राँची नगर जहियासँ औद्योगिक मानचित्रपर जगजियार भेल, सम्पूर्ण देशक किंवा किछु विदेशोक उद्यमी लोक तहिएसँ एकर परिसर दिस टुटि पड़ल । हिन्दुस्तान इस्पात (HSL) तथा राष्ट्रीय कोइला विकास निगम (NCDC) क मुख्यालयक अतिरिक्त भारी अभियंत्रण निगम (HEC) सन विशाल कारखाना कोन ठामक लोककेँ ने अपन पेटमे पचौने होयत ? बिहारक महालेखाकारक कार्यालय आ विश्वविद्यालय रहलाक कारणे बिहारक तँ प्रत्येक क्षेत्रक लोक एहि ठामक माटिपानिपर निर्भर अछि । मैथिलो एकर अपवाद किएक रहओ ? भौगोलिक दृष्टिसँ भने जे भेद होइ, भाषाक दृष्टिएँ तँ मिथिलाक ड्योढ़िएटाट लग बुझि पड़ैछ । राँचिए की, सम्पूर्ण छोटानागपुरक देहातमे अहाँ टहलि जाउ, ओहि ठामक आदिवासी सभसँ ठेठ मैथिलीमे ठाठसँ गपसप क’ लिय’ । कथी ले’ कनेको असौकर्य ?– ने अहीँकेँ, ने ओकरे । सविस्तर कथा तँ भाषाशास्त्री लोकनि जानथि, मुदा एतबा तँ सबहु गोटेकेँ बुझबा जोग भ’ जायत जे अतीतक कोनो-ने- कोनो कालखण्डमे दूनू एक-दोसराक सम्पर्कसूत्रमे आबद्ध रहले होयत, अन्यथा भाषाक ई सामीप्य सम्भव कोना ?
आ, एहि एक-डेढ़ दशकमे मिथिलाक सुकोमल समतल उर्वर सस्यश्यामला माटिक सन्तान तँ धररोहि लगा देलनि राँचीक कर्कश ऊभर-खाभर चट्टानी प्रस्तर-नगर दिस । अयनिहार लोकनि नोकरिहरा आ व्यवसायी तँ छलाहे, मुदा अपन-अपन आन्तरिक गुणकेँ कोना ओत्तहि नड़ौने अबितथि ? फलत: जोनहाक निर्झरसँ एक बेर फेर झहरि उठल मिथिलाक मधुरतम संगीत, हुंडरूक बरसाती नदीमे एक बेर फेर उमड़ि उठल मैथिली साहित्यक निर्मल नीर; तखन मिथिलाक कमनीय कला भला कोना ने एत’ अपन चलाचलती देखबितय ? से देखौलक आ नीक जकाँ देखौलक । संगीत आ कलाकेँ ता कात करू, आउ, साहित्यिक गतिविधिसँ कने अपनहुँ अवगत भ’ जाउ ।
महान् भाषाशास्त्री डॉ. सुभद्र झाजीक कथनानुसार ज्ञात इतिहासमे मैथिलीपुत्रक पहिल धाप जे एहि नगरपर पड़ल, से हुनके पदचापक छल । एहि कथनक सत्यताक विषयमे बिना अनुसन्धानक पेटमे गेने किछु कोना कहल जाय ? हुनक ई बात जँ स्वीकर्यो, तथापि बिना कोनो ठोस प्रमाणक ई कोना मानि लेल जाय जे मैथिली साहित्यक पहिल पाँती जे एहि भूमिपर लिखायल होयत, से हुनके बुद्धिक क्रीड़ा छल ? एहि माटिपरक हुनक कोनो उपलब्धिक पता एखन धरि हमरा नहि लागल अछि । ओना, हुनक शारीरिक उपस्थितिए हमरा लोकनिक गौरवमय उपलब्धि थिक, से निस्संशय ।
ई बात हमरा बहुत दिनक बाद बूझ’ जोग भेल जे राँची विश्वविद्यालयक अङरेजीक विभागाध्यक्ष डॉ.श्री रमानाथ झाजी मैथिलीक कवि सेहो छथि । मैथिलीक कवि होथि ततबे नहि, महान् समालोचक स्व. रमानाथ बाबू तँ हिनका अपन भाषाक प्रथम प्रयोगवादी कवि स्वीकार कयने छथिन । हिनक साधना नितान्त अन्तर्मुखी छनि आ साहित्यिक प्रचारसँ ततेक ने कनछी कटैत रहैत छथि जे साहित्यजीवियोकेँ अपन उपस्थितिक भान प्रायः नहिएँ होब’ दैत छथिन । ओना, कोनो साहित्यिक आयोजनमे हुनक दर्शन नहि हो, ई असम्भव, मुदा से सभापति, उद्घाटक किंवा दर्शक-श्रोताक रूपमे, कविक रूपमे एकदम नहि ।
श्री सुमन वात्स्यायन मैथिलीक पुरान कथाकार, राँचीक आकाशवाणी केन्द्रसँ सम्पर्कित छथि । एक बीचे तँ हिनक लेखनीमे उजाहि आबि गेल छलनि, मुदा आबो किछु-ने-किछु ‘लुरूखुरू’ तँ करिते रहैत छथि । पुस्तकाकार तँ नहि, मुदा मैथिलीक प्रतिनिधि पत्रिकाक पहिलुका पृष्ठ सभ उनटाउ, ई बराबरि भेट होइत रहताह । ओना तँ ई गद्यक अनेको विधापर अपन प्रतिभाक चमत्कार देखौने छथि, मुदा अपन घुमक्कड़ीक अनुभूतिकेँ जाहि शब्दचित्रमे अंकित कयलनि अछि ओ अवश्य बहुत दिन धरि मन राखल जायत ।
श्री कलेशजी (काशीनाथ ठाकुर) क काव्यप्रतिभा पूर्ण विकासकेँ प्राप्त क’ लेने छलनि पहिने, विकास विद्यालय, राँचीमे अयलाह बादमे । आब ई श्रेय धरि हुनका भेटबेक चाहियनि जे एखन धरि हुनक कलाकेँ कृष्णपक्ष तेना भ’क’ नहि प्रभावित क’ सकलनि अछि । आशा कयल जाइछ, अपन इजोरियाकेँ ई बहुत दिन धरि आर रक्षा क’ सकताह ।
पं. श्री आद्याचरण झा जतइ जाइत छथि, बिहाड़ि जकाँ ओहि ठामक साहित्यिक-सार्वजनिक जीवनकेँ झिकझोड़ि दैत छथि । राँची अयलाह तँ बुझि पड़ल, एकटा नवीन स्फूर्ति आबि गेल होइ एहि ठामक साहित्यिक गतिविधिमे । लिखबा-पढ़बासँ तँ कम, भाषण-भूषणसँ पर्याप्त ख्याति अर्जित कयनिहार पण्डितजीकेँ, सुन्दर विद्वान् रहितहुँ, केहनो विपरीत विचारधाराक नव-सँ-नव लोकक विषदन्त तोड़ि देबाक अद्भुत लूरि छलनि । वर्ष तिनिएक धरि एहि ठामक सभ वर्गक लोककेँ प्रभावित कयलाक बाद, अपन गौरवमय उपस्थितिक अमिट छाप छोड़िक’ राँचीक प्रस्तर-पथक अपेक्षा पटनेक सरस समतल भूमिपर भ्रमण करब हुनका सुभितगर बुझयलनि ।
प्रो. विषपायीजी ( कविवर सीताराम झाक बालक विश्वनाथ झा ) तँ नीलकंठ छथि । सार्वजनिक साहित्यिक हलचलसँ फराक अपन साधनामे तल्लीन । वैचारिक समुद्र-मन्थनसँ जँ अमृत बहराय तँ सभ गोटे बाँटिकूटि लैत जाउ, जँ कदाच विषवमन हो तँ गोहारि करू विश्वनाथक । विषपान कैयोक’ एकताक हेतु सतत तत्पर रहनिहार विषपायीजीकेँ मैथिली काव्यक्षेत्रमे पर्याप्त सुयश छनि ।अन्य छोट-पैघ रचनाक अतिरिक्त ई एक गोट रामायणक निर्माणमे दत्तचित्तसँ लागल छथि, जे मुद्रणक किरण देखिते सम्पूर्ण शिक्षित समाजमे अपन विशिष्टताक डंका बजाक’ छोड़त, से आशा कयल जाइछ ।
श्री उपेन्द्रनाथ झा व्यास प्रकाण्ड साहित्यकार आ बिहारक मुख्य अभियन्ता, स्थानान्तरणक क्रममे राँचीक मैथिली सहित्यसेवी समुदायकेँ सेहो अपन उदार व्यक्तित्व ओ ज्वलन्त प्रतिभासँ प्रभावित क’ गेल छथि । राँचीस्थित मैथिलकेँ ई स्मरण करैत अवश्य आनन्दानुभूति होइत छैक जे साहित्य अकादेमीसँ पुरस्कृत मैथिलीक प्रथम उपन्यासक प्रसवस्थली होयबाक गौरव यैह नगर प्राप्त क’ चुकल अछि । अन्य अनेको काव्य आ कथा-लेखनक अतिरिक्त ‘दू पत्र’ सन प्रसिद्ध उपन्यास लिखिक’ व्यासजी अपन ख्यातिक संग एहू स्थानकेँ विख्यात क’ देलनि । एहन प्रस्तरमय प्रदेशमे आ अभियांत्रिक वातावरणमे दिन-राति रहितो कतेक सुकोमल आ हृदयद्रावक चित्र अंकित कयल जा सकैछ, से ‘दू पत्र’क पात-पातमे झलकि उठैछ । पाथरेपर रहिक’ पाथरकेँ पघिला देबाक क्षमता व्यासजीमे छनि, से निर्विवाद । वातावरणक प्रभावसँ बेसी लेखकक प्रतिभाक प्रभाव साहित्यमे पड़ैत छैक, जेना सैह मान्यता स्थापित करबाक निमित्त एहि स्थानक चयन कयने होयताह व्यासजी । ततबे नहि, हुनक दृष्टिएँ सर्वोत्तम कृति ‘पतन’क प्रादुर्भाव सेहो राँचिएक भूमिपर भेल छैक ।
अपन कौलिक प्रसिद्धिक कारणे नहि, अपितु लहलहाइत प्रतिभाक बलपर सुयशी श्री राजमोहन झा जाहि दिन नियोजन पदाधिकारी भ’क’ राँची अयलाह, ओहि दिन अवश्य स्थानीय मैथिली साहित्यक कुण्डलीमे ‘केन्द्रे बृहस्पति:’ छल होयतैक । माजल हाथेँ सुन्दर-सुन्दर कथा सभ तँ लिखिते रहैत छलाह, किन्तु ताहूसँ बेसी एहि ठामक साहित्यकारकेँ निर्मल स्नेह प्रदान करबामे, प्रोत्साहन देबामे, सभकेँ एक ठाम जुटयबामे, मैथिलीक बहुविध उत्थान लेल योजना बनयबामे, विपरीतो विचारधाराक लोककेँ ‘पिरीतिक डोरी’मे आबद्ध करबामे जाहि पटुताक ओ प्रदर्शन करैत छलाह, से दर्शन आब एहि ठामक साहित्यकारकेँ प्राय: दुर्लभ । ‘भाइ साहेब’ पहिने भाइ छलाह, तखन ‘साहेब’ । किछु गोटेक कहब तँ ईहो अछि जे जकरा हेतु ओ ‘भाइ’ छलाह, तकरा हेतु ‘साहेब’ कखनो ने । मैथिलीक काज लेल, भने ओ कतबो नगण्य किएक ने हो, ककरो ( पैघसँ पैघ आ छोटसँ छोटक) ओहि ठाम जयबामे, कोनो तरहक याचना करबामे कनेको असौकर्य नहि, अपमान-सम्मानक कनियोँ परबाहि नहि । जहिया ओ दिल्ली गेलाह, ओहि दिन निश्चित रूपेँ एहि ठामक साहित्य कुण्डलीमे ‘राहु’क स्पर्श भ’ गेल छल होयतैक । आइयो ‘नवतुरिया मण्डल’ हुनक सुखद सामीप्यकेँ अपन हृदय-कक्षमे ओहिना जोगौने अछि ।
‘नवतुरिया मण्डल’क ध्यान अबिते जे पहिल नवतुरियाक खाका आँखिक सोझाँमे उभरैछ, ओ दोसर ककरो नहि, श्री उपेन्द्र दोषीक रहैछ । श्री दोषीजी पुस्तक भण्डारक राँची शाखाक प्रबन्धक भ’क’ जहिया एत’ खंती गाड़ि देलनि, तहिए सँ दोषी आ पुस्तक भण्डारमे अन्योन्याश्रय सम्बन्ध भ’ गेलैक । राँचीमे साहित्यकार, साहित्यप्रेमी, साहित्यकारखोजीक एकेटा सूचनाकेन्द्र अछि– पुस्तक भण्डार । ककरोसँ भेट करबाक हो, ककरो पता बुझबाक हो, पुस्तक भण्डार चल जाउ । ओत’ भेटताह अस्तव्यस्त मुद्रामे विषादेँ भरल मुखमण्डलपर सायास मुस्कान दौड़बैत, एक्के बेरमे ओहि ठाम उपस्थित सबहु गोटेसँ ‘फेकौअलि’ गप्प करैत, फुदकैत-हफसैत, असहाय सन बगय बनौने, सभक सहायताकांक्षी– दोषी । जँ नहि चिन्हैत छियनि तँ हुनकेसँ पुछबनि– दोषीजी हैं ? ‘गोड़ लगै छी’– दुनू हाथ माथोसँ ऊपर उठाक’, ताकि-ताकि क’, सोर पाड़ि-पाड़ि क’, मेहिक्की आवाजमे कहने फिरताह । हिनका ककरोसँ कोनो ‘शिकाइत’ नहि, आन सभकेँ हिनकासँ ‘कोनो-ने कोनो शिकाइत’ अबस्से । कथा लिखैत छथि, कविता लिखैत छथि– मैथिलीमे, हिन्दीमे । मैथिलीमे पत्रिका लेल, हिन्दीमे रेडियो लेल– बस । एक बेर जोह उठलनि तँ अपन सम्पादकत्वमे ई मुख्यत: राँचीक कथाकार लोकनिक एकटा कथासंग्रह ‘प्रचोदयात्’ क नामसँ पूर्ण साजसज्जाक संग नयनाभिराम रूपमे, डंका पीटैत, किसुनजी ( रामकृष्ण झा किसुन) सँ अत्यन्त गम्भीर आ महत्त्वपूर्ण भूमिका लिखबाय प्रकाशित करा लेलनि । साधारणत: देखल ई जाइछ जे नीक-नीक वस्तुमे गोटे-आधे दब्बो वस्तु दबि-पचि जाइत छैक, मुदा ‘ प्रचोदयात्’मे तँ दब्बे वस्तु निकहा वस्तुकेँ दबा-पचा लेलकैक । मुदा ताहिसँ हिनका की ? –धन सन ! हिनका विषयमे श्री मणिपद्मजीक ‘एसिसमेंट’ कतेक सटीक अछि– “तेज लेखनी । आलसी लोक । गप्पी वेशी आ श्रमी कम । ई गद्य नीक लिखि सकैत छथि, किन्तु बौआइत-ढहनाइत । कविता तिक्खर, युगबोध अद्भुत । चांचल्य वेशी ।”
राँची विश्वविद्यालयक हिन्दीक व्याख्याता डॉ. श्री सीताराम झा श्याम राष्ट्रभाषामे अपन प्रांजल प्रतिभाक मनोयोगपूर्वक प्रदर्शन करैत, पलखतिक क्षणमे मातृभाषाक यत्किंचित सेवाक प्रसादात् मैथिलीक पत्र-पत्रिकामे कथंकदाच अपन नाम तँ सुरक्षित करबैते रहैत छथि, मुदा मातृभाषाक सेवाक समयमे ( पलखतिक क्षणक बदला ) जँ ई परिवर्तन आनि लेथि तँ मैथिलीकेँ विद्वान् लेखकक संख्यामे एक गोट नामक उल्लेखनीय वृद्धि भ’ जयतैक, ताहिमे सन्देह नहि ।
श्री मोहन भारद्वाज आ श्री उदयचन्द्र झा विनोद 1967 ई.मे एक्के क्षण ए.जी.आफिसमे अपन जीविका प्रारम्भ कयने छथि । मोहन भारद्वाज तँ मोहन भारद्वाज एम्हर आबिक’ भेलाह अछि, जहिया अयलाह तहिया छलाह आनन्द मोहन झा । साहित्यमे प्रवेश कयलनि आनन्द मोहन झा, मुदा चर्चित भ’ गेलाह मोहन भारद्वाज । मित्रगोष्ठीमे मुदा आइयो ई आनन्द मोहनेजी छथि । कोनो विषयपर अपन स्वतंत्र विचार रखनिहार, कोनो बातकेँ तर्कक खरंजापर ‘पूरापूरी’ छिलनिहार, हुनक दृष्टिएँ अनटोटल गप्पकेँ एक्को रत्ती बर्दास्त नहि कयनिहार, नवताक अन्ध समर्थक आनन्द मोहनजी कथा, आलोचना, कविता खूब लिखैत छथि, कम छपबैत छथि । जे साहित्यिक कृति हिनका नहि नीक लगतनि से ई सुनौ नहि चाहताह, मुदा अनका हेतु पहिने ई बुझब महा कठिनाह जे हिनका की नीक लगतनि ? ‘सन्निपात’ सन सुचर्चित स्तरीय पत्रिकाक सम्पादकद्वयमे एक जन ईहो छथि । सहमिलू स्वभाव आ सूक्ष्म दृष्टिक धनिक आनन्द मोहनजीसँ एहि ठामक साहित्यकारवर्ग पूरा आशान्वित अछि आ हिनक रचनावलीकेँ अविलम्ब पुस्तकाकार देखबाक हेतु लालायित सेहो ।
श्री उदयचन्द्र झा विनोद ओना तँ ए.जी.आफिसक कर्मचारी छथि, मुदा अपन कार्यालयीय दायित्वकेँ निर्वाह करबामे जतबे ‘लेजी’, विचारगोष्ठी, कविसम्मेलन, प्रकाशन-प्रचारमे देखि लियनु हिनक ततबे तेजी । कथा सेहो लिखैत छथि मुदा हिसाबसँ, रिपोर्ताज सेहो लिखि लैत छथि बेहिसाब आ धुरझार । परम्पराक विद्रोही, नवीताक पक्षपाती, अध्ययनप्रेमी, मनोरम स्वभावी विनोदजीकेँ साहित्यिक गोष्ठीक आयोजन, विचार-विमर्शमे जतबे मन लगैत छनि, ततबे अपन रचनाक प्रकाशन-प्रचार दिस सेहो ध्यान रहैत छनि । अपन प्रारम्भिक कविताक संग्रह ‘संक्रान्ति’ नामसँ, नीक छपाइ-सफाइक संग प्रकाशित करौने छथि, जाहिसँ स्थानीय मित्रमण्डलीमे अपन महत्त्वकेँ मनबा तँ ई लेबे कयलनि, बाहरो बहुत-किछु परिचित-चर्चित भ’ गेलाह । मनमे एखनो कतेक बात घुरिया रहलनि अछि– आलोचना-पोथी छपयबाक, नवीन कविवर्गक एकटा काव्यसंग्रह प्रकाशित करयबाक, अपन एकटा कविता पोथी प्रेसमे देबाक, आर कतेक बात । कमसँ कम राँची क्षेत्रक साहित्यकार लोकनिमे एक गोट पूर्ण चर्चित कृति ‘धूरी’ मूलत: हिनके मस्तिष्कक उपज थिक, जकरा चारि गोट साहित्यकार लोकनि ( दोषी,विनोद,युगबोध,भीमनाथ ) सम्मिलित प्रयाससँ ‘पारघाट’ लगौलनि ।
‘धूरी’केँ मैथिली काव्यक्षेत्रमे प्रवेश कयने, ओहि पोथीक आलोचना-प्रशंसा जे भेल होइ, एहि ठाम(राँची) क साहित्यिक जागरूकताक खास परिचय धरि लोककेँ अबस्से भेटि गेलैक ।
‘धूरी’क संग पहिले-पहिल, एकाएक, जे एहि ठामक साहित्यिक गोष्ठीमे अपन उपस्थितिक भान करौलनि, आ बाहरो– जतबे किछु– जानल जाय लगलाह, से थिकाह श्री सरोज कुमार झा युगबोध । अपन परम्पराकेँ जँ चीन्हि सकथि, अपन भाषाक जँ ‘थोड़ो-बहुत’ अध्ययन करथि, अपन अनुभूति आ कल्पनाकेँ जँ निरर्थक शब्दजालमे नहि ओझरा देथि तथा अपन उद्देश्यक पूर्त्तिमे जँ पूर्ण विवेक, निष्ठा आ संलग्नताक परिचय देथि तँ आशा कयल जाइछ जे जाही नाटकीयताक संग ई अवतरित भेलाह, ताही नाटकीयताक संग बढ़ताहो । ( आजुक टिप्पणी– किन्तु दुर्भाग्य जे कलिएमे नियति हिनका खोंटि लेलक ।)
श्री रविकान्त झा ‘रवि’ राँची विश्वविद्यालयक वरिष्ठ कर्मचारी, नवतुरिया मण्डलक मुख्य प्रेरक आ सचेतक छथि । विशिष्ट प्रतिभाक अछैतहुँ मैथिलीमे ई खूब लिखैत किएक नहि छथि, तकर भाँज नहि लागि रहल अछि । जँ ई खूब लिखथि, आ लिखताह से आशा अछि, तँ राँची परिसर हिनक कृतिसँ अवश्य उपकृत होयत ।
एतबे गोटे एहि ठाम रहिक’ अपन साहित्यिक गतिविधि जगजियार कयने छथि, से नहि ; एहिसँ कतोक बेसी एहनो लोक छथि जे यदाकदा मैथिलीक प्रति अपन सेवा समर्पित क’ रहलाह अछि, से प्रचार-प्रसारसँ पूरा फराक । श्रीमती शशि झा, श्री चन्द्रनाथ, श्री गोवर्धन ठाकुर गोपाल, श्री विक्रम वैद्य, श्री प्रभात नारायण झा, श्रीमती चित्रलेखा देवी आदि अनेको नाम एहि कोटिमे गनाओल जा सकैत अछि । बहुत एहनो होयताह, जनिक नाम हमरा जानल नहि, किछु एहनो जे मन्दस्मृति होयबाक कारणे एखन मन नहि पड़ि रहल छथि ।
सम्भावना एहू ल’क’ एहि ठाम अनन्त अछि, कारण जे एकर प्रशस्त द्वार अयनिहारक हेतु सदा-सर्वदा खूजल रहैछ, कखन कोन बाटेँ साहित्यकारक पदार्पण भ’ जायत, तकर अनुमान करब कठिन । आ एही बीचे, मैथिली साहित्यक अतिविशिष्ट उपन्यासकार आ कथाकार श्री ललितजी राँचिए आबि गेलाह अछि । मानल बात अछि, एहन साहित्यकारक लेखनी कतहु कोना विश्राम ल’ लेत ? ताहूमे राँची सन प्रेरक स्थानपर तँ अबधारि क’ नहि । देखा चाही, मैथिली साहित्यकेँ आरो की-की सभ प्राप्त होयबाक छैक राँचीसँ ?
(कोलकातासँ प्रकाशित मैथिली मासिक “मिथिला दर्शन”क सितम्बर 1972 क अंकसँ साभार । मूल शीर्षक–“राँची : मैथिली साहित्यक परिप्रेक्ष्यमे” । रचना– जून 1972)