प्रत्येक व्यक्तिक स्वतंत्रता ओकर व्यक्तिगत अधिकार होइत अछि। ओकरा ओ सबटा स्वतंत्रताक अधिकार भेटओक जे ओकर छैक ताहि केँ हम पक्षधर छी।” बादलेयर” मोन पड़ैत छथि जे कहैत छलाह – “हम आहाँ सँ सहमत होइ वा नहि मुदा अहाँक अधिकारक लेल लड़ैत अपन जान तक देल जा सकैत अछि।” हम व्यक्तिगत रूप सँ सहमतो छी उक्त पाँति सँ। कला-संस्कृतिक गप्प करय बला केँ निश्चित रूप सँ उदारमना होयबाक चाही। आपेक्षित छैक ई विशिष्ठता। मुदा दोसर कात व्यक्ति केँ इहो सोचय पड़ैत छैक जे ककर लेल लड़ल जाए, ककर पक्ष मे ठाढ़ होइ, ककर समर्थन करी ? जँ ओ अमुक व्यक्ति ‘डिजर्व’ करत हमर समर्थन वा पक्ष मे ठाढ़ होयब वा हमर ओकरा लेल लड़ब तहने ने !
व्यक्तिक व्यक्तिगत स्वतंत्रताक विस्तृत रूप ओकर घर, गाम सँ ल’ क’ ओकर देश तकक स्वतंत्रता थिकैक। हम कोनो भी तरहें एहि मे दखल पसिन्न नै करैत छी। मुदा व्यक्तिक स्वतंत्रता सीमा ओतहि शेष होइत छैक जतय सँ दोसर व्यक्तिक स्वतंत्रताक सीमा शुरू होइत छैक। तैं हमरालोकनि समाजक गप्प करैत छी आ ताहू समाज मे एकटा आवश्यक ‘पर्सनल स्पेसक’। मुदा ई ‘पर्सनल स्पेसक’ सीमा सेहो ओतहि धरि जतय सँ दोसराक शुरू होइत अछि। व्यक्ति केँ सामाजिक संरचनाक न्यूनतम इकाई होयबाक नाते ई सदैव ध्यान रखबाक चाही जे ओकर कोन काजक(आचरण शब्द उपयुक्त नहि लागल अमुक लेल) प्रभाव समाज पर कोना पड़ैत छैक। जँ ओकर कोनो व्यक्तिगत काजक प्रभाव सामाजिक नै होइत अछि त’ ओकरा किछुओ करब क्षम्य छैक मुदा जँ होइत छैक त’ ओकरा सोचबाक चाही एहि मादे।
“गोर्की” अप्पन एकटा प्रसिद्ध लेख मे पुछैत छथि जे – “अओ संस्कृतिक महारथी लोकनि, आहाँ ककरा पक्ष मे छी ? ” असल मे ई लेख ततेक ने प्रभावित करैत रहल अछि हमरा अप्पन व्यक्तिगत जीवन मे जे किछु अलट-बिलट करबा सँ पहिने विचारबाक लेल बाध्य करैत अछि कइएक बेर। मुदा गप्प एतय सामाजिक पक्षक थिकैक। समाजक चेतना कोन दिशा मे अछि तकर पक्ष-निर्धारणक थिकैक। हमरालोकनि की-कतेक-कतय-कोना करी तकर निर्धारणक बेर छैक। ओ कोन चेतना छल जाहि मे मह-मह करैत हमर गीतकार लिखैत छलाह “हम मिथिलेक जल सँ भरब गगरी’, ओ कोन साहस छल जाहि सँ लिखाइत छल “विष्णु विराजाथि झोरी मे” ओ कोन उत्कर्ष छल जतय “एगो मुट्ठी मे खल-खल हँसैत चंद्रमा” खेलाइत छल। कारा-झाराक स्वर सँ ऊबडूब करैत मिथिला कतय हेरायल जा रहल अछि ? ई केहन भांग घोरायल अछि सगरो ठाम जे लोक सिर्फ “हाथ सँ बट्टम” धरिक यात्रा मे बाझल अछि ?
मुदा हम कहय चाहब जे प्रतिकार अवश्य करी। चुप्प रहबाक बेर निकसि गेल अछि। मुदा ई नहि सकारि अपन अवचेतन मे जे पूरा मिथिलाक मान रखनाइ वा बिलहि देनाइ सिर्फ किछु ‘भरि राति भोर’ बला/बालिक हाथ मे छैक। हमरालोकनिक दोस अछि जे छणहि मे सिक्का चढ़ा दैत छियैक हिनकालोकनि केँ। एक बेर लगाम कसल जाए। बेर आबि तुलायल अछि। ई सदैव ध्यान रखबाक अछि जे मिथिला मने अपना सब स्वंय होइत छी। मने ‘हम’ होइत छी। मने ‘आहाँ’ होइत छी। ई लोकनि त’ मिथिला आ मैथिलीक उपयोग सिर्फ व्यक्तिगत विकासक(से चाहे जे होउक) लेल करैत छथि। तैं मिथिला हम्मर-अहाँक थिक भाइ।
किछु व्यक्ति जिनका लेल ई गप्प अछि तिनक नाम जानि-सुमानि क’ नहि लेलहुँ अछि।कियैक त’ प्रिय कवि “पाश” मोन पड़ैत छथि जे कहैत रहथि जे “पहिले तोँ जा’ क’ एहि योग्य बनह जे हम तोहर चर्च क’ सकी, एखन तोँ ओहि योग्य नै छह जे हम तोहर चर्च करी”। एकटा आर बात जे किछु गोटे सोझें आदेशात्मक मुद्रा मे साहित्यकार वर्ग केँ हाँकि लेबय चाहैत छथि। ओ चाहैत छथि जे जेना हुनका आवश्यकता बुझि पड़नि तेना साहित्यकार वर्ग बाजथि वा करथि। ओहि बौआ सब केँ निवेदन करैत छियनि जे अप्पन सीमाक निर्धारण करी आ संगहि अप्पन क्षमताक अनुमान सेहो। अवलोकन कएलाक बाद जँ किछु बाजब-करब त’ छजत अन्यथा एहि भरि जीवन ‘पेण्डुलम’ भेल गुड़कैत रहब खन एमहर खन ओमहर। रचनाकार की लिखत कखन से जखन ओ स्वंय नै बुझैत अछि तहन ई उम्मीदे बुडिबक बला अछि जे अहाँक हिसाबे ओ किछु लीखि-बाजि सकताह। साहित्य समाजक आगू-आगू दौड़य बला इजोत अछि पाछू-पाछू चलय बला पएर सँ उड़ाओल गर्दा नै। मर्यादाक अहुँलोकनि ध्यान राखी क्रियात्मक रुप सँ।
अस्तु !
ताबेत एतबे !