काँट (कथा) — प्रदीप बिहारी

ढोल-पिपही बन्न भ’ गेल रहैक। मात्र शहनाइ टा बजैत छलैक। सेहो लाउडस्पीकर सँ। बरियातक भोजन भ’ गेल छलैक।  आंगन शान्त भ’ गेल छलैक। आयोजनक थाकनि सँ झमारल लोक सभ कोठरी सभमे आ जत’-तत’ ग’र ध’ लेने छल। वर कोबर मे एकसरि रहि गेल छलाह। बिधकरी पुनीता केँ ल’ जा क’ कोबर घर मे प्राय: ठेलैत प्रवेश करौलनि आ केबाड़ सटा क’ भीतर सँ बन्न होएबाक प्रतीक्षा मे ओसारा पर एकटा कुर्सी ल’ क’ बैसि गेलीह। ओही ओसारा पर पुनीताक माय एकटा कोन मे दरी पर बैसलि छलि।

          बैसले-बैसल बिधकरीक आँखि लागि गेलनि। केबाड़ भीतर सँ कखन बन्न भेलैक, बूझि नहि सकलीह।

          प्राय: सभ निसबद भ’ गेल। मुदा, पुनीताक मायक आँखि सँ निन्न अलोपित छलनि। पुनीताक पिता राम शरण पत्नी केँ ई कहि दलान दिस सूत’ लेल गेलाह जे निन्न त’ नहि होएत। अहूँ थकान सँ झमारले छी, तैयो देखबै।

          पुनीताक माय बाजलि, “अहाँ जाउ। कनियो आँखि मोड़ि लिअ’। भोरे सँ काज सभ लधा जाएत। निश्चिंत रहू। हमर पिपनियो ने खसत। मोन टांगल रहत।”

          आतुर प्रतीक्षाक संग बाट तकैत वरक सोझाँ पुनीता लाजे एहि तरहे बैसलि छलीह, जेना कोनो मोटरी राखल होअए। वर माने नवदीप सोचैत छल- केहन छै ई छौंड़ी? कोन जमानाक छैक? पढ़लि-लिखलि छैक। पुरना जमानाक सेहो नहि छैक। तखनि एहन लजकोटरि! कहने रहियनि बाबू केँ, माय केँ सेहो कहने रहियै लड़िकीक फोन नम्मर देबा लेल। मुदा, माय लाथ क’ लेलकि जे ओकरा मोबाइल नहि छैक। पिताक मोबाइल पर फोन क’ कोना कहल जाएत जे हमर बेटा अहाँक बेटी सँ गपसप कर’ चाहैत अछि। नीक लगतैक? 

          नवदीप सोचैत छल- जँ पहिने सँ गपसप होइत रहितैक त’ एना लाजे कठौत नहि भेल रहितए। संवाद कोना शुरुह कएल जाए?

          पुनीता चुपचाप बैसलि छलि। स्वयं केँ सम्हारबाक प्रयास मे कतबो मोन केँ बान्हि क’ आनए, मुदा, बन्हा नहि पबैक। ओकरा चिन्ता होम’ लगलैक जे किछु अनट-सनट ने भ’ जाइक। त’ की सोचताह? बताहि अछि ? नहि, से नहि सोचताह। हिनका सभ केँ त’ कहल गेल छनि।  आ ई त’ लेखक-पत्रकार छथि ।

          ओ उत्तेजितो छलि आ डेराएलि सेहो। तखने एकटा मद्धिम स्वर सुनएलैक, “ओत’ अछोप जकाँ किएक बैसलि छी। ल’ग आउ। परिचय-पात करी। की नाम अछि?”

          पुनीता केँ अचरज भेलैक- केहन लोक छथि। आब लोक कनिया सँ नाम पुछैत छैक? नाम त’ बुझले रहैत छैक। नाम ध’ क’ बजबैत छैक। साँचे, बड़ सुद्धा छथि। सज्जन सभ छथि हिनक परिवारक लोक सभ। तखन ने…..

          मुदा, तखनहि ओकर मोन कहलकैक- नहि, भ्रम मे नहि रह पुनीता। पुरुष आ सुद्धा? बिसरि गेलही? 

          केओ शहनाइक स्वर तेज क’ देने रहैक।

           नवदीप केँ रहल नहि गेलैक। उठल आ पुनीता लग जा क’ ओकर बाँहि पकड़ि उठबैत बाजल, “उठू। चलू ओछाओन पर। गपसप करी।”

          आ कि तखनहि….।

          पुनीता चिचिया उठलि, “नहि रे…नहि ….माय गे माय….” ओकरा गरा लागि गेलैक ।मुदा अनवरत घिघिया रहल छलि। देह काँपि रहल छलैक।

          पुनीताक स्वर तीव्र होइत-होइत नहूँ-नहूँ स्थिर भेलैक। स्थिर होइतहि पुनीता केँ ग्लानि भेलैक। ई की भ’ गेलैक?पहिल भेंट मे ई की भ’ गेलैक? ओ एतबे बाजि सकलि, “गलती भ’ गेल। माफ करी।”

          नवदीप हतप्रभ। ई की ? मिर्गी उठैत छैक की? ओकरा किछु ने फुरएलैक।  ओ पुनीता दिस एकटक ताकि रहल छल। सोचलक, भने तुरंते सम्हरि गेलि, नहि त’….।

         पुनीता ग्लानि सँ गड़ल जा रहलि छलि।

          पुनीताक स्वर सँ बिधकरीक निन्न टुटलनि। पुनीताक माय सेहो चेहएलीह। उठि क’ केबाड़ दिस गेलीह आ घुरि अएलीह। बिधकरी सेहो केबाड़ लग जा क’ किछु अकान’ चाहलनि।  तखनहि  पुनीताक दूटा संगी ठिठिआइत अएलैक आ बिधकरी केँ कहलकैक, “कथी अखिआसै छही?”

          बिधकरी डाँटलनि, “कत’ रही तोँ सभ? जो, भाग। जो सुत’।”

          छौंड़ी सभ सहटि गेलि।

          केबाड़ फुजलैक। सोझाँ मे बिधकरी रहथिन। नवदीप   बाजल, “ल’ जाथुन हिनका। लगै छै, मोन खराप छनि।”

         बिधकरी देखलनि जे पुनीता ओछाओन पर बैसलि छलि। ओ पुनीता केँ लेने बहरा गेलीह।

          पुनीताक माय केँ लगलैक जे ओसारा पर गड़ि जेतीह। मुदा, ओ हिम्मति कएलनि आ बेटीक पाछाँ-पाछाँ लागि गेलीह।

           नवदीप केबाड़ बन्न क’ लेलक। 

          कोठरी मे जइतहि पुनीता माय केँ पकड़ि कान’ लागलि। बिधकरी पुछलनि, “की भेलौ पुनीता? एना….”

           बिच्चहि मे पुनीताक माय बजलीह, “ठीक भ’ जेतै। अहाँ जाउ। कने आराम क’ लिअ’। “

          बिधकरी कोठरी सँ बहरा गेलि।

          पुनीता मायक मुँह दिस तकैत बाजलि, “माय गै! बड़ सम्हरलियै हम। मुदा…”

         “तोँ सतर्क छलें, तें एना भेलौक। स्वाभाविक रूपे रहितें, त’ एना नहि होइतौक। बेस, देखही … काल्हि भोरे पाहुनक की प्रतिक्रिया होइत छनि?”

          नवदीपक निन्न अलोपित भ’ गेलैक। भाँति-भाँतिक गप सभ मोन मे उपजैक। शंका-आशंका ओकरा घेरि लेलकै। ओ मोबाइल उठौलक। मोन भेलैक माय केँ फोन करए। मुदा, नहि क’ सकल। बाबू केँ फोन करए। ओहो निन्न गबैत होएताह। सोचलक, आखिर की देखलखिन लड़िकी मे? कोनो गड़बड़ी त’ जरूर छैक।

          नहि, वो ककरो फोन नहि करत। मोबाइल बन्न क’ लेलक। मुदा, एहन कनिया संग ओ रहियो ने सकत। ओकर मोन औनाय लगलैक।

        केबाड़ पीटबाक स्वर सँ साकांक्ष भेल। केबाड़ खोललक। दूटा छौड़ी छलि। केबाड़ फुजितहि बाजलि, “अहाँ त’ हाहुती निकललहुँ जीजा जी।”

         कहैत दुनू छौंड़ी कोठरी मे पैसि गेलि। छौड़ी दुनूक ठट्ठा सँ नवदीप केँ कनियो गुदगुदी नहि लगलैक। दोसर छौंड़ी बाजलि, “दीदी चिचिएलै, त’ हमर निन्न टूटल। भागल जाइत रहए की?”

         नवदीप चिन्ता मे पड़ि गेल। एकर माने बहुतो लोकक निन्न टुटि गेल होएतैक? मुदा, पहिल छौंड़ीक गप ओकर चिन्ताक निवारण केलकैक। ओ दोसर छौड़ी केँ धोपलकि, “गे झुट्ठी! तो सूतल रही, कि खिड़की लग कान पथने रही।”

         नव वातावरण मे बैसल नवदीपक मोन हदमद कर’ लगलैक। एहनो कतहु ठट्ठा भेलैए?

         आ कि तखनहि पुनीताक माय जुमलीह आ बाजलि, “गै छौंड़ी सभ। भोरे-भोर कथी मे लागल छें? पाहुन केँ फ्रेस होम’ देबहुन, चाह-ताह देबहुन से नहि त’….”

         नबका चलनसारिक अनुसार बियाहक प्राते भेने बिदागरीक बात रहैक। मुदा, नवदीप से मना क’ देलक। पिता दबाओ देलखिन – से कोना हेतै? 

         “से जेना होइक। मुदा, बिदागरी नहि हेतैक।” मूड़ी झुकौनहि बाजल नवदीप।

         “पूर्वे सँ कार्यक्रम तय छैक। एहि मे व्यवधान नहि होम’ दही। अपन जुति नहि चलो।” पिताक स्वर छल।

         “बियाह अहाँक जुतिए भेल आ आब दुरागमन हमरा जुतिए हेतैक।” 

         पिताक मुँह अपन सन भ’ गेलनि। सोचलनि, आइधरि हुनक गपक उतारा धरि नहि दै बला नवदीप अनचोके मुँह मे झीक किएक देब’ लागल। एतेक उछ्रिंखल कोना भ’ गेल? मुदा ओ चुप भ’ गेलाह। चारूकात तकैत गणित कर’ लगलाह जे पिता-पुत्रक ई संवाद कतेक गोटे सुनलक? 

           दुरागमन नहि भेलैक।  

           दुरागमन नहि भेलैक से बात कन्यागत दिस सेहो एकटा प्रश्न ठाढ़ कएलक। बियाह मे आयल सर-कुटुम आ गामक लोक सभ सेहो हतप्रभ छल। बिधकरी नवदीप सँ पुछलनि, त’ हुनक प्रश्नक उतारा प्रश्ने सँ देलक, “पहिने ई सभ ने कहथुन जे पुनीता केँ मिर्गीक दौरा अबैत छैक, से बात हमरा सभ सँ किएक नुकाओल गेल?”

          बिधकरी आश्चर्यचकित । बाजलि, “नहि, पाहुन। हिनका कोनो भ्रम भेलनि-हें। तेहन कोनो बात नहि छैक। ओना हम पुनीता सभक संग नहि रहैत छी, मुदा, ई बात सभ नुकाएल थोड़े रहैत छै। बड़ स्वाभाविक ढंगे रहैत अछि पुनीता। हँ, थोड़ेक अन्तर मुखी अछि। कम बजैत अछि। आर किछु त’ नहि सुनलियै कहिओ।”

           “मुदा, हुनका मोन पर कोनो बोझ छनि।” नवदीप बाजल, “जे किछु होनि, बियाह सँ पहिने स्पष्ट भ’ जएबाक चाही छलैक।” कने थम्हैत बाजल, “एक कप काफी भेटतैक?”

         नवदीप काफी पीबाक अपन इच्छा ओहिना बिधकरी केँ कहने रहए, जेना अपन चैनलक कैन्टिन ब्याय केँ कहैत अछि। 

         “हँ, हँ ! किएक ने !” बजैत बिधकरी कोठरी सँ बहरा गेलि। 

         नवदीप केबाड़ बन्न क’ एसगर रह’ चाहलक। मुदा, लगलैक जे एखनिए गदहबेर मे केबाड़ बन्न करब अस्वाभाविक होएतैक। ओकरा लगलैक  जे गदहबेरे मे आइ एतेक अन्हार कोना पसरि गेलैए?

          बिधकरी काफीक ब्योंत करैत सभटा बात पुनीताक माय केँ कहलनि। पुनीता सेहो ओत्तहि छलि। शून्य मे तकैत। 

         आंगनमे एकटा स्वर पसरलैक। नन्दनमा बजैत छल, “कत’ गेल रमअसीसबा। लाउडस्पीकर मे भोजपुरीक अनट-सनट बजबैत छल, त’ कहलियै जे विद्यापतिक गीत लगा दही।  आर कोनो गीत नहि भेटलै खचराहा केँ। “

         लाउडस्पीकर सँ गीत बहराइत छल- सखी हे हमर दुखक नहि ओर….।

          पुनीता माय सँ पुछलकि, “माय आब की हेतै?”

          माय चुप।

          “हम हुनका सँ भेंट कर’ चाहै छी।”

           बेटीक माथपर हाथ फेरैत आ ओकर केश सोहराबैत माय बजलीह, “सभ ठीक भ’ जएतैक। तोँ स्वयं पर भरोस कर। सहज रहबाक प्रयास कर।”

         आंगनक वातावरण गंभीर छलैक। आंगन मे उदासी दरी ओछाओल छलैक मने। सर-कुटुम सभ प्रात भेने घुरबाक लेल बोझिल मने समान सैंतबाक उपक्रम मे छल। जँ वरे ने खुश, त’ ….

         काफी ल’ क’ सासु स्वयं जमाय लग गेलीह। काफी दैत बजलीह, “हम हिनकर सासु हेबनि।”

          नवदीप सासु केँ गोर लगलक।

         “पाहुन! ई किछु बूझ’ चाहैत छथि?”

         “हँ।” नवदीप बाजल, “हम ई जान’ चाहैत छी जे पुनीता केँ मिर्गीक उठैत छनि, से बात हमरा सभ सँ किएक नुकाएल गेल?”

        “पहिने ई जानथु जे पुनीता केँ कोनो मिर्गी नहि उठैत छै।” सासु बजलीह, “ओ स्वस्थ अछि ।”

        “स्वस्थ लोक कतहु एहन बतहपनी केलकैए नेना ओ ….”

       “ओ कखनो क’ असहज भ’ जाइए। कोनो विशेष परिस्थिति मे।” सासु बजलीह, “ई बात हिनक पिता केँ कहाओल गेल छल। हम सभ घटक केँ कहने रहियनि जे ई बात नुकाओल नहि जाए।”

       “नहि, ई बात हमरा सभ सँ नुकाओल गेल।”

      “कथाक स्वीकृतिक बाद हमरा सभ केँ लागल जे एकटा उदार परिवार सँ सम्बन्ध जुटि रहल अछि। ताहू मे, हिनका द’ सुनलियनि जे टी. भी. के पत्रकार छथि, कवि छथि… आ पिताक तय कएल कथा  क’ रहल छथि,  त’ गौरव भेल जे पुनीता सनक कन्या केँ हिनके सनक वर होमक चाही। हिनका सन युवक कते छैक आइ-काल्हि?”

         “भ्रम मे नहि रहथु।” नवदीप ठाँहि-पठाँहि बाजि रहल छल, “हमरा सभ केँ किछु नहि कहल गेल, मात्र ठकल गेल।”

         “जँ हिनका सभ केँ नहि बूझल छनि, त’ सुनथु। पहिने ओहि परिस्थिति केँ सुनि लथु जाहि मे पुनीता असहज भ’ जाइए। तकर बाद हिनकर जे मोन होनि, करथु। हिनका पर कोनो दबाव नहि पड़तनि। आब ई हमर जमाय छथि, तेँ बेटे सन छथि। ई बात हम पछिला बारह बर्ख सँ हम दुनू प्राणी अपना मोन मे उघि रहल छी।” सासु बाज’ लगलीह-

         “हम सभ कलकत्ता मे रहैत रही। पुनीता सातमा मे पढ़ैत रहए। पढ़’ मे चन्सगर छल। एकदिन स्कूल सँ घुरि क’ नहि आयलि। रातिक आठ बजे धरि बाट तकलियै। नहि आयलि, त’ ओकर पापा थाना गेलाह। थाना वला सनहो ने लिखलक। उन्टे ई कहि भगा देलकनि जे ककरो संग पड़ा गेल हेतौ। देह-मोन ठंढा जेतै, त’ घुरि औतौक।

        हमरा सभक पेटक पानि सुखा गेल। मुदा, भरोस रहए जे पुनीता ककरो संग पड़ाएल नहि होयति। बयसे की रहैक? अगिला दिन धरि खाली थाना जाइ। लोक लाजें कतहु बाजल नहि रही। सोचनहि रही जे तेसर दिन लोक सभ केँ कहबै। मुदा, ओही राति मे एकटा कार सँ किछु गोटे आबि क’ पुनीता केँ हमरा डेराक गेट पर पटकि गेलैक। पड़ोसिया सभ देखलक। हमहूँ सभ गेलहुँ। पुनीता स्कूल ड्रेस मे अस्त-व्यस्त छलि। पड़ोसिए सभक मदति सँ चुपचाप ओकर इलाज कराओलियैक। थाना-पुलिस सनहो ने लिखलक। ताहि समय आइ-काल्हि जकाँ टी भी-अखबार बला सभ नहि छल। दोसर बात रहलो हएत त’ हमरा सभ सन लोक लेल बहुत दूरक बात रहए। 

       पड़ोसिया सभ बाद मे खिधांस कर’ लागल। एकर पापा भोरे ड्यूटी जाथि, त’ राति क’ घुरथि। ओ एहि दुआरे जे पड़ोसिया सभ किछु-किछु टोन्ट कसि दनि। दोसर, ई जे, कोन आँखिए फूल सनक बेटीक ई दशा देखब। ओ बेटीक सोगे गलल जा लगलाह। आ पुनीताक हाल कहबा लेल… शब्द नहि भेटैए हमरा।” अपन आँखि अविरल बहैत जाइत नोर केँ पोछैत सासु फेर बाज’ लगलीह- 

        “पाहुन। अपना क्षमता भरि हम हिम्मति नहि हारलहुँ । पुनीता आ ओकर पापा केँ ओहिना जोगएलहुँ, जेना कोनो स्त्री दीप केँ आँचर तर राखि बिहाड़ि सँ बचबैत अछि। कलकत्ता सँ पुनीताक पापा बदली करौलनि। एहि बारह बर्ख मे चारि नगर केँ देखलहुँ । मानसिक रूप सँ ई सभ स्वस्थ होइत गेलाह। पुनीता पढ़लकि-लिखलकि, मुदा…..।

         नमदीप द्रवित होम’ लागल, ” मुदा की?”

        “पुनीता ओहि आतंक केँ बिसरि नहि सकलि अछि। बिसर’ चाहैत अछि, सहज रहैत अछि आ कखनो-कखनो क’ मोन पड़ैत छैक त’ असहज भ’ जाइए। जेना निर्भया बला घटनाक बाद भेल रहए । पछिला बेर मुजफ्फरपुर बला घटना सुनलक त’ असहज नहि भेलि, चिन्ता व्यक्त कएलकि। आ राति…..” सासु बजैत रहथिन। नवदीप किछु सुनि नहि पाबि रहल छल। 

         सासु बाजि रहलि छलीह, “ई चारिम व्यक्ति छथि, जिनका ई बात बुझएलनि अछि। हमरा दुनू प्राणीक बाद घटक केँ कहने रहियनि, मुदा एतेक विस्तार सँ नहि । मुदा, घटक हिनका सभ केँ नहि कहलनि, से ….। हिनका बारे मे सुनि भरोस भेल जे बुधियार छथिन, हिनका संग पुनीता अपन दंश बिसरि जायति। आब हिनकर जे विचार। हिनका पर कोनो दबाव नहि छनि….।”

         नवदीप केँ बुझएलैक जे ओकर माथ फाटि जएतैक। ओ सासुक गप सुनि नहि पाबि रहल छल। ओ बाजल, “हम एक कप काफी आर पीब’ चाहैत छी।”

         सासु कलबल उठलीह आ नोर पोछैत कोठरी सँ बहरा गेलीह।

         नवदीप चुप छल। मौन मीमांसा मे लीन।

राति मे पुनीता आयलि। स्वयं केँ सम्हारैत। आबि क’ पलंगक एक कोन मे बैसि गेलि।

        कने काल दुनू गोटे चुप। पुनीता चुप्पी भंग कएलकि, “राति हमरा सँ जे अपराध भेल तकर माफी चाहैत छी।”

       “धुर, बताहि। पति-पत्नीक पहिल भेंट मे ई माफी-ताफी की होइ छै?”

       “से त’ किछु नहि। मुदा, बहुत सम्हरलाक बादो हम बेसम्हार भ” जाइ छी।”

       “अहाँ केँ हमरा पर विश्वास अछि?” नवदीप बाजल, ” पहिने ई बात गिरह बान्हू जे सभ पुरुष एके रंगक नहि होइछ।”

        “से बुझ’ लगलियैए।”

        “मुदा, ई कही जे अहाँ बेसम्हार किएक भ’ जाइत छी?”

        “मोन पड़ि जाइए?”

        “की?”

        “ओ क्षण।”

        “कोन क्षण?”

       “हम मोन नहि पाड़’ चाहै छी”

        “हमरा कहू ने।”

       “की करब बूझि क?”

       “सुनबाक मोन होइए।”

        “नहि सुनू।”

        “मुदा,  हमरा सुनबाक मोन होइए।”

        “हम बिसर’ चाहै छी।”

        “मुदा, हम चाहै छी जे अहाँ मोन पाड़ी आ हमरा सुनाबी। एक बेर, बस, एक बेर सुन’ चाहै छि हम।”

        नवदीप पुनीताक दुनू बाँहि पकड़ि लेलक आ बाध्य कर’ लागल।

       पुनीता चुप। कनेकाल चुप रहलाक बाद बाजलि, “हमरा जबर्दस्ती कार मे बैसोलक, से मोन अछि। तकर बाद मोन अछि जे हमर दुनू हाथ आ पएर बान्हि देलक आ…”

        पुनीता केँ फेर मोन पड़ि गेलैक ओ घटना।  फेर असहज भ’ गेलि।  चिचिया लागलि, “हमरा एतबे मोन अछि जे लाल-लाल आँखि बला रहए। बड़का-बड़का मोछ-दाढ़ी बला रहए। हम चिचिया-चिचिया नेहोरा करैत रहियै- छोड़ि दे रे रछसबा सभ। बहिन-बेटी सन हेबौ। छोड़ि दे रे। माय गे माय। बाबू यौ बाबू। केओ बचाब’ हौ। बचाब’ अइ रछसबा सभ सँ । माय गे माय। बचाउ हे सीता मैया।”

        नवदीप देखलक। पुनीता बेसम्हार भ’ गेलीह। ओ ओकरा भरि पाँज क ‘ पजिया लेलक आ बाजल, “होस करू। पुनीता होस मे आउ। अहाँ हमरा लग छी। सुरक्षित छी।”

       पुनीता  नहूँ-नहूँ शान्त भेलि। ओ  पसेना सँ नहा गेल छलि। नवदीप ओकरे आँचर सँ ओकर पसेना पोछि रहल छल। पुनीताक माथ नवदीपक छाती पर छलैक।

        नवदीप सोचि रहल छल- भने पुनीताक बारे मे ककरो किछु नहि कहलनि घटक।

मैथिली कथा मे जे किछु कथाकार सब छथि ताहि मे प्रदीप बिहारी विश्वस्त नाम छथि । प्रदीप बिहारी छथि त’ भरोस अछि जे कथा साहित्य मकमकायत नहि ।  ‘औतीह कमला जयतीह कमला’, ‘मकड़ी, ‘सरोकार’, ‘पोखरि मे दहाइत काठ’ कथा संग्रह, ‘खण्ड खण्ड जिनगी’ लघुकथा संग्रह , ‘गुमकी आ बिहाड़ि’,  ‘विसूवियस’, ‘शेष’, ‘जड़ि’ उपन्यास प्रकाशित आ कोखि एखन (प्रेस मे) छनि । एकर अतिरिक्त नेपाली सँ मैथिली आ नेपाली सँ हिंदीक कथा-कविताक लगभग छह टा अनुदित पोथी प्रकाशित छनि । पत्र-साहित्य मे ‘स्वस्तिश्री प्रदीप बिहारी’  (जीवकान्तक पत्र प्रदीप बिहारीक नाम), सम्पादित पोथी मे ‘भरि राति भोर’ (कथागोष्ठी मे पठित कथा सभक संग्रह) आ ‘जेना कोनो गाम होइत अछि’ (जीवकान्तक पाँचो उपन्यास)क अतिरिक्त संपादित पत्र-पत्रिका ‘हिलकोर’, ‘मिथिला सौरभ’ आ ‘अंतरंग’ (भारतीय भाषाक अनुवाद पत्रिका) प्रकाशित छनि । सर्वोत्तम अभिनेता पुरस्कार (युवा महोत्सव 1993 मे नाटक जट-जटिन मे अभिनय हेतु बिहार सरकार द्वारा), जगदीशचन्द्र माथुर सम्मान, महेश्वरी सिंह ‘महेश’ ग्रंथ पुरस्कार, दिनकर जनपदीय सम्मानक अतिरिक्त वर्ष  2007 मे कथा-संग्रह ‘सरोकार’क हेतु ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ देल गेल रहनि । कथाकार प्रदीप बिहारी सँ  हुनक मोबाइल नम्बर +91-9431211543 वा ईमेल  biharipradip63@gmail.com पर सम्पर्क कयल जा सकैत छनि ।