने करबै।”
शंकरक बात पर हँसल त’ दुनू गोटे रहथि, मुदा ओकर हँसी बेधने रहनि । से, एहन दंश विनोद सँ गप कयने बरोबरि होनि। विनोद आ ओ मैट्रिक धरि संगहि रहथि। ओ रिटायर क’ गेल। जखन कखनो फोन करैत छनि त’ पहिने एतबे पूछैत छनि, “की रे बाउ! रिटायर कहिया करबें? सरकार केँ छोड़बाक मोन नहि होइ छौ, कि विभाग सँ लभ भ’ गेलौए?”
विनोद एकबेर व्यास नन्दन बाबूक उदाहरण देने रहनि, “व्यास नन्दन बाबू बला हाल नहि ने हेतौ जे पहिने बेटा रिटायर करतौ, तखन तोँ करबें।”
व्यास नन्दन बाबू स्थानीय कम्पनी मे काज करैत छलाह। कम्पनीक स्थापना काल मे ओहिना नोकरी भ’ गेलनि। कहाँदन हुनकर जन्मतिथिक कोनो कागते ने रहै कम्पनी मे। बेटाक रिटायर भेलाक बाद ताकाहेरी भेलै, त’ व्यास नन्दन बाबू कहलखिन जे हमर ओहि घरक बेटा अछि।
“माने?”
“हमर पत्नीक पहिलुक पतिक संतान।”
“त’ एकर पिताक नाम मे अहाँक नाम किएक हेतै?”
“हेतै ने किए? कोनो स्त्रीक संग एहन हाल होइ छै, त’ पिताक नाम ककर होइ छै? जे रखने रहै छै, डेबने रहै छै, तकरे ने।”
“ओकर बाप एकटा रहै छै, तेँ बापक नाम लिखाइ छै। मायक नाम फराक भ’ सकै छै।”
“वाह! बाप एक आ माय कतबो, त’ सभ मे बापक एक्के आ माय एक आ बाप कतबो ताहि मे नहि? ई असमानता भेलै। ई स्त्री पर निर्भर करै छै जे अपन बच्चाक बापक नाम की लिखाएति? जे प्रतिपाल करतै सैह ने बाप कि ओ जे स्त्रीक कोखि मे पाड़ि क’ लात मारि भागि गेलै, से?”
“मुदा अहाँक तर्क विभाग नहि मानत।”
“नहि मानत त’ नहि मानय। विभाग बहार करय हमर जनमतिथिक प्रमाण पत्र।” व्यास नन्दन बाबू बजलाह, “औ साहेब! कम्पनी जखन बनलै, तखने सँ हम काज करै छी। एहि कंपनी लेल पजेबा आ गिट्टी माथ पर ढोने छी। कयल-धयल पर जय जगरनाथ नहि छी हम। विभाग हमर जनमतिथि बहार करय आ हमरा रिटायर क’ दिअय।”
कम्पनीक अधिकारी सभ बात केँ झाँपलनि। व्यास नन्दन बाबू सँ मेल-पाँच क’ मेडिकल बोर्ड बैसि क’ हुनक जन्मतिथि तय कयलक आ ओ रिटायर भेलाह। व्यास नन्दन बाबू मानि गेलाह। नोकरी कर’ मे सकितहु ने छलाह।
पत्नी आबि क’ मोन पाड़लखिन जे कतहु जयबा लेल अयलहुँए, तखन तंद्रा भंग भेलनि। मोन भेलनि जे मित्रक जन्मतिथि ओरिजनल छनि कि प्रमाण-पत्र बला। मुदा, से बुझल नहि छलनि।
ओ इथ-उथ मे छलाह। पत्नी तैयार छलीह। मुदा, हुनकर मोन जयबा लेल तैयार नहि छलनि।
ओ भैया केँ फोन करबा लेल तैयार भेलाह। भैया के कहताह जे अहाँक लाबादुआ बला समय हमरा लेल बलाय भेल अछि। एक बेर हमर आजुक स्थितिक कल्पना त’ कयने रहितियै।
मुदा, ओ थम्हि गेलाह।
भैया कहथिन जे प्रमाण-पत्रे बला सही मान’ पड़तह।
मुदा, मोन से मान’ लेल तैयार नहि अछि भैया।
भैया फेर कहथिन- मान’ त’ पड़बे करतह।
पार्टी मे जयबा लेल पत्नी बेर-बेर अगुता रहल छलीह, मुदा राम पदारथ दुमांगि पर ठाढ़ छलाह।
प्रदीप बिहारी
मैथिली कथा मे जे किछु कथाकार सब छथि ताहि मे प्रदीप बिहारी विश्वस्त नाम छथि । प्रदीप बिहारी छथि त’ भरोस अछि जे कथा साहित्य मकमकायत नहि । ‘औतीह कमला जयतीह कमला’, ‘मकड़ी, ‘सरोकार’, ‘पोखरि मे दहाइत काठ’ कथा संग्रह, ‘खण्ड खण्ड जिनगी’ लघुकथा संग्रह , ‘गुमकी आ बिहाड़ि’, ‘विसूवियस’, ‘शेष’, ‘जड़ि’ उपन्यास प्रकाशित आ कोखि एखन (प्रेस मे) छनि । एकर अतिरिक्त नेपाली सँ मैथिली आ नेपाली सँ हिंदीक कथा-कविताक लगभग छह टा अनुदित पोथी प्रकाशित छनि । पत्र-साहित्य मे ‘स्वस्तिश्री प्रदीप बिहारी’ (जीवकान्तक पत्र प्रदीप बिहारीक नाम), सम्पादित पोथी मे ‘भरि राति भोर’ (कथागोष्ठी मे पठित कथा सभक संग्रह) आ ‘जेना कोनो गाम होइत अछि’ (जीवकान्तक पाँचो उपन्यास)क अतिरिक्त संपादित पत्र-पत्रिका ‘हिलकोर’, ‘मिथिला सौरभ’ आ ‘अंतरंग’ (भारतीय भाषाक अनुवाद पत्रिका) प्रकाशित छनि । सर्वोत्तम अभिनेता पुरस्कार (युवा महोत्सव 1993 मे नाटक जट-जटिन मे अभिनय हेतु बिहार सरकार द्वारा), जगदीशचन्द्र माथुर सम्मान, महेश्वरी सिंह ‘महेश’ ग्रंथ पुरस्कार, दिनकर जनपदीय सम्मानक अतिरिक्त वर्ष 2007 मे कथा-संग्रह ‘सरोकार’क हेतु ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ देल गेल रहनि । कथाकार प्रदीप बिहारी सँ हुनक मोबाइल नम्बर +91-9431211543 वा ईमेल biharipradip63@gmail.com पर सम्पर्क कयल जा सकैत छनि ।