- प्रेम करबाक आश्वासन
ज्ञात अछि हमरा
एक दिन नहि रहब हम
आ हमर मोनक संग
ध्वस्त भऽ जायत हमर संसार
तखन हमरा पर
हमर अनुपस्थिति मे
नोर बहायत लोक
विरोधियो करत हमर प्रशंसा
तुष्ट करत
अपन निर्विरोध अहम् केँ
मृत्यु केँ पाग पहिरबैत लोक
कियैक हुसि जाइत अछि जीवन मे
कियैक नै क’ पबैत अछि प्रेम
जखन कि बुझैयै लोक
घृणाक कुंड मे उबजुब करैत ओकरा
प्रेमे तऽ उबारने छैक बेर-बेर
पता नै कतेक निमाहि सकत लोक
कतेक हम निमाहि सकब
मुदा सारा पर फूल-पात निकालि
प्रकृति तऽ निमाहिये लेत प्रेम
आ एतबा आश्वासन पर्याप्त थिक
प्रेम मे जीबाक लेल।
- प्रेम थिक प्रदान
माटि सँ बनल देह
माटिये सँ लेने अछि वासना
एक-एकटा कोशिका मे
जोगौने अछि जीजिविषा
चेतनाक चेन्हासी बनल
वासना झरैत अछि नित्तह
सर्जनक पीड़ाजन्य प्रसव मे
आ होमय चाहैए मुक्त
होमय चाहैए त्याग
होमय चाहैए प्रेम
मुदा रोकने रहैयै स्वयं केँ
वायवीय होयबा सँ
प्रेमक यात्रा
वासने सँ होइत अछि शुरू
जे भेटल छैक जकरा
वैह कऽ सकैछ ओ दान
वासना आदान थिक प्रिये
आ प्रेम थिक प्रदान ।
- प्रेमक रंग
प्रेम पर कविता लिखैत काल
अभरैत अछि कतेक नाम
हीर, फ़रहाद,जुलियट,राधा
मुदा
एहि सभ मानस-चित्र केँ हटा
अहाँ बनि जाइत छी स्थायी वृत्ति
हे मीरा!
भने लोक विक्षिप्त बुझओ अहाँ केँ
हम जनैत छी—
जतय बुद्धिक टूटि जाइत छैक हियाव
ताहि सँ ऊपर अछि अहाँक आसन
जतय सँ फुसिया दैत छी अहाँ
तुलसीक प्रसिद्ध वचन—
” बिनु भय होहि न प्रीति”
पीबि क’ हलाहल
दै छी निर्भीकताक परिचय
प्रमाणित करैत छी अहाँ
तरुआरि पर चलब थिक प्रेम
ई कोनो कायरक काज नहि
संगहि इहो आस जगबै छी
जे अदृश्य आलंबनक प्रति
जँ भऽ सकैछ प्रेम एहन निस्सन
तऽ संभव छैक प्रेम
एक मनुक्खक दोसराक प्रति
ओना राना सभक कमी नहि छैक आइयो
ताज़ लेल कृष्णाक बलि चढ़ाएब
आ पाग लेल मीरा केँ जहर देब
मुसलसल चलिये रहल अछि
ओना भरोस अछि
रैदासक कुच्ची ढौरैत रहत
मीरा सन प्रेमी केँ सदति
प्रेमक रंग मे ।
- कबीरक प्रेम-डगर
कबीर दास कहने रहथि—
जे पढ़य अढ़ाइ आखर प्रेमक
से कहाबय पंडित
तेँ सगरो होइयै पंडितक दर्शन
आखरे मे निमहल जाइयै प्रेम
साइत हुनका सभ केँ नै छनि याद
कबीर दास इहो कहने रहथि—
प्रेम-गली ततेक ने ओछ छैक
जे दू गोटेक गुंजाइश नहि
आ एहन आत्मार्पणक लेल
घर तऽ उजाड़हि पड़त
तेँ वैह इहो कहैत छथि—
जे अपन घर जराबय चाहैत छी
से हमरा संगे आउ…
मुदा, हुनक आह्वान पर
कहाँ छथि कोनो पंडित तैयार
पंडिताइ छनि असोथकित भेल
अढ़ाइ आखर भेल छनि अनभुआर
जीवनक कक्षा मे पढ़ब छनि बाँकी
कबीरक प्रेम-डगर धरब छनि बाँकी।
- प्रेमहीन मानवता
नव वर्ष
पुनः देलक अछि दस्तक
की बदलि सकब हम
निकलि सकब
अपन बान्ह-छान्ह सँ बाहर
कऽ सकब अंगीकार
मनुष्य मात्र केँ
द’ सकब सम्मान
जीवमात्र केँ
मिथ्या परिचितिक मोह छोड़ि
मानि सकब
विश्वकेँ एक
कऽ सकब प्रेम चराचरसँ?
चुनौती अछि पैघ
मुदा करहि पड़त स्वीकार
नहि तऽ
घृणाक अभाव मे ठाढ़ प्रेम
घृणाक उपस्थित होइते
शस्त्र राखि बनि जायत क्लीव
आ मिथ्या प्रेम-घृणाक मध्य
एहिना
धधकैत-पझाइत-मिझाइत रहत
प्रेमहीन मानवता ।
नारायण जी मिश्र
हरिणे गामक नारायण जी मिश्र शिक्षक आ रचनाकार छथि।ई मूलतः कवि छथि। हिनक पाँच गोट पोथी प्रकाशित छनि जाहि मे तीनटा साहित्यिक आ दूटा गैर-साहित्यिक पोथी छनि । हिनक कविता संग्रह सभ अछि— पेंटाक्रेसीक विरुद्ध (मैथिली), मेरे चंद अशआर (हिन्दी ग़ज़ल संग्रह), कखनो बनि आबी बदरा (मैथिली गीत संग्रह) । हिनका सँ सम्पर्क हिनक मोबाइल +91-85398 53872 पर कयल जा सकैछ ।