वास्तवमे नेपालीय मैथिली जीह थिक मैथिली भाषा-साहित्यक । जीह कोनो वस्तुक स्वादक बोध करबैत अछि, कोनो वस्तुकेँ उदरस्थ करबाक जोग बनबैत अछि, आ सभसँ बेसी ई जे कोनो वाणीकेँ स्पष्ट उच्चारण दैत अछि । ई नेपालक मैथिली नाटक थिक जे हमरा लोकनिकेँ साहित्यक बोध करौलक, वस्तुत: ओ तँ मानसिक भोजनक सचारे लगा देलक । एहन स्वाद-वैविध्य आर कत’ भेटत ओहि कालमे ? नेपाल विविध स्वादिष्ट भोजने टा नहि देलक, स्वादबोधक पहिल पाठो पढ़ौलक, कसौटी सेहो देलक । कसौटिए जीह थिक । जँ आइ धरि नेपालीय मैथिली साहित्य, मानि लेल जाय, अननुसंधिते रहैत, तँ विद्यापतिक बादसँ चन्दाझा धरिक विशाल कालखण्ड, सपाट उस्सर मैदान नहि, मरुभूमि नहि तँ आर की रहैत ? जलक स्रोत, धन्य हिमालय, जे फूटल आ शतधार भ’ साहित्य-क्षेत्रकेँ हरियर-कंचन बना देलक । हिमालयक स्रोत जँ नहि फूटल रहैत तँ ई साहित्य अन्न-पानि बिना देह टिकौने रहि सकैत की नहि, से कल्पनाक विषय थिक । जँ जीवित रहबो करैत तँ पाचनशक्ति नष्ट भ’ गेल रहितैक ओतबा दिनमे । हिमालयसँ निस्सरित झरनाक ओ स्वच्छ-शीतल अमृत जल लारकेँ बनौने रहल । आइ केहनो आँकड़-पाथर जे हमरा लोकनि पचा लैत छी, से ओही लारक प्रतापेँ । जीह तेहन-तेहन शिलाखण्ड जे पचयबाक अभ्यस्थ भ’ गेल छल तहिए !
ई सभ तँ अपन स्थानपर अछिए, मुदा सभसँ उल्लेखनीय आ आवश्यक विषय ई थिक जे जीह वाणीकेँ स्पष्ट उच्चारण दैत अछि । ओहि मैथिलीक कण्ठ कत’ फुटलनि ? बाजब कत’ सिखलनि ? जीह कत’ लाड़’ अयलनि ? उत्तर साफ अछि । तहिना ईहो ऐतिहासिक सत्य अछि जे एहि मैथिलीकेँ स्पष्ट उच्चारण, खाँटी निजत्व, नेपालेमे भेटलैक । आइ जँ नेपाल नहि रहैत एहि मैथिलीकेँ अंगीकार कयने– ज्योतिरीश्वर आ विद्यापति रहि सकितथि अपन ? ईहो नेपाले छल जे संसारक समक्ष सिद्ध कयलक जे मैथिली बङला नहि थिक । मैथिली मैथिली थिक आ बङला बङला । ई नेपाले छल जे सिद्ध कयलक– मैथिली हिन्दी नहि थिक । आइ जँ नेपालमे मैथिलीक सुच्चा रूप नहि अक्षुण्ण रहैत तँ समुच्चा मैथिलीक सम्पदे लुटा जाइत । जहिना जानकी-मैथिलीकेँ वाणी नेपालमे भेटलनि, तहिना मैथिली साहित्योकेँ वाणी नेपालेमे भेटलैक । तेँ हम ई कहलहुँ अछि जे मैथिलीकेँ जीह नेपाले देलक ।
एहि अकाट्य तथ्यक उल्लेख कोना छोड़ल जा सकैत अछि ?
नेपाल जहिना सुरक्षित, भारत तहिना अरक्षित । भारत सदा वाह्य आक्रमणसँ आक्रान्त । विशेषत: मुसलमानी शासनकालमे मिथिलाक विद्वान्- साहित्यकार लोकनि बेसी भयभीत, शोषित, पीड़ित रह’ लगलाह । जखन हुनका लोकनिकेँ धर्मपर संकट आबि गेलनि, तखन ओ लोकनि पाया टपि नेपालमे शरण लेलनि । नेपाल हुनका लोकनिक हार्दिक स्वागत कयलक । भारतक मस्तिष्ककेँ नेपाल माथपर रखलक । भारतीय विद्वान् लोकनिकेँ सेहो सोनमे सुगन्धि भेटलनि– धर्म-सुरक्षाक गारंटीक संगहिँ काव्यरसिक सरकार आ समाज भेटलनि । हुनका लोकनिक प्रतिभाक गाछ भकरार भ’ फुला उठल, फूल महमहा उठल, वातावरण गमगमा उठल । तालपत्रपरक फुलायल ओ फूल– ओ अम्लान सुरभित फूल– सन्दूक-सन्दुकचीमे सैँति-सैँति राखल जाय लागल । से, आइयो धरि भावी पीढ़ीक बाट तकैत अधिक मात्रामे रखले अछि ।
भारतीय प्रतिभाक पलायन बराबरि होइत रहल अछि । मैथिली साहित्यकार कतहु सीमा टपल अछि तँ ओ पयाक पार गेल अछि । नेपाल तहियो प्रतिभाकेँ माथ चढ़ौने छल, आइयो माथपर रखने अछि। वस्तुत: नेपाल जखन बजैत छी, तखने विदेशत्वक भान होइत अछि । ओना, जनकपुर आ एकर पार्श्ववर्ती इलाकाकेँ मिथिलाक लोक कहियो विदेश नहि बुझलक, अपन गाम आ एकर अंचलमे कोनो भेद नहि देखलक । मिथिलाक तँ महान् तीर्थ थिक जनकपुरधाम । जनकपुरधाम सांस्कृतिक राजधानी थिक– मिथिलोक । पायाक पारोक दूर-दूर धरिक लोक पयरो एहि ठाम अबैत अछि तथा जानकी आ रामचन्द्रक दर्शन क’ घुरि जाइत अछि– कोनो पासपोर्ट–विसाक प्रयोजन नहि । पायाक एक पारक लोकसँ पायाक दोसर पारक लोक रहरहाँ रक्तसम्बन्ध स्थापित करैत अछि, नोत-पिहान करैत अछि । दू देश वस्तुतः एक गामक दू टोल भ’ गेल अछि । तेँ पं. जीवनाथ झा, प्रो. धीरेन्द्र, प्रो. धूमकेतु, मथुरानन्द चौधरी माथुरसँ ल’क’ महेन्द्र मलंगिया आ हुनक बादोक लोक रहल होथि वा होथि– जनकपुरमे आबिक’ सांस्कृतिक दृष्टिएँ विदेशी ने मानल गेलाह, ने मानल जाइत छथि । हमरो लोकनि पं. सुन्दर झा शास्त्री, डॉ. रामावतार यादव, रामभरोस कापड़ि भ्रमर, अयोध्यानाथ चौधरी आ आनो समाङकेँ विदेशी नहि मानैत छियनि । दुनू ठामक लोकमे वैह रहन-सहन, वैह भाषा-भूषा, वैह संस्कृति-संस्कार, वैह आचार विचार, वैह विधि-व्यवहार ।
मुदा, एक टा बात, जे हमरा कहब छूटल जा रहल अछि, आ जे कहब सभसँ जरूरी बुझैत छी, से ई जे मैथिली साहित्यमे नेपालक योगदानकेँ जतबा हमरा लोकनि बुझि रहलिऐक अछि, वास्तविकता ताहिसँ कतोक गुण अधिक छैक । योगदानक मूल्यांकन, उचित आ यथार्थ मूल्यांकन तँ तखनहि सम्भव भ’ सकैछ जखन सभटा सामग्री समक्ष हो । से, नेपालक अधिक समग्री, मल्लकालीन आ मल्लोत्तर, सुनैत छी जे कोनो पुस्तकालयक कोनो आलमारीमे तँ कोनो घरक कोनो टुटलहा बकसा-सन्दुकचामे तँ कोनो साबिक लोकक बान्हल कोनो मोटा-बस्तामे बन्द भेल औना रहल अछि आ प्रकाशक बाट जोहि रहल अछि । अनुसन्धाता-आलोचक लोकनिक दृष्टि ओहि दिस पड़ब आवश्यक, हुनक डेग ओहि दिस बढ़ब जरूरी । एक बेर सारस्वत हिमालय-विजय सेहो हो । प्रयास तँ करी अपना लोकनि अभियानक । तखनहि हम कि अहाँ नेपालक योगदानकेँ, वास्तविक अवदानकेँ नापि सकब । एखन तँ फित्ता सभ गोटे बढ़ौनहि जा रहल छी, कत’ धरि ल’ जयबाक अछि एकरा, से क्यो बुझि नहि रहल छिऐक ।