मैथिली साहित्य मे उपन्यासक संख्या बड्ड थोड़ रहल अछि । डॉ. अमरेश पाठक, कथाकार अशोक, डॉ. रामानंद झा रमण आ डॉ. बिभूति आनंदक हिसाबे लगभग 250 उपन्यास अछि एखनधरि । हेबनि मे किछु आओरो उपन्यास सब लिखायल अछि । कहबाक माने ई जे मानल जा सकैछ जे गोटेक तीन सय उपन्यास होयत अपन मैथिली साहित्य मे । आ से कहल जे समुच्चा मैथिली उपन्यास वैवाहिक चिन्ता, कनियाँ-पुतरा, घोंघाउज-पुराण, मामी-भागिन, देओर-भउजी, आदि सब मे ओझरायल भेटत । पं. सुधांशु शेखर चौधरी त’ एहि सब प्लॉट केँ ‘राहु’ कहने छथि जे सगर मैथिली उपन्यास केँ गरासने रहल अछि । एहन सन परिस्थिति मे ललितक ‘पृथ्वीपुत्र’ आ धीरेन्द्रक ‘भोरुकवा’ बस यएह दूटा उपन्यास अछि जे मैथिली उपन्यास केँ एकटा अलग ‘जोन’ मे ल’ जाइत अछि । उक्त दुनू उपन्यासक लेखक समधानि क’ आ सफलतापूर्वक उपन्यास केँ मिथिलाक अपन खास भौगौलिक क्षेत्र मे रखने छथि । भुरुकबाक नायक कमाय लेल कलकत्ता-दिल्ली-पंजाब आदि नहि जा क’ दड़िभंगा जाइत अछि । हमरा लगैत अछि जे प्रायः पहिल (आ प्रायः एखनधरिक अंतिम सेहो) साहित्यिक घटना थिक जाहि मे लेखक मिथिलाक लोकक कमयबाक लेल अपन शहरक व्यवस्था कयने छथि ।
भुरुकबा उपन्यास निश्चित रूप सँ अपन नामक अनुरूप मैथिली उपन्यासक भुरुकबा थिक । से कइएक अर्थ मे । एकर नायक कुसियार आ मडुआक खेती करैत अछि जे कि मिथिलाक अपन देशी अन्नक खेती छल । कुसियारक खेतीक बहन्ने जे तत्कालीन लूट-मार आ करप्शनक दृश्य आ राटन परहक संस्कृति चित्रित भेल अछि से विलक्षण अछि । उपन्यासक पात्र वा घटना सभक भरनी जाहि उदाहरण सँ कयल गेल अछि जे एकटा अलगे छाप छोड़ैत अछि । बेर-बेर लगैत रहैत अछि जे लेखक एकरा सुच्चा मैथिलपन सँ भरिक’ लिखने छथि । उदाहरण स्वरूप एकठाम अभरत जे “एहि लीक केँ बनयबा मे पाँच-सात पात तमाकुल खर्च करय पड़ल छलैक… ।”
डॉ. धीरेन्द्रक मैथिलीक सांगीतिक समझ आ तदनुकूल महौल बनाक’ तकर सम्यक प्रयोग करबाक हुनर बेर-बेर मुग्ध करैत रहल एहि पोथी मे । कल्पना करू जे भोरक समय मे ‘ठकबा क्योट’क गमैया साधल सुर मे ‘जगत विदित बैद्यनाथ’ वा ‘प्राण सँ प्रिय राम हम्मर’ सुनबा मे कतेक आनंदक सृजन होयत मोन मे । आ इहो जे गामक कोनो काज मे काजक भार केँ हल्लुक करबाक हेतु समवेत गमैया-गायन कतेक दीब लागत कान केँ ।
उपन्यासकार बहुत सम्हारि क’ बुनने छथि उपन्यासक एकहक टा बात । बहुत कसल उपन्यास थिक ई । धीरे-धीरे जेना कोनो रंगमंचक पर्दा खुलैत अछि आ पात्रक सब दृष्टिगोचर होइत छथि अपन-अपन रोल ल’ क’ तहिना एहि उपन्यास मे कथा धीरे-धीरे अपन लक्ष्य धरि बढ़ैत जाइत अछि । आ लक्ष्य पन्ना-दर-पन्ना अपना केँ खोलैत अछि धीरे-धीरे ।
एहि उपन्यासक सांस्कृतिक चेतना सेहो मुग्धकारी लगैत अछि हमरा । एकठाम बाढ़ि अयला पर केराक डमखोर पर दीप जराक’ आइ-माइ लोकनि पानि मे छोड़ि दैत छथि । ई मिथिलाक तत्व-पूजनक प्राचीन आर्य-प्रणालीक एकटा रूप छल । पानिक पूजा । संगहि कर्तव्यबोध सेहो छल जे बाढ़िक पानि सँ कृषक समाजक उपजाक सोझ संबंध छल त’ तैँ बाढ़िक पानिक प्रति कृतज्ञता ज्ञापित कयल जाइक ।
तत्कालीन ऊँच वर्गक आंतक आ कुकृत्य सँ गछारल मिथिलाक ओ गाम प्रायः ओ गामे टा नहि समग्र देश छल जकरा उपन्यासकार बहुत सहजता सँ चित्रित क’ गेल छथि । मैथिली उपन्यास मे ‘लोकल टू ग्लोबल’ अप्रोचक प्रायः ई अनुपम उदाहरण आ प्रयोग अछि ।
विषय-वर्णन आ वाक्य-संरचनाक सम्यक प्रयोग एहि उपन्यास मे देखल आ निश्चित रुप सँ सिखल जा सकैछ । समुच्चा उपन्यास मे कतहु लेखक अनावश्यक रूप सँ ‘प्रवचन’ नहि देलनि अछि । जे पात्र जतबे बजैत अछि जोखि क’ बजैत अछि । हरेक वाक्य जोखल लगैत अछि । कोन विषय केँ कतेक, कोना आ कखन आनल जाए ताहि मे ई उपन्यास एकटा मानक ठाढ़ करैत अछि एखनुक उपन्यास लेखनक पन्ना भरबाक मानसिकताक समक्ष ।
हालाँकि आइ-काल्हि दलित-विमर्श आ स्त्री-विमर्श क्रमशः दलित आ स्त्री केँ समृद्ध करबा सँ बेसी ओकरा कमजोर आ उघार करैत अछि मुदा ई उपन्यास एकटा ठोस दलित-विमर्श आ स्त्रीक मजगुत भ’ गलत चीजक विरोध मे ठाढ़ होयबाक एकटा विराट उदाहरण रखैत अछि जे उक्त दुनू विमर्श अपन गोटी लाल करबाक लेल नहि बल्कि दुनू वर्गक समृद्धिक लेल ठाढ़ भेल छल साहित्य मे ।
पात्रक हरेक मनोभावक वर्णन ओकरहि शब्द, महौल आ समय मे करब लेखक विशिष्टताक परिचायक थिक । हमरालोकनि केँ जे अपन नेता नहि चुनय आयल अछि एखनधरि जकर फलस्वरूप जकरा मोन होइत छैक से कतओ सँ आबि थोड़ेक ‘एमहर-ओमहर’ क’ हमरालोकनिक नेता बनि जाइत अछि ताहि जर्जर मानसिक स्थिति पर अपने बीचक लोक हमर नेता हो से उदाहरण ठाढ़क’ डॉ. धीरेन्द्र एकटा अविस्मरणीय आ अनुकरणीय उदाहरण ठाढ़ करैत छथि हमरा लोकनिक मध्य ।
मानसिकताक स्तर पर उपन्यास बहुत सूक्ष्मता सँ गामक अलग-अलग वर्गक मानसिकता, शहरक मानसिकता, गाम सँ शहर गेल लोकक मानसिकता, शहर मे रहैत गमैया लोकक मानसिकता आ शहरी लोकक हेतु गाम आ गामक लोकक लेल मानसिकताक समुचित विवरण प्रस्तुत करैत अछि ।
युवाक हाथ मे सत्ता हस्तांतरित करबाक पक्षधर आ विश्वास सँ भरल उपन्यासकार जानि ने अंत मे कोना आ कियैक सत्ता पुनः दलित युवा जे जीवन सँ लड़ि क’ ठाढ़ होइत अछि तकरा हाथ मे नहि द’ क’ पुनः ओहि अभिजात्य वर्गक युवाक हाथ मे दैत छथि जे गामक नहि शहरिया लोक अछि, जखन कि उपन्यासकार स्वंय एक ठाम ‘नेता अपना बीचक हो’ तकर जयघोष कयने छथि । एहि द्वंद मे कियैक रहलाह उपन्यासकार से एकटा प्रश्न ठाढ़ करैत अछि हमरा लेल । आ प्रायः अहुँक लेल । आ कि नै ?