दिव्यांग (कथा) — प्रदीप बिहारी

भगत जी फेर देखि लेलनि।
पछिलो यात्रा मे देखि लेने छलाह आ बड़ आग्रहक संग बुकिंग काउण्टर, जत’ ओ बैसैत छलाह, ल’ गेलाह। ओहू दिन देखि लेलनि। हम प्लेटफॉर्म पर डाँड़ मोड़नहि रही कि टोकि देलनि, “अहाँक टेन बीस मिनट लेट अछि। चलू भीतरे।”

हम सोचलहु़ँ, भने कहैत छथि। एहि एक बजे राति मे प्लेटफॉर्म पर बैसि बोरे होयब। भने भगते जी लग जाइत छी। आ हम हुनक संग ध’ लेलहुँ। ओना मोन नहियो होइतए तैयो जाइए पड़ैत।

भगत जी अपना सँ कने हटि क’ कुर्सी देलनि। एकसरिए छलाह, से देखितहुँ हम पुछलियनि, “एकेटा खिड़की खुजल छै ? आर गोटे ?”

“हँ, राति क’ एकेटा खुजैत छै। बेसी भीड़ नहि होइत छै। सम्हरि जाइत छै।”

हम पुछलियनि, “एसगरे बोर भ’ जाइत होयब?”

“नहि, से नहि होइत छी” भगत जी बजलाह, “टिकट लेब’ बला सभ अबिते रहैत अछि। देखै नहि छियै, कत्ते लोक छै मोसाफिरखाना आ प्लेटफॉर्म पर। हब-गब होइते रहै छै। पटोटनि देने अछि यात्री सभ। बोर किएक होयब? इनक्वायरी मे सेहो लोक सभ रहिते छै।”

हमरा मोन पड़ल। अपन पछिलो यात्रा सभ मे देखैत रहै छी आ आइयो देखलहुँ। देखलहुँ जे यात्रीक अलाबे सेहो किछु गोटे सेहो सुतल रहैत अछि। हम किछु केँ चिन्हैत छी।

पछिलो खेप जखन भगत जी लग बैसल रही, त’ ओ बाल-बच्चा सभक मादे पुछने रहथि। हम अन्दाज कयलहुँ जे एहू बेर पुछताह आ फेर अपन बच्चा सभक मादे कहताह। मुदा एहि बेर हमर बच्चा सभक मादे नहि पुछलनि। अपन एकमात्र पुत्रक मादे कह’ लगलाह, “हमर लड़का एम. ए. क’ गेल केमिस्ट्री सँ।”

“नीक बात। सूनि क’ नीक लागल।” हम कहलियनि।

“नीक बात की यौ? कतहु ठ’र लगै तखन ने।”

“से लागल रहत, त’ लगिए जेतै।”

“रिजल्ट ओतेक बढ़िया नहि भेलै।”

तखनहि एकटा यात्री टिकस लेब’ आबि गेलै। ओकरा टिकस देलनि। आ कह’ लगलाह, “दिल्ली मे कोनो कम्पनीमे एकटा काज भेटलैए- बाइस हजार टाका पर। कहैए चलि जायब।”

“ठीके त’ छै, कहियौ चलि जाय।”

“अहूँ हद करै छी सर। ओहि पाइ सँ दिल्ली मे की हेतै? एखनि जेना एत’ रहैए, ओहुना रहल नहि हेतै। आ नहि जुड़तै, त’ डर होइए जे…”

“की?”

“कोनो खराप काज दिस ने लागि जाय।” भगत जी बजलाह।

“जरूरी छै से।” हम कहलियनि, “एहिठाम पिताक भरोसे अछि, ओत’ अपना पर रहत। जतबे कमायत, ततबे खायत। तहिना रहत। अभाव बुझयतै, त’ प्रयास करत जे किछु आर सिखी, प्रगति करी। जाय दियौ, बाहर गेने धिया-पुताक आँखि-पाँखि खुजै छै। पुत्रमोह त्यागू।”

हमर बात भगत जी केँ नीक नहि लगलनि। ओ उतारा देलनि,, “नहि सर। हमर बेटा अछि ने। ओ कतेक की क’ पाओत, से बूझै छी हम। हम त’ कहलियैए जे एतहि कोनो कोचिंग सेन्टर मे छओ मास नोकरी क’ ले। तकर बाद कोचिंगक छक्का-पंजा बूझि जयबें। तखन ठाढ़ क’ लिहें अप्पन कोचिंग सेन्टर। घरक काज, पाइ सेहो अफरात।”

हमरा मोन पड़ल विभिन्न शहरक कोचिंग हब। बड़का-बड़का बैनर-पोस्टर। विभिन्न प्रकारक वाहन परक प्रचार। संचालक आ विषय-विशेषक ‘सर’ सभक आदमकद कट-आउट। छौंड़ा-छौंड़ी सभक मेला। यैह सभ त’ ने आकर्षित करैत छनि भगत जी केँ! हम कहैत छियनि, “कोचिंगो मे कम मेहनति आ संघर्ष नहि छैक।”

“से त’ छैक। मुदा, किछ ट्रिक सेहो छै।”

“माने?”

“छओ मास कोनो कोचिंग मे काज करत, सभ किछु बूझि जायत। सभ सँ पैघ ट्रिक छै जे अखबार आ स्थानीय टी वी बला सँ दोस्ती।” तुरन्ते सुधारलनि, “दोस्तिए नहि। ओकरा सभक संग उठब-बैसब। मुट्ठी ढ़ील करब।”

तखनहि टिकस खिड़की पर दूटा महिला अयलीह। पाइ बढ़बैत बजलीह, “पानीपत के दूगो टिकट दहो साहेब।”

ओ साधारण डिब्बाक दू टा टिकस ओकरा दुनू केँ देलनि आ हमरा दिस घुरैत बजलाह, “बेटीक पढ़ाइ चारि मासक बाद पूरा भ’ जयतै। ओकर केम्पस भ’ गेल छै। कौलेज सँ बहरयतै आ ज्वाइन क’ लेतै। ओकर पढ़ाइक श्रेय अहींक।”

“से की?”

“अहाँ जँ लोन नहि देने रहितियै, त’ कोना पढ़ा सकितियै इंजिनियरिंग आ मैनेजमेंट । जें बैंक सँ लोन भेटल, तें ओ पढ़ि सकल।” भगत जी बजलाह।

“फेर जेना किछु मोन पड़लनि हुनका, ” अएं सर। हमर पर्सनल लोन आब साल भरि मे समाप्त भ’ जेतै। पहिने सधा देबै, त’ व्याज मे किछु छूट भेटतै?”

“अहं।”

“कोनो बात ने।” भगत जी बजलाह, “ओही लोन दुआरे ई रतुका ड्यूटी करै छी। हप्ता मे दू दिन पड़ैए। प्रति राति चारि हजार क’ बनैए। एक रातिक लोनक अतिरिक्त किस्त आ एक रातिक रेकरिंग डिपोजिट। नोकरीक बाद छौंड़ीक बियाहोक बारे मे सोच’ पड़त ने। ताबत छौड़ो जमि जाइत त’ एक्के खर्चे दुनू केँ निमाहि लितहुँ।”

हम बेर-बेर मोबाइल मे अपन टेनक स्थिति देखैत रही। टेन अबेरे भेल जाइत छल। बीच-बीच मे यात्री आबय आ टिकस ल’ क’ चलि जाय।

टिकस खिड़की पर पहिलुक दुनू महिला आयलि आ उपराग देब’ लागलि, “हौ साहेब। बेसी पैसा ल’ लेलहो। सठि बरसो के आ हमरो बराबरे पाइ ल’ लेलहो। सठिबरसा के कम होतै ने!”

भगत जी उतारा देलनि, “से बोललहो ने किए। हम्मे समुद्री पढ़ने छिकियै जे जनबै। बोलितहो आ कार्ड देखबितहो तब ने। आब जे टिकट कटि गेल’ से नञि घुरत’।”

युवती बाजलि, “घुरतै ने किए? सरकार बेसी ल’ लेतै त’ घुरौतै नञि?”

भगत जी बजलाह, “नञि घुरत’।”

बूढ़ी युवती केँ रोकलकि, “चुप। चल। जे होलै, से होलै। सरकार के घर मे जे चलि जाइ छै, से नहि घुरै छै। चल। इहे ने जे बटखर्चा के दिकदारी होइ जेतै। देखल जेतै।”

मुदा युवती से मान’ लेल तैयारे नहि छलि, “घुरतै ने किए? हे हौ साहेब! हे देख लैह अधार काड आ घुरा दहो बाँकी पाइ।”

भगत जी बजलाह, “हे दिदिया! ई कार्ड टिकट लै घड़ी देखैतहो, त’ हम्मे द’ दितिअ’ सठिबरसा टिकट। आब किछ ने भ’ सकै छै।”

युवती तमसा गेलि, “अएं हो, हम्मे तोहर दिदिया सन लगै छिकिय’? अपन उमेर के खियाल नञि छ’? माथमे एको गो कारी केश नञि छ’ आ हमरा दिदिया बोलब करै छहो…”

बिच्चहि मे टोकलनि भगत जी, “नञि, दिदिया नञि, बेटी सन छहो। चुप होइ जा बेटी आ प्लेटफॉर्म पर चलि जाह।”

तखनहि एकटा यात्री टिकट लेब’ आयल। ओकरो पानीपतक टिकट चाही छलै। भगत जी ओकरा सभ बात कहि मनौलनि जे ओ ओहि बुढ़ीक टिकस ल’ लिअए। ओ यात्री एकबेर ओहि बूढ़ी दिस तकलक, भगत जी आ हमरा दिस तकलक आ युवती दिस तकलक आ मानि गेल। बूढ़ी बला टिकस नीक जकाँ देखलक। तिथि आ गंतव्य टीसनक नाम पढ़लक। तखन बूढ़ी बला टिकस ल’ लेलक। भगत जी बूढ़ी केँ दोसर टिकस देलनि।

हमरा दिस तकैत बजलाह भगत जी, “देखै छियै सर। केहन-केहन सभ अबै छै।”

भगत जीक काउण्टर पर पचटकही आ दसटकहीक सिक्काक गेंट पर बड़ी काल सँ नजरि छल। एकटा बात आर हम देखलहुँ। जकरा चारिटा टिकस लेबाक रहैत छै, ओकरा एके टिकसमे चारि सवारी छापि क’ नहि दैत छथि भगत जी। हम पुछलियनि, “चारिटा टिकस एक्कहु ठाम छापि क’ देने विभाग केँ कागत आ छपाइबला मोसि त’ बचतैक। अहाँ सभक साफ्टवेयर मे एहन व्यवस्था नहि अछि की?”

“व्यवस्था छै सर।” भगत जी बजलाह, “यात्री देखि क’ काज करैत छी। पढ़ल-लिखल केँ एके ठाम दैत छियै। मजदूर आ अखरकटुआ सनक यात्री केँ फुट्टे-फुट्टे दैत छियैक। एक ठाम देबै आ कोनो काजे कोनो टीसन पर उतरल आ टेन ससरि गेलै। छूटि गेल। तखन संग मे टिकस रहतै, त’ दोसरो पकड़ि सकैए। जँ एकेठाम टिकस रहतै, त’ पड़ि जायत फेरा मे। आ जँ कोनो टी टी ध’ लेलकै, कि गेल…। सिसोहि लेतै।” कने थम्हैत बजैत छथि, ” एखने देखलियै ने। एकठाम टिकस काटने रहितियै, त’ ओहि मौगीक सेटलमेंट होइतैक? बुझियौ! दिदिया कहि देलियै, त’ कोना बमकि गेल।”

तखने एकटा स्वर सुनलहुं, “सर। एखने द’ दिअ’?”

हम घुरि क’ तकलहुँ। ओहो हमरा देखलक। हम चिन्हलहुँ। ई त’ होरिला अछि। हरिलाल। जखन हम डेली पसिंजरी करैत रही, त’ बरोबरि टेन मे वा प्लेटफॉर्म पर भेटय। अपन दुनू सुखायल पयर आ पोन घिसिअबैत मांगय। एकबेर एकटा मास्टरनी होरिला केँ देखि बाजल रहथि, “देह जेहन चकेठगर छै, मुदा डांड़ सँ नीचाँ केहन सुखायल छै। भगवानो अकरहक लीला करैत रहै छथिन।”

भगत जी बजलाह, “कत्ते छौ?”

“बारह सौ।” होरिला बाजल।

“एकाध घण्टा बाद अबिहें।”

“राखि लियौक ने। आब हमर दोकनदारी थोड़े चलतै? हमहूँ जइबै सुतय।”

“ओ ” हमरा पुछलक होरिला, ” एखन कतए छहो साहेब?”

“चिन्है छहुन !”

“हँ, चिन्हबै नञि । तीन बरस अइ लाइन मे डेली पसिंजरी कइने छिकथिन।”

होरिलाक मुँह सँ बहराइत दारूक गन्ह पसरि गेल रहैक।

“भगत जी बजलाह, ” कने बूलि आ। सर सँ गप करै छी। जनहित पास केलाक बाद अबिहें।”

होरिला मुस्किआइत अपन देह केँ घिसिअबैत बहरा गेल, त’ भगत जी बजलाह, “ई जे रेजकी सभक थाक देखै छियै, से एकरे सभ सँ लैत छी। सुनलियै नहि, भरिदिनक बारह सय।”

“मुदा, दारू कत्ते पीने छल? कत’ भेटै छै? शराब बन्दी मे…?”

“खूब भेटै छै। एकरा सभ लेल कोनो कमी नहि छै।”

हम होड़िला केँ घिसिआइत जाइत देखैत रहलहुँ। हमरा मोन पड़ल भिलबा। ओहो टेन मे मंगैत छल। पोन मे टायर बन्हने आ दुनू पयर मे सेहो लत्ता लपेटने टेनक डिब्बा मे घिसिआइत रहैत छल। हँ, ओकरा हाथ मे एकटा पितरिया फुलडाली रहैत छलैक। ओहि मे ललका एकरंगा सँ लेपटायल छोट-छोट मूर्ति । भिलबा अपनहुँ एकरंगे पहिरैत छल आ कपार पर रहैत छलैक लाल रंगक बड़का ठोप। हमरा ओकरो सँ चिन्ह-जान भ’ गेल छल।

एक दिन हमर टेन छूटि गेल रहय। दोसर टेन कैन्सिल। हम खगड़िये मे रहि गेलहुँ। राति मे होटल मे खयबा लेल गेलहुँ। टेबुल पर बैसितहि रही कि बामा कातक केबिन दिस नजरि गेल। भिलबा कुर्सी पर बैसल छल। पयर नीचाँ लटकौने छल।अचरज लागल। पयर दुरुस्त छलै। टेबुल पर मुर्गा, रोटी आ निप्सक एकटा बोतल। ताहि समय प्रदेश मे निसाँबन्दी नहि भेल रहैक। भिलबाक टेबुल परक बोतल अधिया गेल छलैक। हमरा रहल नहि गेल। पुछिए देलियै, “की हौ भिलबा? एत’ त’ एकदम फीटफाट देखै छियह।”

ओ हमरा दिस ताकलक आ बाजल, “सर! एत’ भिलबा नञि, भीलो साहु छिकियै। बैसियौक। लेबै? मंगबियै?”

हम कहलियैक “नहि, हम नहि लैत छी। हम ओम्हर बैसि क’ खाइत छी। “

हम दोसर टेबुल पर बैसि गेल रही।

भिलबाक स्वर सुनलहुँ, “हे रे! बेर-बेर कहब करै छिकियौ जे ई पर्दा तानि क’ राख, से दिमागिक गुद्दा मे नञि घुसब करै छौ। पाछ सँ घुसा क’ गोली दगबौ ने, त’ दिमागि अपने खुजि जइतौ ।”

हम ओहि स्वर दिस नहि तकलहुँ। किनसाइत होटलक टहला केँ कहैत हो। भिलबाक साँच देखि हमरा अचरज नहि भेल।

तकर बाद टेन मे जखने भिलबा भेटय, हमरा देखि मुस्किया दिअए। हमरा मोन भेल रहय, जे भिलबा सँ बहुत रास गप करी, मुदा तकर सुयोग नहि भेटि सकल।

मुदा, मंगनुआ एहन नहि छल। कड़ा जुआन छल। डाँड़ सँ नीचाँ जेना चाम आ हाड़ झुलैत होइक, मुदा ताहि सँ वर्दी एकदम दुरुस्त। बुझू जे गस्सल-गस्सल देह। बयसे किशोर, मुदा छल धरि परिपक्व। ओ टेन मे कहियोकाल मांगैत छल, बेसी काल प्लेटफॉर्मे पर रहैत छल। शूरुह-शुरुह मे गीत गाबि-गाबि मांगय। गीत सुनलाक बाद जँ केओ एकटकही वा दूटकहीक सिक्का द’ दैक, त’ ओकरा गारि पढ़’ लगैक। कहैक- भीख दै छहो? कम स’ कम पचटकही त’ देबे करहो। एगो गीत पर एगो निप्सो के जोगार नञि होलै, त’ बेकारे ने गबै छिकियै। मंगनुआक गीत मंगनिये मे नञि सुनि सकै छहो।”

हमरा मोन अछि जे एकबेर प्लेटफॉर्मक बाहर दुनू हाथें पर नाच’ लागल रहय। लोक कह’ लगलै जे बेसी चढ़ि गेल छै। भीड़ सँ एकगोटे कहलकै जे आब त’ बन्न् भ’ गेलै, कत’ सँ पीतै?”

मंगनुआ नाच पूरा कयलक। एकटा सिपाही डँटलकै, “हे रे। ई नाटक किएक करब करै छिही। भाग साला। पोन पर दू डंटा देबौ, त’ सभटा उतरि जेतौ। विकलांग नहितन।”

बिच्चहि मे एक गोटे बाजल, “सिपाही साहेब! विकलांग नहि दिव्यांग कहियौक।”

मंगनुआ ताओ मे छल, “हे हौ सिपाही साहेब। हियां नये अएलहो हन? पुरनका आर सँ पूछि लहो हमरा बारे मे। हम्मे अपना मोन के राजा छिकियै। मोन होइ छै कि नाचब शुरू क’ दै छियै। जा… जा… वर्दी के निचा की छिकहो, से अइ प्लेटफारम पर हमरा स’ बेसी कोइ ने जनै छह।”

एकटा आर स्वर अयलैक, “कोन-कोन नाच अबै छौ?”

“सभ।” मंगनुआ बाजल, “जे मोन मे अबै छै करै छियै।”

तखने भगत जी टोकलनि, “हे देखियौ।”

काउण्टर सँ टिकट ल’ क’ जाइत एक आदमी केँ देखौलनि। पुछलनि, “केहन लगैए ई आदमी?”

“ठीके-ठाक लगैए।” हम बजलहुँ, “से की?”

“विकलांग बला टिकस लेलक अछि।”

“मुदा, तेहन त’ नहि लगैए।”

“प्रमाण पत्र छैक।” भगत जी बजलाह, “प्रमाण पत्र मे पयर मे ऐब छैक। बस उपरा लेलक सर्टिफिकेट । सर्टिफिकेट त’ आब बिकाइ छैक।”

हम मोबाइल मे टेनक स्थिति देखलहुँ। पनरह मिनटक बाद टेन केँ पहुँचबाक छलैक। भगत जी केँ कहलियनि, “पनरह मिनट मे टेन आबि जायत। आब…”

बिच्चहि मे टोकलनि भगत जी, “खबरि होम’ ने दियौक।”

तखने एक गोटे केँ हाक देलनि। ओ खिड़की लग आयल। ओकरा बीस टाका दैत कहलनि जे तीनटा चाह नेने आबय। साहेबक गाड़ीक खबरि भ’ गेल छैक। ओ हमरा टोकलक, “आइ-काल्हि सर्भिस कत’ छै सर?”

“पटना मे।”

ओ सुनलक आ चाह लेब’ चलि गेल।

हम ओकरा चिन्हलहुँ। आनन्दी छल। आनन्दी माने आनन्द पासवान। मुदा आनन्दी कहैत छैक लोक। जहिया हम डेली पसिंजरी करी, खूब गप होअय। असल होइक ई जे टेन सभ बरोबरि लेटे चलैक। बहुत रास हमरा सन-सन पसिंजर तास खेलि क’ समय बिताबय, मुदा हम एकरे सभ सँ गपसप मे समय बिताबी। गपेक क्रम मे एकदिन कहने छल, “छोटका आ मंझोलबा टीसन सभ पर कुलीक काज सँ पेट नहि भरै छै सर। “

हम प्रश्न दृष्टिए देखने रही, त’ बाजल रहय, “पेटी-बाकस आ अटैची बेडिंग बला समय गेलै। आब त’ सभटा गुड़कौआ भ’ गेलैए। लोक अपने गुड़कौने चल जाइत अछि। कुली सभक त’ बाँहिए टुटि गेलै।”

तखने भगत जी बजलाह, “आनन्दी एहि समय मे सभ दिन एत’ अबैए। बस स्टैंड सँ सिलीगुड़ीक अंतिम बस चलि जाइत छैक, तकर बाद अबैए।”

हम भगत जी सँ मंगनुआक मादे पुछलियनि, त’ बजलाह, “एम्हर दस दिन सँ नहि देखैत छियै। रेजकी ल’ क’ अबैत छल।” कने थम्हैत बजलाह, “विचित्र जीव अछि। दुनू हाथ पर जखन नाच’ लगैए त’ आधा घंटा धरि नचैत रहैए। एकदिन नचैत रहय, त’ एकटा पत्रकार फोटो ल’ लेलकै। नाचब छोड़ि देलक आ बाजल जे हमरो आर के बकसहो। अखबारि मे फोटो छापि क’ अचर-कचर लिखबहो आ किछ कमाइए लेबहो। हमरा की भेटतै? तखने ओ पत्रकार एकटा बीस टकही देलकै। मंगनुआ शान्त भ’ गेल त’ पत्रकार पुछलकै जे कोन-कोन नाच अबै छौक? त’ बाजल जे सभ अबैए। जेहन मोन होइए, से नाचै छी। एकटा नाच केँ जोगा क’ रखने छी। सोचै छी जे ऊ नाच राजधानी मे करबै। पत्रकार ओहि नाचक नाम पुछलक त’ बाजल- तांडव।”

हम चुप्पे रहि गेलहुँ। ताबत आनन्दी चाह ल’ क’ आबि गेल।

तहिया सँ हम मंगनुआ केँ राजधानी मे ताकि रहल छी, से पटनो मे आ दिल्लियो मे।

मैथिली कथा मे जे किछु कथाकार सब छथि ताहि मे प्रदीप बिहारी विश्वस्त नाम छथि । प्रदीप बिहारी छथि त’ भरोस अछि जे कथा साहित्य मकमकायत नहि।  ‘औतीह कमला जयतीह कमला’, ‘मकड़ी, ‘सरोकार’, ‘पोखरि मे दहाइत काठ’ कथा संग्रह, ‘खण्ड खण्ड जिनगी’ लघुकथा संग्रह , ‘गुमकी आ बिहाड़ि’,  ‘विसूवियस’, ‘शेष’, ‘जड़ि’ उपन्यास प्रकाशित आ कोखि एखन (प्रेस मे) छनि। एकर अतिरिक्त नेपाली सँ मैथिली आ नेपाली सँ हिंदीक कथा-कविताक लगभग छह टा अनुदित पोथी प्रकाशित छनि। पत्र-साहित्य मे ‘स्वस्तिश्री प्रदीप बिहारी’  (जीवकान्तक पत्र प्रदीप बिहारीक नाम), सम्पादित पोथी मे ‘भरि राति भोर’ (कथागोष्ठी मे पठित कथा सभक संग्रह) आ ‘जेना कोनो गाम होइत अछि’ (जीवकान्तक पाँचो उपन्यास)क अतिरिक्त संपादित पत्र-पत्रिका ‘हिलकोर’, ‘मिथिला सौरभ’ आ ‘अंतरंग’ (भारतीय भाषाक अनुवाद पत्रिका) प्रकाशित छनि। सर्वोत्तम अभिनेता पुरस्कार (युवा महोत्सव 1993 मे नाटक जट-जटिन मे अभिनय हेतु बिहार सरकार द्वारा), जगदीशचन्द्र माथुर सम्मान, महेश्वरी सिंह ‘महेश’ ग्रंथ पुरस्कार, दिनकर जनपदीय सम्मानक अतिरिक्त वर्ष  2007 मे कथा-संग्रह ‘सरोकार’क हेतु ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ देल गेल रहनि। कथाकार प्रदीप बिहारी सँ  हुनक मोबाइल नम्बर +91-9431211543 वा ईमेल  biharipradip63@gmail.com पर सम्पर्क कयल जा सकैत छनि।