जहिया हम एत’ योगदान देने रही, एक विशाल व्यक्तित्वक दर्शन भेल छल । वएह हमर समस्त प्रमाण पत्रक जाँच कएने रहथि । लगभग पाँच-सवा पाँच फीट ऊँचाईक ओहि व्यक्तित्वक चौड़ाइ सेहो ताही अनुपात मे छलनि । मुँह पर गोटीक दाग । क्लीन सेव । माथ पर छेहड़ केश । भौं सेहो तेहने । बाबा आदम जमानाक एक कोट, गर्दखोर रंगक । आ तकर नीचाँ बिनु बैल्टक ढिल-ढिल करैत पैंट । संपूर्णता मे ई व्यक्तित्व हमरा अंदर डर उत्पन्न कएने छल । पश्चात् जखन प्राचार्य महोदय द्वारा हुनक परिचय उप प्राचार्यक रूप मे कराओल गेल, तँ हम आर डरा गेल रही । डरा जयबाक एक जबरदस्त कारण ई छल जे करीब घंटा भरि प्राचार्य कक्ष मे रहलाक बादो ओहि व्यक्तित्वक एक शब्द हमर कान मे नहि पड़ि सकल छल । अपितु प्रमाण पत्र जाँचक क्रम मे कनडेरिये हमरा दिस ताकि लेब बेस भयावह लागि रहल छल ।
हम अपन योगदान द’ बाहर आबि गेल रही । पटना सँ आयल मित्र महारुद्रक संग एक पैघ निसाँस छोड़ैत जखन सड़क पर पहुँचल रही तँ अपना केँ हल्लुक अनुभव करबाक बदला भीतर सँ दबावक अनुभव कयने रही । आ आगू बढ़ि चाह पीबाक इच्छे एक फुटपाथी दोकान मे आबि बैसि गेल रही । चाहक सीप लैत हम मन केँ बहटारबाक प्रयास कयने रही । मुदा ओ विशालकाय व्यक्तित्व हमर मन-प्राण केँ आतंकित क’ देने छल । महारुद्र हमर एहि मनस्थिति पर टोकनहुँ छल, मुदा हम तकरा टारि देने रहिऐ ।
बजार मे अनेरो घुमैत करीब तीन बजे पुनः महाविद्यालय दिस घुरल रही । घुरबाक प्रमुख कारण छल प्राचार्य द्वारा ई हिदायत जे एत’ दस सँ चारि बजे धरि सभ केँ रहब अनिवार्य छै । मुदा हाय रे कर्म ! गेटे पर वएह व्यक्तित्व टकरा गेला । साइकिल गुड़कबैत, मस्ती मे चल अबैत । हमरा पर नजरि पड़िते टोकि देलनि– ‘केन्हे जाइ छहो ? चलह, फेनो काल्ह अबिहौं !’
हम ओहि व्यक्तित्वक मुँह ताक’ लागल रही, बकर-बकर ! ओ हमर मनोभाव केँ बुझैत पुनः बाजल रहथि– ‘की डर होइ छौं ! कोनो डर के बात नय छय ! कल्ह आबी जैहौं दस-ग्यारह बजें !’
हम तखनहुँ किछु नहि बाजि सकल रही । वएह पुनः बाजल रहथि– ‘चाह-ऊह होय गेलौं ! चलहों, हमरओं साथें एक कप आरू पी लेहों !’
हम चुपचाप हुनकर पाछू लागि गेल रही । फेर चाहक दोकान पर विस्तृत रूपें हमर इंटरव्यू लेल गेल– घर कतय, की नाम, धिया-पुता, परिजन-पुरजन, आदि-आदि । पुनः नमस्कार करैत आ काल्हि भेंट होयबाक अपेक्षा करैत साइकिल टुनटुनबैत ओ विदा भ’ गेल रहथि ।
ई किछु मिनटक व्यवहार हमर मोन मे विचित्रे उथल-पुथल मचा देलक । जाहि व्यक्तित्व सँ एते काल आतंकित रही, से अपन व्यवहार द्वारा तेहन सन कहाँ किछु बुझायल रहथि ! हमरा अपन सोच आ अज्ञानता पर क्रोध उठल छल । बिनु किछु बुझने-सुझने ककरो प्रति कोनो अन्यथा भाव मोन मे पोसि लेब, बड़ अधलाह लागल रहय । कोनो मित्र द्वारा कहल ई बात जे ‘चेहरा देखि क’ कोनो व्यक्ति केँ चीन्हल जा सकैत अछि आइ सर्वथा फूसि साबित भ’ रहल छल ।
ओहि व्यक्तित्व सँ नित्य भेंट होइत छल । स्टाफरूम मे हुनका सँ भेंट होयब बाध्यता छल । मुदा योगदान तिथि केँ जे हुनका प्रति भाव जनमल छल, से क्रमशः समाप्त भ’ रहल छल । पहिल दिन हुनका सँ डर भेल छल । आब जँ ओ कहियो छुट्टी पर रहैत छथि तँ खाली-खाली अनुभव करैत रहैत छी ।
तकरो एक कारण अछि ।
एकदिन हम अपन सहकर्मी मित्र कैलाश आ मदन जीक संग तरकारी बजार सँ गुजरैत रही । हुनका देखलियनि, तरकारी किनैत । स्वभावतः तीनू गोटे रुकि गेलहुँ । प्रणाम कयलियनि । ओ साइकिल मे झोरा लटकबैत रहथि । मुक्तहास संग प्रणामक उत्तर देलनि । फेर मदद जी केँ इंगित करैत पुछलनि– ‘हिनका नय पहचिनलौं !’
– ‘ई एतै गर्ल्स स्कूल मे अयला अछि । हमरे दिसक छथि !’ हम कहलियनि ।
– ‘वाह वाह, बड़ सुंदर ! मन लगैए कि नय ?’ ओ पुछलथिन ।
मदन जी लजाइत उत्तर देलथिन ।
– ‘नय कोय बात । हमहौं ओतय दस वर्ष काम करने छी ।’ ओ आगू कहलथिन– ‘की कहौं, दसे बरिस मे शरीर मौगिआन महकय लागल रहे !’ आ खूबे जोर सँ ठठा क’ हँस’ लगला ।
तकर बाद संस्मरणक एक-सँ-एक चिट्ठा सभ खोलय लगला । ओतहि, ओही दोकानक सोझा । अबैत-जाइत लोकक ध्यान एकाग्र होइत रहलै । मुदा हुनका पर तकर कोनो प्रभाव नहि । मुक्त भाव सँ, थोक रूप मे प्रत्येक शिक्षिकाक चरित्र-चित्रण एहि तरहें कर’ लगला, जेना लागल– दक्षिण भारतीय फिल्मक मैथिली मे ‘डब’ कएल चित्र देखि-सुनि रहल होइ । स्वभाविकता सँ सराबोर । सत्यापनक त’ कोनो बाते नहि, किएक तँ प्रत्येक क्रियाक ‘संजय’ स्वयं हमरा सभक सोझा मे छला !
ई क्रम करीब आधा घंटा चलल । पुनः आज्ञा लैत सन बजला– ‘अब चलै छिय’ !’
फेर कनी रुकि क’ मदन जी सँ पुछलथिन– ‘एतय बैचलर, आकि…’
– ‘नै, एखन त’ बैचलरे रहै छी !’ मदन जीक कहब रहनि ।
– ‘तब ठीक । नै तय दिन भर रूपसी बाला-तरुणी सभ के गंध-सुगंध लैत, वक्षःस्थल के दैहिक स्पर्श आ रगड़ सें जब सँझिया मे डेरा जैतौं ते रात मे बेचारी ब्राह्मणी तवाह हो जैतथ !’ आ कहैत जोर सँ ठहाका लगौलनि । पश्चात् एकट्ठे नमस्कार करैत विदा भ’ गेल रहथि ।
ई हुनक स्थायी भाव जकाँ छल । कोनो गंभीर सँ गंभीर विषय केँ देह-नेह सँ जोड़ि मुक्त हास मे परिणत क’ देब जेना हुनक स्वभाव मे छलनि । स्टाफ रूम तँ सतत हिनक ठहाका सँ गुंजित रहिते छल ।
एक दिन गप चलैत रहै– उत्तर प्रदेशक मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादवक अंग्रेजी विरोधी अभियान पर । पक्ष-विपक्ष मे होइत गर्मागर्म बहस मंडल आयोगक सह पाबि, बेसी तिक्ख भ’ गेल रहै । ठीक ताही समय उप प्राचार्य महोदयक पदार्पण भेल रहनि स्टाफ रूम मे । तुरंत बातक लगाम केँ अपना हाथ मे धरैत कहय लगलथिन– ‘अरे, अंग्रेजी के की बात करै छहो ! एक दाव तें एही कारण बड़का झमेला होय गेल रहै !’ उपस्थित समस्त शिक्षक वर्ग अपन टकरावक मुद्राक त्याग करैत उप प्राचार्य महोदयक संस्मरणक विस्फोट सुनबा लेल ‘पीनड्रॉप साइलेंस’ भ’ जाइत गेला ।
– ‘होलो एना कि…’ अपन विशेष शैली मे एतबा कहैत इच्छा भरि हँसि लेलन्हि ओ महाशय । पुनः शुरू कयलनि– ‘हमरा आर तहिया जेठौर मे काम करै रहिऐ । उहाँ एगो अंग्रेजी टीचर रहौं । बड़े टेटियाह । सब बात मे अंग्रेजी के घुसपैठी । एक दाव हमे आर , संगही सब्जी कीनय गेलियो । एगो सब्जी बाली के ऊ पुछलकै– एजी, क्या भाव है प्याज ? ऊ कुछो भाव कहलकय, से याद नय छों । तकरो बाद ऊ अंग्रेजी टीचर हमरो इंगित करि कय बोललकय– ‘इट इज टू मच !’ बस, ऊ औरतिया के एतना सुनना रहै, कि लगलै हुनी फज्झत करय– ‘तोरा मइया के हुमच, तोरा बहिनियाँ के हुमच, तोरा बेटिया के हुमच…’
– ‘हमे देखलिऐ जे आब वातावरण गर्म होय रहल छै, केनाहों ओकरा ओइ जंग से ले के भागी पड़लियो ! असल मे सब्जी बाली रहै मूरुख । ओकरा अंग्रेजी नय आबै रहै । ऊ बुझलकै जे हमर भाव सुनी ई अंग्रेजी मे गाली पढ़लकै । ‘टू मच’ के ऊ ‘हुमच’ सुनलकै आ ‘इट इज’ कोइ आउर गाली । ताही कारण एतना झमेला खड़ा कर देलकै !’
कि तखनहि टिफिनक समय समाप्त भ’ गेलै । सभ अपन-अपन क्लास दिस विदा भ’ गेल रहथि । ओ हमरा पुछलनि– ‘की झाजी किलास-उलास नय नी छय !’
हम ‘नै’ मे मूड़ी डोलौने रहियनि । तखन ओ कहलनि– ‘तबे चल’ ! सभे गेलो क्लास, हमे आर एही खनी चाय पी आबी !’
उप प्राचार्य महोदयक व्यक्तित्व तेहन रमनगर आ मनोरंजक रहनि जे विरोधी सेहो हुनक प्रशंसा करय मे कंजूसी नहि करथि । संवर्गी राजनीति मे सेहो ओ व्यक्तित्व अजेय मानल जाथि । परोक्ष मे जे-जतेक विरोध मे बाजि लेथि, समक्ष होइते हुनक क्रोध शांत भ’ जानि, आ सतत एहि फेर मे रहथि जे सर एकटा रसगर घटनाक वर्णन करथि । आ सर तँ तकर खजाना, सएह रहथि । शुरू भ’ जाथि– ‘गर्ल्स स्कूल मे रहिह’ । क्लास चलै रहै । जेठ-बैशाख के महीना । धूपा मे भुट्टा के रखि दहो, फुट के लाबा होय जयतो । ताही बेला मे हमे देखलौं कि एक लड़िकी छत्ता दिसन गेलय । हमे पहिले उन्ने ध्यान नय देलियौं । घंटी बोललै । सब टीचर के अदला-बदला भेलय । क्लास चलय लगलय । लेकिन ऊ लड़िकी लौटलो नय । तही बेला मे देखलियो जे स्कूल के प्यून भोलबा बड़े हिसाब से चउबगली देखतें, बड़ी हिसाब सें छत्ता ओरी बढ़ रहल छय । तब्बे हमर कान खड़ा होलय ! से कुइछ देरी बाद हमे चुपके से तहकीकात करे खातिर उधर गेलियो । ऊपर जाय के देखै छिय’ जे… ! की बोलिय’, हमे तुरंत लौटलौं । लेकिन ऊ लड़िकीया हमरा देख लेलकै ! तुरंत दौड़ी कय हमरो पयर छानी लेलक’– सर !
लड़िकीया ते’ ‘सर’ कहि कय चुप्पा लगाय गेलओ, लेकिन भोलबा ! बोललै– तूहू भए आब’ सर !,पानी लाइन दै छियो !…’
आ एते बाजि क’ उप प्राचार्य महोदय ठहाका मारलनि । एही बीच कोनो मखौलिया शिक्षक बजलै– ‘सर, तबे की होलै ?’
– ‘की होतै ! हमे तय नीचाँ आय गेलिअ, लेकिन जबे तलक ऊ लड़िकीया हुआँ रहल’, हमरा सामने मूड़ी उठाय नय चल सकलओ ! आ ऊ पिउन ! ऊ ते’ अभियो जब देखै छ’ त’ हाथ जोड़ के खड़ा होइ जाइ छ’ !’
एहने सन माहौल मे हम एक दिन एसगर मे पूछि देलियनि– ‘सर ! हमरा बूझल अछि जे अपने त’ छिऐ बायलॉजी के शिक्षक, किंतु एहन कोनो विषय नै छै जे अपने पढ़बै छिऐ ! सभ विषय मे ताही गंभीरता संग अध्ययन । अपने के त’ कोनो विश्वविद्यालय मे होबाक चाहैत रहय !’
हमरा ओहिना स्मरण अछि, हुनक आँखि डबडबा गेल रहनि । ओ तत्काल किछु बाजि नहि सकल छला । किछु कालक बाद मुदा कहब शुरू कयलनि– ‘झाजी ! हमे ते’ भाग्यवादी नय रहलिय’, लेकिन जबे आपन बारे मे सोचै छियो, तबे लगै छ’ भाग्य भी कुछ होय छै । हमे बायलॉजी के टॉपर छिय’ ! थ्रूआउट फस्टकिलास । एमएस्सी कइला के बाद सीएम कालेज मे लेक्चरर नियुक्त होल रहिय’ । एफलिएटेड कालेज रहै तहिया । पइसा-उइसा कुछो नय मिलै रहै । ओही समय मे हायर सेकेंडरी के भेकेंसी निकललै । अप्लाइ करि देलिऐ । सेलेक्शन भए गेलै । सोचलिऐ, ईहो ते’ लेक्चररे के पोस्ट छिऐ, हुआँ से छोड़ी के हीयाँ आय गेलिऐ ।लेकिन हाय रे करम ! हायर सेकेंडरी सिस्टम फ्लॉप कए गेलै, आ हमरा आर जिला स्कूल के ‘मास्येब’ होय के रहि गेलिऐ ! आइ ते’ हमरा से जूनियर हुआँ, सीएम कालेज मे प्रिंसिपल छिकै !’
लागल, जे व्यक्तित्व सतत अपन व्यवहार सँ, लोक केँ हँसबैत रहैत अछि, अंदर सँ कुंठित, कानि रहल अछि । हम तुरंत माहौल केँ परिवर्तन कर’ चाहलहुँ– ‘सर, ऐ बात केँ छोड़ल जाय । हमरा एकटा गप कहल जिय जे अपने गंभीर सँ गंभीर विषय केँ हास्य मे किए बदलि दै छिऐ ? आ ओहो हास्य एहन जे सेक्से धरि मे घेरल-बेढ़ल रहैत अछि !’
ओ व्यक्तित्व बिहुँस’ लगला, कहलनि– ‘हमे अपना जीवन मे लेडी कीलर सें’, ओकर जीवन-चरित सें’ बेहद प्रभावित रहलिऐ । ओकरा बादे हमे फ्रायड के पढ़लिऐ । ओकरो विचार हमरो अनुखन आंदोलित करै रहै छै । बस, एखरा खातिर आरू की बोलिय’ !’
वातावरण एकदम गंभीर भ’ गेल रहै । से बात हमहूँ गमने रही, आ सर सेहो । मुदा हम तँ एहि बात केँ मने मे लगलहुँ, सर चुप नहि रहि सकल रहथि, कहलनि– ‘छोड़’ ई सभ बात ! जीवन हँस के काट’ ! सुन’ एगो घटना ! ई घटना हमरो घर के बगल के छै । एक दाव हमरो परोसी के बेटा, जे नोकरी करै रहै, छुट्टी मे घर आयल रहै । राती के बखत रहै । खाना-ऊना खाय के जबे ऊ सोये के खातिर घर मे अइलै, तें थोड़ा देर बाद ओकरो कनिआइन भी अइलै । बेटबा बोललै– डियर, सटप द डोर ! ऊ पल्ला दुनू बंद करि देलकै । बस, बात अइलै-गेलै-खतम होय गेलै । भिन्ने पहर कनिआइन आपन दैया से, जे ओकरो एकउमरिया रहै, गपसप करै रहै । गपे-गप मे दैया पुछलकै– ‘रतवा मे मालिकार की बोलै रहौ !’
– ‘की बोलै रहथिन ?’ ओ पुछलकै ।
– ‘हूँ, हमरे सें ठट्ठा करै छहो ! हमे सब्बै कुछ सुनलिय’ ।’ दैया कहलकै ।
– ‘ठिके बोलै छिय’, हमरा कुछो याद नय छै !’
– ‘हमरा नय खेलब’ ! मलिकार नय बोललखुन जे ‘डरो न, सट के बिदोर !…’
आ शब्दक अर्थ-अनर्थ पर सोचैत सर आँखि मूनि ठहाका मारलनि ।
मुदा हमर मोन मे होइत रहल जे ई व्यक्तित्व किछु चोरबैत अछि । मुदा भाँज नहि लाग’ द’ रहल अछि ।
संयोग कही जे किछु दिनुक बाद चाहक दोकान पर बैसल दूनू गोटे चाह पिबैत रही । हम पूछि देलियनि– ‘सर ! हमरा लगैए जे अपने लोक सँ किछु चोरबै छिऐ ! अहाँक अंदर मे किछु एहन दर्द अछि, जकरा फ्रॉयड वा कीलरक लेप द’ बहटारै छिऐ !’
ओ हमरा दिस तकलनि । आ बड़ी काल धरि धरि तकिते रहि गेला । फेर एक पैघ निसाँस छोड़ैत कह’ लगला– ‘झाजी ! आइ तू हमरा मरम पर हाथ रखि देलहो ! हमरो चार ठो बेटा छिकै । सभे वेल क्वालिफायड । लेकिन बेरोजगार ! हमे सोचै छिऐ जे दो साल बाद हमे जब रिटायर करी जयबै, तबय ओकरओ आर के की होतय !’ आ कहैत चुप भ’ गेला । आकाश दिस ताक’ लगला ।
किछु काल बाद पुनः कहलनि– ‘ई दुख-दरद ते’ टारलो जाय सकै छै, लेकिन एगो लड़िकीया पड़लो छै ! ताक-हेर के थकी गेलिअय । लड़का वला के एतना बड़ा मुँह छिकै जे हम मास्टर आर ते’ कोनो भी सूरत मे भर न सकै छिऐ ! झा जी ! हमे तेहन अभागा बाप भेलिअय जे संतान के खातिर कुच्छो नय करी सकलिअय ! सच कहो ते’ ईहय दरद हमरा तोड़तें रहै छै, आ हमे ओकरा भूलै के खातिर हँसै-हँसबैत रहै छिऐ !’
आ कहैत ओ उठि गेला चाहक पैसा देबाक लेल । हम हुनका जाइत देखैत रहलहुँ ।
पाइ द’ क’ जखन ओ घुरला, तँ हमरा चिंतित भेल देखि कहि उठला– ‘चल’ झाजी, एगो खिस्सा अओरो बोली दै छिअ ! हमे जहिया गर्ल्स स्कूल मे रहिअय, ते’ ओही समय मे एगो हृष्टपुष्ट देहयष्टि वाली एनसीसी टीचर रहओ…’
कि तखनहि ए टीचर सरवरे आलम दोकान मे प्रवेश लेलनि । बदरी लागल रहै । धूनि सेहो । जाड़े सिरसिराइत रहथि बेचारे । मुदा अविवाहित रहथिन । की करितथि । सर पर नजरि पड़िते बाजि उठला– ‘सर ! इस वेदर को क्या हो गया है ! कैसा-कैसा तो लगता है…’
सर तुरंत बाजि उठलथिन– ‘केतना बढ़ियाँ ते’ छै ! लेकिन तू नय समझबहो ! एकरओ बोलै छै ‘वाइफी वेदर’ !’
सरवर सरक मुँह सँ पिछरि गेलनि– ‘लेकिन जो शादी-शुदा नहीं है ?’
– ‘ओकरओ लिए मियाँ, ‘तवायफी वेदर’ छिकै !’ आ कहैत एक जोरगर ठहाका मारलनि ।
मुदा हमरा हँसी नहि लागल । हम हुनक चेहरा पर टकटकी लगौने रही । सर एहि आँखि केँ पढ़ि लेलनि । तुरंत हमर डेन पकड़ैत दोकान सँ बहरा गेला– ‘की तूहू तिरहुतिया होय कय झाजी !…, हमरा आर छिकिऐ पंचमकार के प्रेमी, से कब्भो भुलल जा सकै छय !’
विभूति आनंदक जन्म शिवनगर (मधुबनी, मिथिला, बिहार) मे 4 अक्टूबर, 1955 केँ भेलनि । पटना विश्वविद्यालय सँ पीएचडी कयलाक उपरान्त ल.ना.मि. विश्वविद्यालय, दरभंगा मे मैथिलीक प्रोफ़ेसर भेलाह आ हालहि मे आर. एन. कॉलेज, पंडौल सँ प्रिंसिपल पद सँ अवकाश-प्राप्त भेलाह अछि । लगभग चालीस गोट पुस्तक (मौलिक-सम्पादित) प्रकाशित-प्रशंसित छनि । बर्ष 2006 मे कथा-संग्रह ‘काठ’ पर साहित्य-अकादेमी पुरस्कारक प्राप्त श्री आनंद सम्प्रति सुविधानुसार पटना-दरभंगा मे रहि निरन्तर लेखन क’ रहलाह अछि । सोशल मिडिया पर सक्रिय श्री आनंद सँ हुनक फेसबुक आईडी (Bibhuti Anand) पर सम्पर्क कयल जा सकैछ ।
*श्री बिभूति आनंदक प्रयुक्त फोटोक हेतु ‘बेपरवाह क्लिक्स‘क निदेशक श्री अविनाश कुमारक प्रति आभार।