विक्रम संवत् 2013 (1956 ई.) मे निज जानकी नवमी दिन कविवर सीताराम झा अपन प्रख्यात महाकाव्य ‘अम्बचरित’क प्रकाशकीय (क्षमा प्रार्थना) लिखलनि । स्वभावत: छन्देमे लिखलनि— सात गोट दोहामे । ताहिमे एक दोहा ई थिकनि–
निज जननी-वानीक पद- सेवा करतब जानि ।
कयल चरित चरचा हुनक,अपन हृदय सुख मानि।
से, एहि महाकाव्यमे कवि ‘निज जननी-वानीक’ (अपन मातृभाषा मैथिलीक) ‘पद-सेवा’ (काव्यरचनारूप-सेवा करब) अपन ‘करतब’ (कर्तव्य) बुझि जननी (अर्थात् जगज्जननी जानकी)क चरितक चरचा कयलनि अछि । से तँ आन कवि सभ, हिनकासँ पहिनहुँ आ बादहु, सेहो कयने छथि । किन्तु ई तनिका सभसँ कने भिन्न छथि । ई जानकीक प्रादुर्भावसँ पूर्वोक हुनका प्रसंगक वृत्तान्तकेँ विस्तारसँ वर्णन कयने छथि ।
कविवरजी संस्कृतक विशिष्ट विद्वान् रहथि, साहित्योक गम्भीर अध्येता रहथि, नाना पुराणक कथा सभसँ अवगत रहथि, अनुसन्धान-दृष्टि रहनि, किछु नव कहबाक प्रवृत्ति रहनि । तेँ जानकी-जन्मक ओहि वृत्तान्तकेँ उजागर कयलनि जे हिनकासँ पूर्व मैथिलीमे क्यो नहि कयने रहथि ।
रामायण पढ़निहार एतबे जनैत छथि जे एक समय मिथिलामे भीषण अकाल पड़लैक तँ ऋषि- मुनि लोकनिक अनुसारेँ वर्षा तखने होइतैक जखन राजा जनक स्वयं हर जोतितथि । ओ तैयार भेला । हर जोतलनि । ताही क्रममे माटि कटैत काल एक मंजूषामे बालिका-शिशु भेटलथिन, जनिका ओ अपन कन्याक रूपमे स्वीकार कयलनि आ जे सीता-नामसँ जगत-विख्यात भेली ।
एत’ ई प्रश्न रहिए जाइ छै जे ओ शिशु ओत’ अयलै कोना ? मानव-शिशु छलै तँ मानवक कोखिसँ जन्म लेब अनिवार्य छलै । से ओ ककर कोखिसँ जन्म लेने छलै ? ओकर जन्मदात्री ओकरा छोड़ि किए देलकै ? ओकरा माटिमे किए गाड़ि देलकै ? सैह छलै तँ मारि किए ने देलकै ? पेटीमे द’क’ छोड़ि किए देलकै ? बच्चा ओतबा दिन जीवित कोना रहि सकलै ? ओकरामे अलौकिक शक्ति कत’सँ आबि गेलै ? आदि-आदि।
कविवरजी एहि सभ प्रश्नक समाधान क’ देने छथि । अम्बचरितक तेसर सर्गमे जानकी-जन्मक पूर्वपीठिका आ हुनक प्रादुर्भाव-कथा वर्णित अछि । कविवरजीक लेखनीक चमत्कारे थिक जे सरलतम शब्दमे जटिलतम ग्रन्थि खट-खट खुजल चल जाइत अछि । कथा एना अछि–
महादेवसँ नर-बानर छोड़ि ककरो द्वारा वध नहि होयबाक वरदान पाबिक’ रावण अपन उद्दण्ड पराक्रमसँ ‘सुर असुर यक्ष गन्धर्व’केँ जीति समस्त ब्रह्माण्डकेँ वशमे क’ लेलक । तखन ओकर ध्यान ऋषि-मुनि समाजपर गेलै । हुनको सभक तपस्यामे नाना प्रकारक विघ्न पहुँचाब’ लागल । कर-रूपमे सोनितकेँ पाचि लेअय । एहि प्रकारेँ हड़कम्प मचबैत ओ भारतवर्ष पहुँचल । एत’ दण्डक वन अति रमणीय वनप्रान्तर छलै जत’ अनगनित ऋषि-मुनि तपश्चर्या एवं यज्ञायोजनमे सानन्द निरत रहै छला । ताहिमे एक रहथि गृत्समद नामक मुनि । हुनका एक सय पुत्र भेलथिन । हुनक पत्नीकेँ तथापि एको गोट कन्या नहि होयबाक दुःख छलनि । एक दिन ओ स्वामीकेँ अपन व्यथा कहलथिन । कहलथिन जे बिनु कन्याक घर ओहिना थिक जेना बिनु आँखिक शरीर । कोटियो व्रत,यज्ञ आ भूमिदानक पुण्यसँ अधिक कहल गेलै अछि कन्यादान करबाक पुण्यकेँ । तेँ अपने से यत्न करी जे अपना ओत’ कन्या-रूपमे लक्ष्मी जन्म लेथि । गृत्समद सहमत भेलथिन । ओ एक नव कलश लेलनि, ताहिमे मंत्रसँ अभिसिक्त क’ गाइक दूध ढारलनि । पुनि पत्नीकेँ कहलथिन जे आजुक दशम दिन एहि दूधकेँ जे जनी पीबि लेती, तनिक गर्भसँ स्वयं लक्ष्मी अवतार ल’ संसारक विपत्तिसँ त्राण करथिन । ई कहि मुनिवर ओहि ठामसँ टहलि गेला ।
ताही काल महाविपत्तिक साक्षात् प्रतिरूप रावण हनहनाइत ओत’ पहुँचल । मुनिगण ओकर दुष्टताकेँ जनितो, अभ्यागत मानि, अयबाक कारण पुछलथिन–
तजि स्वर्गक सुख ई वन भदेश
ऐलहुँ की हेतुक सहि कलेश ?
से कहल जाय रजनीचरेश !
कय कृपा अपन मानस उदेश
यदि हमर साध्य भय सकत काज
तँ अवश करब लंकाधिराज !
रावण पहिने तँ हुनका लोकनिक तेजोमय व्यक्तित्व एवं अति विनम्र वाणी सुनि गुम रहि गेल । पुनि सोचलक जे एत’ बलपूर्वक जीतब असम्भव अछि । तेँ कूटनीतिसँ काज ली । कहलकनि– मुनिवर ! महादेव हमरा त्रिलोक- विजयक वरदान देने छथि । हुनक वरदानक रक्षा लेल हम सभपर अपन आधिपत्य कायम क’ लेलहुँ । केवल मुनि समाज बाँकी रहि गेल छथि । अपने लोकनि समस्त ऋषि-मुनि समाजक माथ थिकहुँ । हम अपने सभसँ युद्ध नहि कर’ चाहै छी । तेँ निवेदन अछि जे सभ गोटे स्वयं अपन-अपन अंगसँ कने-कने सोनित बहाय हमरा द’ देल जाय, जाहिसँ महादेवक वरदानक मान रहि जाइनि । ताहिपर मुनिजन कहलथिन– ई अहाँ सन बुद्धिमानक योग्य काज नहि थिक । हमरा लोकनि लग तँ किछु नहि अछि–
मुनिजनक कहू अछि दोष कोन ?
नहि जनिक भवन धन रत्न सोन
बल सौं छल सौं वा अहाँ याचि
तनिका सौं शोनित लेब पाचि
तौं कहू कहत की लोक शिष्ट ?
होएत अहाँक अहि सौं अनिष्ट
मुदा, रावणक माथपर तँ टिकटिकिया नचै छलै । मुनिगणक बातकेँ मटियबैत, सभ गोटेसँ सोनित पचबाय, तकरा मुनिपर विजयक प्रतीक मानि, ओ ओही अभिषेकित घटमे जमा क’, विमानपर सवार भ’ लंका पहुँचि गेल । गृत्समद द्वारा अभिसिक्त दूधमे महान्-महान् ऋषि-मुनि गणक परिशुद्ध शोणित मिलि गेलै । से, ओ लंका पहुँचिते महारानी मन्दोदरीकेँ बजबाय हुनका ओहि घटकेँ सुपुर्द करैत कहलकनि– ई हमर विजय-घट थिक । एहिमे जे सोनित छै, तकरा माहुरे बुझू । जे क्यो एकरा पीयत, से छन भरिमे मरि जायत । तेँ अहाँ एकरा नुकाक’ राखब । सावधान रहब जे ई घट ने फूटय आ ने एहि महँक सोनित क्यो पीबय । हम भ्रमणमे जा रहल छी । ई कहि रावण लाव-लश्करक संग, दिव्यांगना लोकनिकेँ ल’, पुष्पक विमानपर चढ़ि, नन्दन वन लेल उड़ि गेल । एम्हर साल टपलापर विरहिणी मन्दोदरीकेँ ई आशंका भ’ गेलनि जे हुनक पति कतौ परनारीक अधीन तँ ने भ’ गेलथिन ! हुनका बिसरि तँ ने देलथिन ! पतिपरायणा सतीशिरोमणि मन्दोदरीक मनमे ई आशंका जन्म लितहिँ अपन जीवन व्यर्थ बुझाय लगलनि । तखने मन पड़लनि रावणक देल ओ घट, जकरा सुरक्षित रखबा लेल कहने छलनि । लगले ई से आनि, ओकरा विष मानि, अपन प्राणान्त करबा लेल घटमे राखल पेयकेँ घट-घट क’ पीबि गेली । मुदा आहि रे बा ! ई की भ’ गेलै ? एक तँ पहिनेसँ ओहि घटमे लक्ष्मीक आवाहन कयल अभिसिक्त दूध छलै, ताहिमे तेजोद्दीप्त महान्-महान् मुनि लोकनिक अमोघ आत्मिक शक्तिस्वरूप रक्त पड़ि गेलै । दुनू मिलि वर्णनातीत अमृत बनि गेलै । फलतः मन्दोदरीक शरीरमे अलौकिक चमक आबि गेलनि । ओ गर्भवती भ’ गेली । हुनक गर्भमे साक्षात् लक्ष्मी पहुँचि गेलथिन । आब मन्दोदरीकेँ दोसरे पराभव ! पति साल भरिसँ ऊपरसँ प्रवासमे आ एत’ ई गर्भवती ! पतिक प्रतारणा तथा समाजक अफबाहक आशंकासँ विकल ओ अपना संग विश्वस्त चमाइन आ सीसीभरि अमृत ल’ तीर्थयात्राक बहन्ने लंकासँ निकलि गेली । घुमैत-घामैत मिथिला पहुँचि, एहि ठामक रमणीयताकेँ अवलोकि, परम शान्त- एकान्त जानि, विमानकेँ उतरबौलनि । चमाइन द्वारा, बिना कष्टक, गर्भसँ शिशुकेँ बाहर कराय, ओकर शरीरपर अमृत सीचि, पुनि सुन्दर पेटीमे राखि, ओकरा गड़बा देलथिन । पेटीक ऊपर सेहो तथा माटिक ऊपर सेहो फेर अमृत सिचलनि आ बाँचल अमृत स्वयं पीबि लेलनि । अमृत पिबिते अपन पूर्व रूपमे आबि गेली । वसन्तक समय छलै । रम्य वातावरण छलै । मिथिलाक मृदुल भूमि तरु गुल्म लतादि कन्द-मूल-फलसँ लदमलद छलै । आमक टिकुला आ लिच्चीक मज्जरसँ गाछ महमहा रहल छलै, फूल सभतरि गमगमा रहल छलै । मन्दोदरी घुमि-घुमिक’ मिथिलाक प्राकृतिक सुन्दरता निहार’ लगली । मिथिलाक आगाँ लंका तुच्छ बुझाय लगलनि । कोना ? कविवरजी कहैत छथि–- ” जहिना पायस लग भात छुच्छ”। मुदा, लंका जायब तँ अनिवार्ये छलनि । तेँ अपन कोखिक छोड़ल शिशुक सुरक्षाक हेतु गौरी-गणेश ओ महेश सहित अपन इष्टदेवक ध्यान धरैत, शिशुक मंगलकामना करैत, विमानपर सवार भ’ लंका लेल उड़ि चलली ।
ओम्हर, अवधमे रामावतार भ’ गेल छल । ओत’ हर्षक उजाहि उठल छल तँ एत’ राक्षसक उपद्रव नाक ठेकि गेल छल । मिथिलाक प्रबुद्ध समाज ब्राह्मण, ऋषि, राजा आ प्रजावर्ग मिलि निर्णय लैत गेला जे मिथिलाक भूमि अशुद्ध भ’ गेल अछि, तेँ असुरक उपद्रव बढ़ि गेल अछि । अतएव विदेह जनक स्वयं हर जोतिक’ भूमिकेँ शुद्ध करथु, विधि- विधानपूर्वक विष्णु महायज्ञक आयोजन करथु, तखनहि मिथिलाक माथपरक पाग बाँचल रहि सकतै । ज्योतिषी लोकनि शास्त्रसम्मत शुभ दिन शोधै गेला–- वैशाख शुक्ल अष्टमीकेँ भूकर्षण, दशमीकेँ यज्ञार्थ मण्डप- निर्माण, एकादशीकेँ यज्ञारम्भ । आब कविवरेजीक शब्दमे पढ़ल जाय–
ई मत सबकेँ स्वीकार भेल
बरही बजाय तैयार भेल
हेमक हरीस हीराक फार
जोतीक जौर चानीक तार
बुझि याग योग्य परती ललाम
गाड़ल पेटी छल ताहि ठाम
पढ़ि स्वस्ति वचन कहि श्रीगणेश
लगला जोतय यागक प्रदेश
लगिचौलनि चास बचाय ठेस
ता भेल शुभद नवमी – प्रवेश
गम्भीर सिराउर लागि फार
उखरल पेटी शोभा – अगार
तहिमे राखलि कन्या अनूप
नवजात चकितचित देखि रूप
उचिते, सभ आश्चर्यचकित भेला । ओहि शिशुकेँ देखिते सभकेँ चकबिदोर लागि गेलनि । तकर बाद की-की सभ घटित भेलै, से हमरासँ की सुनब, कविवरेजीसँ सुनि लिय’–
छल निर्निमेष तत जनक दृष्टि
ता भेल गगन सौं सुमन वृष्टि
विनु देहक वानी भेल व्यक्त
हे भूप ! अहाँ छी परम भक्त
रहितहु नित निज कर्तव्य-शक्त
छी भेल कर्मफल सौं विरक्त
छी बनल अछैतहुँ तन विदेह
तैं मानि पितावत सहित नेह
लक्ष्मी अवतरली स्वयं जाय
होइछ सुकृतीकेँ सब सहाय
नहि विघ्न बुझू मंगल मनाउ
सकुशल उठाय लय भवन जाउ
छी धन्य अहाँ राजर्षि – रत्न
ऐली कमला घर बिना यत्न
एहि भविष्यवाणीकेँ सुनि राजा जनक अति प्रसन्न भेला । द्विज समाजकेँ धन, रत्न, गाय दानमे द’ कन्याशिशुकेँ घर अनलनि आ सकल मांगलिक संस्कार सम्पादित कयलनि आ से कयलनि मिथिलाक विहित रीतिसँ । अम्बचरितमे हुनक विवाह-द्विरागमन धरिक प्रकरण अछि, जाहिमे मिथिलाक सम्पूर्ण संस्कृति साकार भ’ गेल अछि । ओ साक्षात् लक्ष्मी छली जे खास उद्देश्यसँ मानव-काया धारण कयने छली आ मिथिला भूमिसँ प्रकट भेली, लगभग तहिना जेना समस्त देवसमाजक सामूहिक तेजःपुंजसँ माँ दुर्गाक अवतरण भेल छलनि । ओम्हर दैवी तेज छल तँ एम्हर आर्ष रक्त, ओम्हर क्रोध एम्हर शान्ति । ओ आगिसँ निकलली तँ ई माटिसँ उपरयली, ओ युवारूपमे धमकली तँ ई शिशुरूपमे चमकली । मिथिलेश सीरध्वज जनकक ओहने खास सुपुत्री छलथिन सीता जेहन राम सुपुत्र छला अयोध्या-नरेश दशरथक ।
सर्वविदित अछि जे रामक जन्म सेहो कौशल्याक कोखिसँ नहि भेल छलनि । ओहो तँ प्रगटे भेल छला–
भये प्रगट कृपाला दीनदयाला कौशल्या हितकारी
हरषित महतारी मुनिमनहारी अजगुत रूप निहारी
लोचन अभिरामा तनु घनश्यामा लय आयुध भुज चारी
भूषण वनमाला नयन विशाला शोभासिन्धु खरारी।।
मुदा, ओ कहौलनि तँ दशरथनन्दने, रघुकुल- भूषणे, तहिना सीता जानल गेली जनकनन्दिनी नामे, जानकी नामे, वैदेही नामे, मैथिली नामे। ई अटल सत्य थिक, पुराणसिद्ध थिक तथा युग-युगक आस्था थिक।
आचार्य रमानाथ झा अपन सम्पादित ‘मैथिली कथाकाव्य’क भूमिकामे लिखैत छथि जे सीताजन्मक ई कथा ‘अद्भुत रामायण’मे आयल अछि।