मैथिली साहित्यक काल विभाजनक समस्या सँ सबगोटे परिचित छीहे । डॉ. जयकान्त मिश्र जीक अनुसार प्राचीनकाल वा आदिकाल 1600 ई. धरि, मध्यकाल 1860 ई. धरि आ आधुनिककाल 1860 ई. सँ अद्यपर्यंत अछि । एहि अनुसार जे नाटक जाहि काल मे रचल गेल से ताहि कालक कहाओत । बेसी नाटक मध्यकाल मे रचल गेल अछि, तेँ मैथिली साहित्यक मध्यकालक ‘नाटककाल’ सेहो कहल जाइत छैक । एहि कालखंड मे लिखल नाटक केँ ‘किरतनिया नाटक’ नाम सँ संज्ञापित कयल गेल अछि । आलोचक लोकनि मैथिली नाटकक तीन धारा मानैत छथि । एहि तीनू धारा – किर्तनिया, नेवारी आ अंकीया नाटक केँ मिला क’ लगभग सय टा सँ बेसी नाटक उपलब्ध अछि ।
हमसब जनैत छी, जे प्रथम आधुनिक मैथिली नाटकक रचना 1905 ई. मे पं. जीवन झा रचित सुंदर संयोग सँ भेल अछि । उक्त आलेख प्राचीन नाटकक मंचीय पक्ष केँ ध्यान मे राखि लिखल जा रहल अछि, तेँ प्रथम आधुनिक नाटक सँ पहिने रचित सभ नाटक केँ ‘प्राचीन नाटक’ मानि विमर्श कयल गेल अछि । अर्थ ई जे एहि आलेख मे प्राचीन नाटकक रूप मे आदिकाल आ मध्यकालीन दुनू कालावधि मे रचित नाटकक समावेश कयल गेल अछि ।
देशक आजादी सँ पहिने प्राय: सभ भाषा मे आधुनिक रंगमंचक शुरुआत भ’ चुकल छल, मुदा सौंसेक आधुनिक रंगमंच पारसी रंगमंचक प्रभाव सँ बंचित नहि रहि सकल छल, ताहि समय रगकर्मी लोकनि पुन: अपन भाषाक प्राचीन नाट्य परंपरा, नाट्य रचनासभक पुनर्पाठ वा पुनर्प्रयोग प्रारम्भ केलाह संगहि शास्त्रीय संस्कृत नाटक यथा – अभिज्ञान शाकुंतलम, मृच्छकटिकम, मुद्राराक्षस आदि नाटकक मंचन नव-नव युक्तिकसंग प्रारम्भ कयल । भारतक लगभग सभ क्षेत्रक रंगकर्मी रंगनिर्देशक अपन प्राचीन नाटकपर गौरवबोध करैत ओकर पुनर्पाठ तैयार क’ क’ मंचपर अनबाक प्रयास करैत रहलाह । जाहि सँ हुनक प्राचीन नाटकक नव-नव आयाम पल्वित पुष्पित होइत रहल । हुनका सबहक प्रत्यक्ष प्रयास, अपरोक्ष रूपे हुनकर रंगमंच, साहित्य आ समाज केँ मजबूत करैत रहल । एहिठाम हमर मैथिली रंग निर्देशक पछुआ गेलाह, ई कही जे प्रारम्भो नहि केलाह । किछु प्राचीन आ संस्कृत नाटकक पुनर्पाठ, टीका – टिप्पणी तैयारो भेल मुदा रंगकर्मी लोकनि ओहू प्रयास केँ नकारैत रहलाह । जकर परिणाम नवपीढ़ी एखन तक भोगि रहल अछि । जे मैथिली रंगमंच प्राचीनकाल मे सब सँ समृद्ध छल, से रासि टूटि गेल आ हमर रंगमंच एखन तक झखाइते रहि गेल ।
वर्ष 1986 ई. मे डॉ. शशिनाथ झा ‘विद्यावाचस्पति’ अपन अथक प्ररिश्रम सँ 1300 ई. सँ 1900 ई.क बीचक उपलब्ध नाटक मे लगभग सोलहटा प्राचीन नाटकक संकलन मिथिला समाजक सोंझा रखलाह । कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय सँ प्रकाशित एहि पुस्तक ‘मिथिला-परंपरागत-नाटक-संग्रह’ सँ हजारो शोधार्थी लाभ उठेलाह । मुदा, जाहि मैथिल रंगसमाज केँ एहि सँ लाभ उठेबाक बेसी बेगरता छलनि से वंचित रहि गेलाह । एखनतक हमरासभक समक्ष सय टा सँ बेसी प्राचीन मैथिली नाटक उपलब्ध अछि, जाहि मे मात्र चारि-पाँच टा नाटकक मंचन हम सभ क’ सकलहुँ अछि । आश्चर्यक बात ई जे नेपाल जाहि ठाम सब सँ बेसी मध्यकालीन मैथिली नाटकक रचना भेल, जाहिठाम मिनाप, जनकपुर (मिथिला नाट्य-कला परिषद) सन सशक्त संस्था अछि, ओहू ठाम सँ पिछला 20-25 साल मे कोनो प्राचीन मैथिली नाटक मंचनक सूचना नहि अछि, ई हमर अज्ञानतो भ’ सकैत अछि मुदा तकर कम्मे चांस । मैथिली रंगसंस्था मे श्रेष्ठ भंगिमा, पटना सेहो मात्र एकटा प्राचीन नाटक पारिजात हरणक मंचन क’ सकलाह अछि, तखन दोसर संस्था सँ की अपेक्षा राखल जायत ? अन्य संस्था सेहो मात्र धूर्त्तसमागम नाटक मंचित क’ प्राचीन नाटक मंचन केँ तिलांजलि द’ देलाह अछि । मुदा तैयो ई सभ संस्था धन्यवादक पात्र अछि । बाँकी सब प्राचीन नाटक एखनो तक किताबक पन्ने मे छपल रहि गेल अछि । अन्य कतेको तथाकथित स्वनामधन्य रंगनिर्देशक लोकनि मैथिलीक प्राचीन नाटकक मंचन मे अपन हाथ पकाक’ देखार – चिन्हार नहि हुअ’ चाहैत छथि । पूर्व मे मैथिली नाटकक केंद्र रहल कोलकाता एहि मामला मे सहो चुप्पी सधने रहल । दरभंगा, मधुबनी के त’ कोनो बाते नहि हुए ।
हालहि मे एकटा प्राचीन नाटक प्रकाशित भेल अछि ‘रामभद्रशर्माकृत हरिश्चन्द्रनृत्यं’ (मल्लकालीन मैथिली नाटक) । मैथिली रंगकर्मी केँ एहि बात केँ गंभीरता सँ लेब’ पड़तनि, जे कोनो प्राचीन नाटक कतेक कठिनाइ सँ हमरा सबहक सोंझा आनल जाइत अछि । एक व्यक्ति (श्री रमानाथ झा ‘रमन’)1973 ई. मे कतौ पढ़ल पाँति जे – “भारतेन्दु हरिश्चन्द्रक लिखल नाटक ‘सत्य हरिश्चन्द्र नाटक’ पर 1651 ई.मे रचित ‘हरिश्चन्द्र नाट्यम्’ (नृत्य) नामक मैथिली नाटकक प्रभाव अछि” – तकर अंन्वेषण मे अपन जीवनक 46 वर्ष लगा, एहि पुस्तक केँ जर्मनी सँ 1991 ई. मे अनैत छथि । ओ पुस्तकाकार भ’ 2019 ई. मे हमरा सबहक सोझाँ अबैत अछि । प्रो. आनन्द मिश्रजीक कथनानुसार एहि नाटक मे उत्तर आ दक्षिण भारतीय संगीत – दुनू पद्धतिक प्रयोग भेल अछि । जे नाटकक विशालताक परिचायक छैक । जखन हमर हेरायल नाट्यकृति केँ जर्मनी सँ वापस आनि देल गेल अछि त’ मैथिली रंग संस्था आ रंगनिर्देशक लोकनिक ई कर्तव्य होबाक चाही जे एकर मंचन वर्तमान स्वरूप मे राखि कयल जाय । आइ एहन घटना जँ बांग्ला, मराठी वा अन्य कोनो भारतीय भाषा मे भेल रहति त’ ओतुक्का रंगकर्मी लोकनि एकर कतेको वर्जन तैयार क’ क’ समुच्चा देशक ध्यान अपना दिस खींच लेने रहितथि । मुदा, हमर भरोस अछि जे मैथिलीक बहुतो रंगनिर्देशक एखन धरि एहि कृति केँ मंचन करब सोचब त’ दूर अध्ययनो नहि कयने होयताह । एहना स्थिति मे अन्हार घर साँपे-साँप’ बनि रहि गेल अछि मैथिली प्राचीन नाटक ।
डॉ. प्रेम शंकर सिंह ‘मैथिली नाटक परिचय’ नामक पुस्तकक प्राग्वाणी मे लिखैत छथि जे – “प्राचीन नाटक आधुनिक दृष्टिएँ भनहि महत्वपूर्ण नहि हो, किन्तु ओकर ऐतिहासिक महत्व छैक से निर्विवाद अछि ।” हिनक एहि अर्धसत्य पाँति केँ सहारा ल’ क’ बहुतो मैथिली रंगनिर्देशक रंगरूपी बेतरणी पार भ’ गेलाह अछि । जखनकि वर्तमान समय मे लिखल जा रहल अधिकांश नाटक सँ बहुत-बहुत आगू अछि मिथिलाक प्राचीन नाटक, से अपन शिल्प मे, कथ्य मे आ रंगयुक्ति मे सेहो । आवश्यक छैक अपन प्राचीन नाटक केँ वर्तमान समय संग जोड़ि पुनर्लेखनक’ मंचन कयल जाय । मानल, ई काज कठिनाह अछि, श्रमसाध्य अछि, मुदा प्राचीन आ आधुनिक मध्य सेतु बना मंचन करबाक बेसी बेगरता छैक ।
मैथिली रंगमंच पर बेसी निर्देशक ‘हल्लुक माटि बिलाड़ि कोरय’ बला कहावत संग बिहाड़ि बनि हुहुआइत छथि आ एक – दूटा चलताऊ वा पूर्व स्थापित नाटकक मंचनक’ बाह-बाही लूटि, कोनो आन फलदायी विधा दिस अपना केँ मोड़ि लैत छथि, आ जीवनपर्यंत ओही चलताऊ नाटकक लेल स्वयं गढल अविष्मर्णीय, अद्वितीय, अकल्पनीय, भूतो-न-भविष्यति आदि शब्दक माला पहिर कंठी जाप करैत रंगमंचक ऊँचका कुर्सी ग्रहण क’ सुशोभित रहैत छथि । एहन चलताऊ रंगनिर्देशक मात्र स्वकेंद्रित पैघ-पैघ आलेख लिख सकैत छथि, ज़ोर ज़ोर सँ भाषण द’ सकैत छथि, मुदा प्राचीन नाटकक मंचन किन्नौनहि क’ सकैत छथि । हँ, जँ कियो करबाक प्रयास करैत अछि त’ हुनका प्रोत्साहनक बदला हतोत्साहित जरूर क’ सकैत छथि । फलत: एखनधरि मात्र चारि-पाँचटा प्राचीन नाटक मंचपर अवतरित भ’ सकल अछि । जेहो भेल अछि ताहि मे सँ ज्योतिरीश्वरक धूर्त्तसमागम केँ छोड़ि सबटा कोनो मात्र एकटा निर्देशक द्वारा आ एक दू प्रस्तुतिक बाद अकाल मृत्यु प्राप्त क’ लेलक अछि, दीर्घकालीन उपस्थिति नहि स्थापित क’ सकल अछि ।
बेसी नाटक मंडलीक कर्ता-धर्ता आ रंगनिर्देशक मैथिलीक प्राचीन नाटकक मंचन नहि करबाक प्रमुख कारण – अर्थक अभाव आ कमजोर कथ्य होयबाक बहन्ना बना फारकति पाबि लैत छथि । मुदा, एहन कोनो समस्या हमरा नहि देखाइत अछि, बल्कि एकर ठीक विपरित – आधुनिक नाटक मे ओकर मंच-विन्यास, प्रकाश-व्यवस्था आदि मे प्राचीन नाटक सँ बेसी अर्थक व्यवस्था करय पड़ैत छैक । एहि मे प्राय: पारंपरिक भेष-भूषाक उपयोग कयल जाइत अछि, मंच – विन्यास मे सेहो बेसी तड़क-भड़कक आवश्यकता नहि रहैत अछि । तें अर्थक समस्या प्राचीन नाटकक मंचन लेल बेसी बाधक नहि होबाक चाही । दोसर, कथ्य केँ स्तर पर सेहो मैथिलीक प्राचीन नाटक बहुत सशक्त अछि । उदाहरण स्वरूप ‘धूर्तसमागम’ एखनो समकालीन लगैत अछि । की, वर्तमान समाज चारूकात धूर्तक समागम सँ भरल नहि अछि ? वर्तमान शासन व्यवस्थाक सम्पूर्ण सत्य, यथा जयशंकर प्रसाद जीक शब्द मे ‘सत्ताक सुख मादक होइत छैक’; विद्यापतिक ‘गोरक्षविजय’ मे समाहित अछि । जँ ‘मणिमंजरी’ नाटक केँ वर्तमान समयक ‘विवाहेत्तर संबंध’ सँ जोड़ि क’ देखल जायत त’ एहन प्राचीन नाटकक कथ्यक सोंझा वर्तमान नाटक पेटकुनिया लाधि देत । मुदा, एहि लेल नाटकक मंचनक तैयारी मात्र बीस दिनक नहि बल्कि बीस महीना करय पडतैक । ताहि लेल असीम धैर्यक आवश्यकता होयत जकर घोर अभाव छैक ।
मैथिलीक प्राचीन नाटकक मंचनक प्रमुख समस्या अछि सशक्त रंगसमूहक अभाव होयब । ओहन रंगसमूह जाहि मे रंगकर्मी दीर्घकाल तक रहि सकथि । जिनका पर निर्देशक द्वारा प्रयोग आ विश्वास कयल जा सकय । आजुक अधिकांश रंगकर्मी उताहुल रहैत छथि । एक दूटा नाटक केलाक बादे हुनका कोनो-ने-कोनो मैथिली फ़िल्म / सिरियलक ऑफर आबि जाइत छनि, ओहि चमक – दमकक लोभ मे अधकचरा रंगज्ञान ल’, शायद कहियो नहि रिलीज होइबला सिलेमाक प्रोड्यूसर / निर्देशकक पाछू लागि जाइत छथि । अंत मे ने घरक होइत छथि ने घाटक । एहना स्थिति मे कोनो निर्देशक मोन रहलाक बादो प्राचीन नाटक मंचनक रिस्क कोना उठा सकताह ? प्राचीन नाटक अपेक्षाकृत अत्यधिक अभ्यास माँगैत अछि । एकटा अभिनेता केँ जहिना शारीरिक भंगिमा तहिना संगीतक अभ्यास करब आवश्यक होइत छैक । आंगिक, वाचिक, आहार्य आ सात्विक चारूक समुचित उपयोग लेल दीर्घ अभ्यासक बेगरता होइत छैक । प्राचीन नाटक मंचन लेल निर्देशक केँ सेहो आवश्यक होइछ सुदृढ़ रंगदृष्टि, इच्छाशक्ति आ अपन परंपराक ज्ञान होयब संगहि एहिपर गौरव बोध होयब । बिना एकर प्राचीन नाटकक मंचन आरोप-प्रत्यारोपक आवरण पहिर मात्र आभासीय परिकल्पना बनि रहि जाइत अछि ।
अंतत: मैथिलीक प्राचीन नाटकक मंचनक उपलब्धि मात्र एतबे अछि जे दीर्घ नाट्य परम्परा केँ अछैत एखन तक मात्र चारिटा – धूर्त्तसमागम, पारिजात हरण, मणिमंजरी आ गोरक्षविजय नाटकक मंचन भ’ सकल अछि । प्रथम मंचन प्राय: 1987 ई. स’ 2020 ई. धरि कुल 33 साल मे मात्र छ:टा निर्देशक एकर प्रयास क’ सकलाह अछि । अहू मे निर्देशक कौशल कुमार दास, संजीव मिश्र, रवीन्द्र बिहारी राजू, अरविंद अक्कू मात्र धूर्त्तसमागमक निर्देशन केलाह अछि । कुणालजी मात्र पारिजात हरण केँ निर्देशित केलाह आ डॉ. प्रकाश झा तीनटा मणिमंजरी, धूर्त्तसमागम आ गोरक्षविजय मंचित केलाह अछि । कुल मिलाक’ प्राचीन नाटकक मंचनक संबंध मे एहन उपलब्धि केँ घोर निराशाजनक कहल जायत ।
आइ बेगरता छै जे हमसब अपन प्राचीन नाटकक माध्यम सँ मैथिली रंगमंचक संपूर्णताक अध्ययन क’ ओकर आकलन करी । वर्तमान समय मे प्राय: प्रत्येक रंगप्रशिक्षण संस्थान मे आजुक रंगकर्मी केँ अपन प्राचीन शैलीक प्रशिक्षण दिस विशेष ध्यान देबाक ज़ोर रहैत छैक, तकरा बुझबाक आवश्यकता छैक । हमसब मैथिली रंगमंचक जाहि निजताक खोज पिछला 60 – 70 साल सँ क’ रहल छी, ओहि मे शास्त्रीय, लोकपरंपरा, यथार्थवादी आदिक आड़ि-धूरि केँ छोड़ि अपन प्राचीन नाटकक सूत्र पकड़ि आगू बढ़ल जा सकैत अछि । एहि नाटक सभ मे परम्पराक प्राय: सभ तत्व शामिल छैक । अस्तु…
रंगकर्मी एवं शोधार्थी डॉ. प्रकाश झा मैथिली रंगकर्म केँ वैश्विक स्तरपर स्थापित करबाक श्रेय छनि । कतेको राष्ट्रीय, अंतराष्ट्रीय संगोष्ठी मे आलेख पाठ एवं मैथिली आ हिन्दीक महत्वपूर्ण पत्रिका मे नियमित शोधालेख प्रकाशित । पी.एच.डी. एवं नेट, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार सँ सीनियर SRF (2016) आ JRF (2004) प्राप्त डॉ. झाक कुल चारि गोट पुस्तक ‘महेन्द्र मलंगियाक सात नाटक (सम्पादित), ‘महेन्द्र मलंगिया : व्यक्तित्व आ कृतित्व (सम्पादित)’ , ‘रज़िया सुल्तान; मैथिली मे (अनूदित; प्रकाशन विभाग, भारत सरकार)’ , ‘ज्योतिरीश्वर कृत धूर्त्तसमागम : प्रस्तुति, प्रक्रिया एवं परिणति (सम्पादित)’ पुस्तक प्रकाशित छनि । 40 सँ बेसी नाटकक निर्देशक डॉ. झा जाहि मे ज्योतिरीश्वरक ‘धूर्त्तसमागम’, विद्यापतिक ‘मणिमञ्जरि’, ‘गोरक्ष-विजय’ आ पं. जीवन झाक ‘सुन्दर संयोग’ शामिल अछि 50 सँ बेसी नाटक मे अभिनय सेहो कयने छथि । 19म भारत रंग महोत्सव (2017) मे हिनक निर्देशित नाटक ‘आब मानि जाउ’ आ 20म भारत रंग महोत्सव (2019) मे निर्देशित नाटक ‘धूर्त्तसमागम’’ चयनित आ मंचित छनि । बिहार सम्मान (2015); कला, संस्कृति एवं भाषा विभाग, दिल्ली सरकार, अरुण सिंहा स्मृति सम्मान (2015); पा.ना.म.; प्रांगण, पटना, बिहार, मिथिला विभूति सम्मान (2014); अ.भा.मि. संघ दिल्ली , युवा रंगनिर्देशक (2013); साहित्य कला परिषद, दिल्ली सरकार , स्वर्ण पदक (अभिनय;1996); ल.ना.मि. विश्वविद्यालय, दरभंगा, बिहार आदि सम्मान सँ सम्मानित डॉ. झा सम्प्रति मैलोरंग रेपर्टरी एवं प्रकाशनक संस्थापक निदेशक, सुप्रसिद्ध रंग संस्था ‘संभव, दिल्ली’क अभिनेता आ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्लीक’ नाट्यशोध पत्रिका ‘रंग प्रसंग’क सहायक सम्पादक छथि । हिनका सँ prakashjha.nsd@gmail.com पर संपर्क कयल जा सकैछ ।
*ई आलेख ‘घर-बाहर’क अक्टोबर-दिसम्बर अंक मे सेहो प्रकाशित भेल अछि ।