ई आलेख ‘ऑब्जेक्शन मी लार्ड’ (नाटक) पोथिक भूमिका थिक।
चेतना समिति, पटनाक विद्यापति स्मृतिपर्व समारोह-2015क अवसर पर एहि नाटक ‘ऑब्जेक्शन मी लॉर्ड’क प्रथम मंचन भेल छल। हमरे लिखल एहि नाटकक निर्देशन सेहो हमरे करय पड़ल छल। से परिस्थितिवश करय पड़ल। एकर पृष्ठभूमि मे मारिते रास सामान्य-असामान्य कारणसभ सेहो छल। सर्वप्रथम तँ एहि नाटकक कथ्य ल’ क’ हमरा भय छल जे समिति आ ओकर नाट्य-परम्परा केँ ई जँचतैक कि नहि। कारण एकर मूल कथ्य छल फाँसीक विरोध अर्थात् फाँसीक सजाक विरोध। बीच-बीच मे एत्संदर्भित राजनीतिक स्थिति पर व्यंग्य सेहो छल। 2015 लगा क’ चारिम बेर हम समिति द्वारा नाटकक संयोजक बनाओल गेल रही जाहि क्रम मे मदति करू माता (विभारानी, 2011), अधिष्ठाता (रोहिणी रमण झा, 2013), मृत्युंजया (रोहिणी रमण झा, 2014) प्रभृति नाटकक निर्देशन क’ चुकल रही।
‘ऑब्जेक्शन भी लार्ड’क कथ्य मरखाह अछि से हम आइयो गछै छी। हमर पक्ष वस्तुतः ई अछि जे मानवक जीवन लेबाक अधिकार ककरहु नहि होयबाक चाही। ने कोनो व्यक्ति आ ने कोनो संस्था कोनो व्यक्तिक जीवन-हरण करय। कानून मे सेहो मृत्युदंडक प्रावधान केँ समाप्त क’ देल जाय। से केहनो अपराधी किएक ने हो। वस्तुतः केओ व्यक्ति जन्मना अपराधी नहि होइत अछि। ई व्यवस्था ककरो संत आ ककरो अपराधी बनबैत छैक। कानून-व्यवस्था आ कि कोनो सरकारक ई प्रथम दायित्व बनैत छैक जे व्यवस्था केँ एना दुरूस्त करय जे मानव आ ओकर मानवता सुरक्षित रहैक, संरक्षित रहैक आ सम्बलित सेहो रहैक। एकरहि संग इहो सत्य अछि जे एहि श्रृंखला मे मानवक अपन दायित्व सेहो कम महत्वपूर्ण नहि छैक। मुदा असल बात ई अछि जे मृत्यु आ कि हत्या कोनहु समस्याक निजगुत समाधान नहि भ’ सकैत अछि। हमर एहि पक्ष सँ असहमतिक अजस्त्र विन्दु बनैत होयत से भ’ सकैत अछि। मुदा तकरहु निदान तँ सार्थक विमर्शेटा सँ सम्भव अछि। एहने सन स्थितिक कारणेँ हम एहि मरखाह कथ्य पर एकटा विमर्श केन्द्रित नाटक लिखय चाहैत छलहुँ। पछिला कतेको वर्ष सँ सरकारी, गैर सरकारी फाँसी-हत्यादि सँ सदति मोन हौँडै़त रहल अछि। ई दण्ड-विधान आ कि क्रिया-कलाप हमरा कहियो उचित नहि बूझि पड़ल। एतय एकटा एहेन वैकल्पिक सजाक प्रावधान होयबाक चाही जाहि सँ जीवन आ मानवताक प्रति होइत नृशंस अतिक्रमण सँ उबार भ’ सकय। धनंजय चटर्जीक फाँसीक बाद तँ मोन एकदम दृढ़ कयल जे एतद्विषयक एकटा नाटक जल्दीए लिखब। ई नाटक तकरे वैचारिक परिणाम अछि।
पाथेय (स्व- गुणनाथ झा, 1968) आ भफाइत चाहक जिनगी (सुधांशु ‘शेखर’ चौधरी, 1972) प्रभृति नाटकक आगमन मैथिली नाट्य-जगत मे शैली रूप मे एकटा नव आमदनी जकाँ छल। यद्यपि एन-मेन एहि शैली मे नाटक लिखब हमरा लेल कठिन छल। मुदा हमरा एकर एकटा अन्य पक्ष आकर्षित करैत छल। एहि शैलीक नाटक मे जागतिक समयान्तराल छोट सँ छोट राखल गेल छल। मानव जीवनक डेढ़-दू घंटाक समय आ रंगमंचक सेहो डेढ़े-दू घंटाक समय। बेस मोहक आ सार्थक तकनीक लागय हमरा। एतबे समय मे मंच पर सार्थक विचार आ सार्थक रूपक ठाढ़ भ’ जाइत छल। लेखनक ई रूप बेस पसिन्न छल हमरा। अहुना जँ देखी तँ घटना- दर-घटनाबला शैली पुरान भ’ गेल अछि। आजुक नाटक आ रंगमंच तँ घटनावलीक नहि अपितु एकटा विमर्शक मांग करैत अछि। हमर कहब ई अछि जे एहिए विमर्श मे नाटकक दुनू प्राणतत्व- द्वन्द्व आ संघर्ष बेस स्पष्ट होइत छैक। एहि नाटक मे हमरा दू विचारधाराक द्वन्द्व सेहो देखेबाक छल आ तकर अपेक्षित परिणाम लेल एकटा सार्थक संघर्ष सेहो ठाढ़़ करबाक छल। वस्तुतः ओकील, युवती आ युवकक द्वन्द्व अपना-अपना तरहक अछि। तीनूक चरित्र अपेक्षाकृत क्लिष्ट अछि। ओकील एक दिस न्यायकर्मी अछि तँ दोसर दिस एकटा पिता सेहो। युवती एक दिस धनंजयक जीवन-रक्षा चाहैत अछि तँ दोसर दिस एहि व्यवस्थाक विद्रूप स्थिति मे सुधार सेहो चाहैत अछि। युवक युवती सँ प्रेम करैत अछि मुदा युवती एकर प्रेम सँ बेसी ऊँच दर्जा देने अछि धनंजयक जीवन-रक्षा केँ। तेँ एहि तीनू मे अपना-अपनी क’ द्वन्द्व चलि रहल अछि। अपन नाट्य-सीमाक भीतर तीनू अपन-अपन उद्देश्य लेल संघर्षरत सेहो अछि। ओकील अंततः धनंजयक फाँसीएक समर्थक भ’ जाइत अछि। युवती अंततः धनंजयक जीवन चाहैत अछि आ युवक अंततः जीवनक सार-तत्व प्रेमक समर्थक अछि। प्रेमक समर्थक युवती सेहो अछि मुदा से मानव आ मानवता भरल प्रेमक। ओ मानैत अछि जे अपेक्षित प्रेमक अभावे मे केओ अपराधी बनैत अछि। ओ ईहो मानैत अछि जे मानव जीवन सँ दिनानुदिन प्रेम-माधुर्य आदि समाप्त भ’ रहल अछि तेँ अपराध मे एतेक वृद्धि भेल अछि। एवंक्रमे कएक स्तर पर भावात्मक संघर्ष सेहो चलैत अछि, न्यायक संग जीवनक, न्यायक संग प्रेमक, न्यायक संग नीतिक, न्यायक संग समाजक आदि। तेँ ई तीनू चरित्र एकहरा नहि अछि। तहिना तीनू नेताजी प्रतीक अछि तीनटा राजनीतिक दलक जे कि समस्त नियम-कानून आ नैतिक-अनैतिक मर्यादाक शील-भंग करैत जेल आयल अछि आ धनंजय केँ अपन-अपन पार्टीक उम्मीदवार बनबय चाहैत अछि। राजनीतिक अपराधीकरण आ कि अपराधक राजनीतिकरण पर सेहो व्यंग्याघात करबाक छल। रिपोर्टरक बहन्ने हमरा आजुक दम्भी पत्रकारिता पर सेहो प्रहार करबाक छल जे कि एहि सभ प्रकारक घटना केँ अपना हित मे, अपन व्यावसायिक हित मे उपयोग करैत रहल अछि। मुदा धनंजयक चरित्र-चित्रणक विषय मे हमर दृष्टिकोण किछु फराक किसिमक छल। धनंजय एकटा अतृप्त आत्मा अछि। ई अपन प्रेम-यात्र मे सदैव असंतुष्ट रहल। वाल्यकाल मे मातृप्रेम सँ वंचित आ युवावस्था मे पत्नी-प्रेमिकादिक प्रेम सँ वंचित। तेँ एकरा हम अतृप्त-असंतृप्त आत्मा कहैत छी। हमर मानब अछि जे प्रेमक प्राप्ति सँ आ कि तृप्ति सँ (वासनाक तृप्ति हमर अभिप्राय नहि) समाजक मारिते रास ट्टणात्मकता स्वतः समाप्त भ’ जाइत छैक। जँ प्रेम मे तृप्ति-भाव आ कि संतृप्ति-भाव हो तँ ओकर आन दोसर दिशा मे विचलन-भटकाव आदि नहि होइत छैक। निजगुत प्रेमक संतृप्ति सदति एकनिष्ठ स्थितिक आग्रही होइत अछि। प्रेमप्लावित जीवन ककरो अनिष्ट नहि क’ सकैत अछि। तेँ युवती चाहैत अछि जे धनंजय केँ आबहु कोनो तरहेँ प्रेम मे सराबोर कयल जाय। ओकर उचित सजा अथवा उचित उपचार यएह होयत। यएह स्थिति ओकरा पुनः जीवन दिस लौटा सकैत अछि। ताहि रोचे एहि नाटक केँ एकटा प्रेमकथा सन ट्रीटमेंट सेहो देबय चाहलहुँ।
विमर्श प्रधान नाटक स्वभावतः गम्भीर होइत अछि। एकर भीतर मे एकटा बौद्धिक-वैचारिक बहस सदैव चलैत रहैत अछि जाहि सँ नाटकक द्वन्द्व क्रमेण दृढ़तर होइत जाइत अछि। स्वाभाविक अछि जे एहि मे हँसी-मजाक नहि चलत। मुदा एतय एकरसताक संकट सेहो रहैत छैक। यद्यपि एहि एकरसता-भावक चिन्ता करब हमरा महत्वपूर्ण नहि लगैत अछि। ‘सीरियस थियेटर’ मे एकर कोनहु जगह नहि होइत छैक। हम एही ‘सीरियस थियेटर’क आग्रही छी। मुदा मैथिली मे तँ ‘सीरियस थियेटर’क अवधारणा एखनहुँ कमजोरे अछि। तेँ नहियो चाहैत एकर गुंजाइश लगबय पड़ैत छैक। एही एकरसाह गम्भीर विमर्श केँ तोड़बाक लेल चारिम दृश्य मे नेताजी लोकनि केँ आनल। एहि सँ एकटा राजनीतिक व्यंग्य सेहो भ’ गेल आ दर्शकक ‘मूड’ सेहो कनेक बदलल। एकटा आओर लाभ भेल। एहि सँ दर्शकक विभोर-भाव सेहो खंडित भेलैक। ओहुना आजुक रंगमंचीय परिप्रेक्ष्य मे ई विभोर-भाव एकटा बाधके तत्व सन अछि।
नाटक मे अनावश्यक पात्र नहि रहबाक चाही। एकहि चारित्रिक गठनक दू पात्र तँ कदापि नहि रहबाक चाही। कारण एहि सँ एकर द्वन्द प्रभावित होइत छैक। भाव-साम्य मे द्वन्द सम्भव नहि होइत छैक। चेष्टा हमहूँ कयल जे पात्रक चारित्रिक आवृत्ति नहि हो। पात्रक संख्या कम राखब सेहो हमर योजने मे शामिल छल। यद्यपि पात्रक संख्या नाटकक कथ्य पर सेहो निर्भर करैत छैक। कथ्य मे द्वन्द्वात्मक गति आवश्यक। कथ्य अपन निष्कर्ष प्राप्त करय मे जाहि-जाहि क्षेत्र-स्थलादि केँ स्पर्श करैत अछि आ ओहि स्पर्श सँ ओ अपेक्षित ऊर्जा अथवा गति प्राप्त करैत अछि ओहि ठाम सँ पात्रक खगता बनय लगैत छैक। एहि नाटकक मूल कथ्य केँ हम विश्वविद्यालयी स्तरक आन्दोलन रूप मे रखलहुँ। तेँ ओतय किछु छात्र चाही छल। पुनः कथ्य अपन भूतकाल मे जाइत अछि जतय ओकील, धनंजय, रिपोर्टर, नेताजी लोकनिक माध्यम पाबि ओ पुनः अपन ठाम पर अबैत अछि आ अंततः ओ एकटा सार्थक प्रदर्शन- ‘महामहिम राष्ट्रपतिक सोझाँ मूक प्रदर्शन’क रूप मे समाप्त होइत अछि। ‘फ्रलैश बैक’क उपयोग समयक प्रबन्धन लेल कयल।
विद्यापति भवन (पटना)क जीणोद्धार हेतु ओहि मे हाथ लागि गेल छल। एहि कारणेँ नाटक तैयार करय मे बेस अशौकर्य होइत छल। सौंसे समानसभ राखल। कतहु तेना भ’ क’ जगह आबंच नहि जे अबाध गति सँ रिहर्सल कयल जाय। तथापि नाटक तैयार करैत छलहुँ। एहने विषम परिस्थिति मे अधिष्ठाता, मृत्युंजया प्रभृति नाटक तैयार भेल छल। मुदा जखन 2015 मे भवन तैयार भ’ गेल तखन हठात् पटनाक मैथिली नाट्य-संस्थासभक याचनावृत्ति बढ़ल। एकाएकी सभ संस्था ई चाहलक जे चेतना समिति अपन विद्यापति भवन मे रिहर्सल करबाक लेल आ कि मंचन करबाक लेल निःशुल्क अथवा अत्यल्प शुल्क मे भवन उपलब्ध कराबय। यद्यपि याचना अनर्गल नहि छल। मुदा नहि जानि किएक, पटनियाँ नाट्य-संस्थासभक ई याचना-वृत्ति हमरा कहियो पसिन्न नहि पड़ल। दिल्ली, कोलकाता आ कि जनकपुर मे कोन विद्यापति भवन छैक? ओतय कोना नाटक होइत छैक? दोसर बात जे ई पटनियाँ नाट्य-संस्थासभ अपन बजट नहि बढ़बय चाहैत छल। पटनाक नगरीय परिवेश मे एतेक कम बजट मे केहेन नाटक होयत? एहि कम बजटक चलते मारिते रास आवश्यक आ उचित बातसभ केँ छोड़य पडै़त छलैक। फलतः एकर सेट, लाइट, मेकप, वेश-भूषा सभ किछु प्रभावित होइत छल। रंगमंचीय प्रदर्शन सेहो महग भेल अछि से गछय लेल ई मैथिली नाट्य-संस्थासभ तैयार नहि छल। ई संस्थासभ एहियो बात केँ स्वीकार करबा लेल तैयार नहि छल जे विद्यापति भवन आब नाटक लेल उपयुक्त नहि अछि। पटनेक कालिदास रंगालय नाटक लेल सभ तरहेँ उपयुक्त अछि। खर्चो कम आ सुविधो पर्याप्त। मुदा अरिपन, भंगिमा नै जानि किएक अपन स्थिति आ योजना मे सुधार नहि आनि रहल छल। प्रस्तुतिक आर्थिक परिप्रेक्ष्य मे हक्कन कानब एकटा चलाक वृत्ति सेहो बनि गेल छल। एहि सँ कएकटा रंगमंचीय कमजोरी केँ सार्वजनिक सहानुभूतिक संग झाँपल जा सकैत छल। ई हमरा नहि अरघैत छल। चेतना समिति सेहो एहि संस्थासभक याचना पर अपन स्थिति अनठायले सन रखने रहल।
एहने स्थिति मे वर्ष 2015क विद्यापति स्मृतिपर्व समारोहक नाटक लेल पुनः हमरा संयोजक बनाओल गेल। ओमहर बिहार लोकसेवा आयोग सेहो एसिस्टेन्ट प्रोफेसर लेल भेकेन्सी निकालने छल। हमहूँ भरि देने छलहुँ से मुदा अन्यमनस्के भाव सँ। कारण विश्वविद्यालय-परिसरक लोकसभ सँ हमरा घुट्ठा-सोहार नहि छल। मात्र जान-पहिचानटा। सेहो साहित्यिक-सांस्कृतिक स्तर सँ। ओहो जान-पहिचान बेसी अर्थ मे अराडि़एबला सिद्ध होइत छल। तेँ ओतहुक बेसी गोटे हमरा सँ नाखुशे जकाँ रहैत छलाह। शेष कसरि निकालि दैत छल ‘घर-बाहर’ (चेतना समितिक त्रैमासिक पत्रिका) संग हमर सम्पादकीय सम्पर्क। तेँ ओ लोकनि हमरा संच-मंच छोडि़ देताह से विश्वास करब अत्यंत कठिन छल। मुदा अपन पढ़ाई पर आ अकेडमिक नम्बर पर पूरा विश्वास छल। 6 अक्टूबर 2015 क’ इन्टरभ्यू भेल। इन्टरभ्यू नीक भेल। मुदा ताहि अनुपात मे इन्टरभ्यू मे तेहेन नम्बर नहि भेटलाक बादो हम ओहि मे चयनित भ’ गेलहुँ। 4 दिसम्बर 2015 क’ परिणाम घोषित भेल। नीक त’ लगबे कयल। से खूबे नीक लागल। मुदा बी एन एम यू मधेपुरा पठाओल गेलहुँ। पटना छूटत, एतहुक गतिविधि छूटत से सोचि क’ दुख सेहो भेल।
इन्टरभ्यू देलाक बाद मोन पड़ल छल चेतना समितिक विद्यापति स्मृतिपर्व आ एहि पर्वक नाटक। नाटक हमरे करबाक अछि सेहो मोन पड़ल आ संगहि स्थानीय नाट्य-संस्थासभक याचना-भाव सेहो मोन पड़ल। एतहुक सभ नाट्य-संस्थाक संग हमर व्यक्तिगत आ रचनागत सम्बन्ध सदिखन रहल। से नीके सन रहल। मुदा ओ संस्थासभ हमरा अपन लोक बूझैत अछि से हमरा कहियो नहि लागल। ओ हमरा चेतना समितिक लोक बूझैत छल। ताहि मे हमरा कोनो हर्ज नहि छल मुदा समिति केँ ओ लोकनि वक्रदृष्टि सँ देखैत छलाह तेँ हमरा सँ तरे-तर दूरस्थ-भाव सेहो रखैत छलाह। मारिते रास ‘फ्रंट’ पर हम समितिक लेल उपलब्ध रहैत छलहुँ। ओकर पत्रिका, स्मारिका, नाटक, प्रकाशन, कवि-गोष्ठी, संचालन सभ ठाम सम्हारय लेल उपलब्ध। अपना मोन सेहो लागय एहि मे। ई सभटा श्रेय छलनि आदरणीय श्री बासुकीबाबू केँ। हुनक व्यक्तित्वक ई चमत्कार छल जे हम एतेक ठाम काज सम्हारि लैत छलहुँ। नहि जानि कोन विश्वास छलनि हमरा पर। हमरो बहुत रास नव बातसभ सीखय लेल भेटैत छल। से सम्पादन, भाषा, वक्तृता, संगठन, विभिन्न दायित्वक संतुलन, समयक उपयोग, विरुद्ध भावक व्यक्ति संग सामन्जस्य राखि मैथिलीक हित लेल काज करब आदि हिनक गुण हमरा सदति अनुकरणीय लगैत छल। कहि सकैत छी जे ओ एक तरहेँ हमरा धो-माँजि रहल छलाह। नै जानि की योजना छलनि हुनकर। ओ कहियो खुलि क’ से नहि कहलाह। हमहूँ एकलखैत लागल रहैत छलहुँ।
नाट्य-संस्थासभक असहयोगी क्रिया-कलापक परिचय भेटि रहल छल हमरा। कारण एहि बेर एकहुटा नाटक नहि आयल समिति लग। मुदा हमरा तँ नाटक करबाक छल। कोनहु स्थिति मे हम चेतना समिति केँ खगल नहि देखय चाहैत रही। अंततः हम स्वयं नाटक लिखब प्रारम्भ कयल। पहिलुको कएकटा नाटकक अधिकांश भाग तँ लिखहि पड़ैत छल। इंटरभ्यूक बाद लागि गेलहुँ ओहि मे। 25 अक्टूबर 2015 धरि नाटक लिखि लेलहुँ। से दू-दू बेर काटि-कूटि क’ तेसर बेर मोटामोटी फेयर क’ लेलहुँ। समिति मे जमा सेहो क’ देलहुँ। समितिक तत्कालीन सचिव डॉ- बासुकीबाबू एकर बोल्ड विषयक हेतु एकरा स्वीकृति सेहो देलनि। लगले हम दू-चारिटा अभिनेता लोकनिक संग एकर पाठ प्रारम्भ क’ देल। कहि सकैत छी जे विधिवत् एकर रिहर्सल प्रारम्भ क’ देलहुँ। मुदा अरिपन, भंगिमा प्रभृति नाट्य- संस्थासभ अपन संस्थागत अभिनेता-अभिनेत्री लोकनिक लेल एकटा फरमान जारी कयलक जे ओ लोकनि समितिक नाटकक बहिष्कार करथु। एहि फरमानक असरि सेहो भेलैक। से खूबे भेलैक। मोदाबाबू (मोद नारायण झा, रंगकर्मी, भंगिमा), क्षमाकांतजी (रंगकर्मी, अरिपन) आ अमित मिश्र (रंगकर्मी, भंगिमा) सन एकाध गोटे केँ छोडि़ शेष सभटा संस्थागत रंगकर्मी लोकनि विचित्र निष्ठाक संग एहि फरमानक पालन कयल। हमरा पात्र भेटय मे बेस दिक्कत होबय लागल। जकरा हम कहियो अपना नाटक मे ‘ब्रेक’ देने रही आ कि अन्य तरहेँ मदति सेहो कयने रही सेहो सभ हमरा संग देब उचित नहि बुझलनि। ओ लोकनि तँ बीच रिहर्सल सँ चलि गेलाह अथवा अपन-अपन आलाकमान द्वारा बजा लेल गेलाह। मुदा एहि क्रम मे हमर कएकटा आदरणीय रंगकर्मी अग्रज आ सहकर्मी मित्र लोकनि हमरा नजरि मे देखार-उघार भ’ गेलाह। हमरा पहिल बेर अनुभव भेल जे चेतना समिति केँ अपन एकटा ‘संगीत नाटक प्रभाग’ होयबाक चाही। एकरा एकटा अपन रंगमंडली तँ होयबाके चाही।
हमर रंगमंडलीक स्थिति बड़ नीक नहि रहि गेल छल। एकाएकी सब घसकल जा रहल छल। अपना भरि ओ लोकनि सब दाव-पेँच लगा लेलाह जे कहुना समितिक नाटक बाधित भ’ जाय। मुदा हमरहु कार्यक्षेत्र तँ पटने छल। निर्णय कयल जे आब हम सपरिवार नाटक करब। प्रशंसनीय विषय ई भेल जे पत्नी इन्दुलेखा सहित पुत्र गुंजन आ पुत्री कीर्ति मंजरी सहर्ष तैयार भ’ गेल। ताहि लागल साहित्यिक परिसरक मित्र रघुनाथ मुखिया, कमलेन्द्र झा ‘कमल’ आ पटना विश्वविद्यालयक मैथिली विभागक रमणकांत चौधरी, पुरुषोत्तम कुमार चौधरी, श्यामरूप चौधरी, नरेश कुमार लोकनि हमरा सर्वविध सहयोग लेल आबय लगलाह। अपन चिर सहयोगी अनिमेष कुमार सिंह अपन पत्नी गुंजा सिंहक संग एकर सफलता लेल तत्पर भ’ गेलाह। योग्यता-क्षमतानुकूल भूमिकाक वितरण कयल। धनंजयक लेल उचित लोक नहि भेटि रहल छल। तेँ आशंका छल जे कतहु हमरे ने करय पड़य। मुदा मंचन सँ एक सप्ताह पूर्व प्रकाश झा (मुम्बई), हमर पुरान आ प्रिय अभिनेता पटना अयलाह। हमर रिहर्सल देखलनि आ धनंजय लेल स्वयम् तैयार भ’ गेलाह। अनिमेष एकर नियंत्रण अपना हाथ मे लेलनि। रिहर्सल जोर पकड़लक आ समस्त कलाकार सहित समस्त प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष सहयोगी लोकनिक बलेँ ई रिहर्सल क्रमेण मंचन दिस जाय लागल। आब अपनो मोन कहय लागल जे एहि रिहर्सल केँ किशोर भाइ (किशोर केशव, वरिष्ठ रंगकर्मी, रंगनिर्देशक) केँ देखाओल जा सकैत अछि। रिहर्सल प्रारम्भ करिते हम किशोर भाइक सहमति ल’ लेने रही। संगहि एहि नाट्यालेख केँ देखि हमरा बड़ उत्साहित कयने रहथि। एहि नाटकक प्रकाश-संचालन लेल सेहो हुनक स्वीकृति भेटि गेल छल। ओहो अपना भरि भरपूर सहयोग, सुझाव आ समय देलनि। तकरे परिणामस्वरूप एकर मंचन सम्भव भेल। मंचन ततेक बेजाय नहि भेल जतेक हमरा रंगकर्मी अग्रज-मित्र लोकनि द्वारा उपद्रव कयल गेल छल। ई बात फराक अछि जे बाद मे वएह उपद्रवी लोकनि चेतना समिति संग अपन सपठैती ठीक क’ लेलनि। अपन सभटा पुरना किरदानी केँ समस्त संकोचहीनताक संग बिसरि देलनि आ समिति मे सटि जाइत गेलाह। दोसर उपायो नहि छलनि।
पटना मे जतबा नाट्य-संस्थासभ अछि सभक अपन-अपन दर्शक अछि। ओहि संस्थासभक दर्शक लोकनिक स्तर सेहो फराक-फराक किसिमक अछि। चेतना समितिक नाटकक दर्शक अपेक्षाकृत कम गम्भीर आ कम बुझनुक अछि। तकर मुख्य कारण अछि एकर आयोजन मे चारित्रिक फेँट-फाँट। बाल-मेला आ आनन्द-मेलाक आनन्द लैत दर्शकवृन्द नाटकोक आनन्द लेबय चाहैत छथि। अभिप्राय जे नाटक ओहेन हो जे एहि दर्शकवृन्द केँ पर्याप्त आनन्द द’ सकय। तेँ एतय हँसी-मजाक आवश्यक आ चलता-फिरता विषय अपेक्षित। किछु नाटककार तँ एहि स्थल पर समझौतावादी छथि मुदा किछु गोटेक कहब ई छनि जे नाटक केँ सर्वांशतः अपन दर्शकक मुखापेक्षी नहि होयबाक चाही। नाटक केँ तँ हँसी-मजाक लेल होयबाके नहि चाही। आन भाषाक रंगमंच मे तँ हास्यो-व्यंगक नाटक मे तीक्ष्ण बेधक क्षमता देखल अछि जे मात्र मनोरंजन लेल नहि अपितु झकझोरय लेल लिखल जाइत रहल अछि। नाटको अपन सामाजिक दायित्वक संग सार्थक आ विकासात्मक उपस्थिति राखय से समकालीन नाटकक युगधर्म भ’ गेल अछि। आनंद-उमंग सदैव यथास्थितिवादिताक पक्षधर होइत छैक। तखन एहि यथास्थितिवादिता सँ समाजक सम्यक् विकास कोना होयत? आधुनिक नाटक एहि यथास्थितिवादिताक विरुद्ध ठाढ़ होइत अछि। ओ अन्हारक विरोध मे, अन्यायक विरोध मे, पाखंडक विरोध मे आ कुरीति-कुनीतिक विरोध मे अपन अस्तित्व सार्थक करैत अछि। नाटक जे अपन उत्पत्तिएकाल सँ एकटा प्रगतिशील विधा कहल जाइत रहल अछि से एही कारणेँ। समितिओ मे बीच-बीच मे सार्थक नाटकक प्रयास अवश्य होइत रहल अछि मुदा तकर निरन्तरताक अभाव मे एकर स्तर आ तकर क्रमिक विकास प्रभावित होइत रहल अछि। तेँ एकर दर्शकक मनोवैज्ञानिक स्तर सेहो तहिना भ’ क’ रहि गेल अछि। किछु दर्शक तँ सभ संस्थाक एकहि रंग अछि मुदा किछु जे आन भाव-प्रवृत्तिक दर्शक अछि सएह समितिक नाट्य-स्तरक निर्धारणक कारक-तत्व बनैत रहल अछि।
मुदा एकर दोसर पक्ष सेहो अछि। समितिक एकमात्र काज नाटक करब नहि अछि। ओ मारिते रास साहित्यिक-सांस्कृतिक काजक संग एकटा नाटक सेहो करैत रहल अछि। तेँ ई जिम्मेदारी तँ समितिक संग-संग ओहि नाट्य-संस्थासभक सेहो अछि जे एकर दर्शकक स्तर कोना परिमार्जित होअय आ कोना उपरिगामी होअय। एहि लेल जे समर्थ-सार्थक योजना होइत छैक तकर अभाव अछि एहि संस्थासभक लग। समितिक नाटक करैत काल कतेक बेर तँ एना लागल जे जिनका साहित्य-संस्कृति आ नाटक सँ नियमित लगाव छनि तिनका कोनो नाटक खूब रुचलनि आ आन गोटे लेल धनि सन। दू-चारि वर्ष पर एकटा नाटक देखनिहार केँ केहनो अपरोजक नाटक नीके लगतनि। कारण हुनका लग समकालीन नाटकक क्रमिक विकासक कोनहु बोध नहि रहैत छनि। मुदा निरन्तर सम्पर्कित लोकसभ ओकर वस्तुगत अथवा क्रमगत स्थितिक ठीक सँ आकलन करैत छथि। ई बात नाटकक लेखकक संग सेहो होइत छैक। जे लेखक अपन सक्रियता-निरन्तरता केँ सही अर्थ मे बनौने रहैत छथि तिनक नाटक मे वस्तुगत, शिल्पगत आ कि शैलीगत समकालीन चमत्कार केँ अकानल जा सकैत अछि।
एहि नाटकक सफलताक प्रतिक्रिया भेटैत रहल आ हम ओकरा स्वीकार करैत आगाँ बढ़ैत गेलहुँ। किछु फाँसीक पक्षधर लोकनि हमर पक्ष सँ असहमत भेलाह आ किछु फाँसीक विरोधी लोकनि हमर पक्ष सँ सहमत भेलाह। अन्यान्य कतेको मंच सँ एकर पक्ष-विपक्ष पर विचार सूनि-सूनि उत्साहित सेहो होइत रहलहुँ। वस्तुतः हमरा एहि बातक सेहो संतोष छल जे मैथिली रंगमंच मे पहिल-पहिल एहि विषय केँ हमरे द्वारा उठाओल गेल। यद्यपि हमर अन्यो नाटकक विषय केँ ल’ क’ हमर यएह स्थिति रहल अछि। ओ विषयसभ रंगमंच मे प्रायः हमरे सँ प्रवेश पओलक अछि। हम तँ मात्र चेष्टा कयल जे मैथिली नाटकक अपेक्षित विकास हो, नव-नव विषयक प्रवेश हो, नव-नव तकनीक, नव-नव प्रयोग सदति होइत रहय। हमर ई प्रयास कतेक सार्थक आ कतेक सफल होइत रहल अछि से तँ नाट्य-मर्मज्ञे लोकनि कहताह।
अपन गाम सहित आओरो दू-चारि ठामक एकर मंचन देखि एहि नाटक मे किछु सुधार अपेक्षित लागल। खास क’ एकर भाषा-पक्ष मे। संवादक तकनीकी जटिलता केँ कने आओर हल्लुक करब आवश्यक बुझायल। एकर ‘क्लाइमेक्स’ केँ आओरो प्रभावी बनेबाक लेल किछु जनसुलभ चेष्टा आ किछु विशेष सांगीतिक प्रभावक सेहो उपयोग कयल।
चेतना समितिक एकटा परम्परा सन रहलैक अछि जे ओतय नव नाटकक मंचन होइत अछि आ अगिले वर्ष समितिए दिस सँ तकर प्रकाशन सेहो होइत अछि। हमहूँ एहि नाटकक प्रकाशनक बाट तकैत रही मुदा से बाट तकैत-तकैत 3-4 वर्ष बीति गेल। समिति दिस सँ एकर प्रकाशन लेल कोनहु खोज-खबरि नहि लेल गेल। बीच-बीच मे मित्र अजित आजाद (नवारम्भ, पटना/मधुबनी) एकर नवारम्भ सँ प्रकाशन लेल आग्रहो करैत रहलाह। एहि सँ पूर्वहु जे ओ हमर पोथी ‘निनाद’ प्रकाशित कयल तकरहु अर्थभार हमरा तेना भ’ क’ ओ नहि बूझय देलनि। तेँ प्रकाशन लेल पुनः हिनका ई नाटक दैत बेस संकोचक अनुभव क’ रहल छलहुँ। मुदा हुनक ई सदाशयता जे हम एहि संकोच-भाव सँ शीघ्रहि बाहर भ’ गेलहुँ। एहि लेल हम मित्र सहित नवारम्भ प्रकाशनक सेहो आभारी छी। मित्रवर किसलय कृष्ण (सहरसा), प्रकाश (मैलोरंग, नई दिल्ली), ऋषि वशिष्ठ (परिहारपुर, मधुबनी) लोकनिक सेहो आभारी छी जे ई लोकनि एहि नाटकक मादे निधोख भ’ क’ हमरा अपन सुझाव निरन्तर दैत रहलाह। पत्नी इन्दुलेखा आ बेटा-बेटी (गुंजन आ कीर्ति मंजरी)क तँ हम दोबर आभारी छी। रिहर्सलक प्रारम्भिक काल मे जखन हमर किछु विश्वस्त पात्रलोकनि एकाएकी बहन्ना ध’ क’ जाय लागल छलाह तेहेन स्थिति मे ई लोकनि जे हमर कायिक, वाचिक आ मानसिक तीनू स्तर सँ मदति करैत रहलाह से बिसरय जोग नहि अछि। तेहने स्थिति मे मोदाबाबू, क्षमाकांतजी, अमित मिश्रजी, अनिमेषजी सन हमर समस्त पकिया सहयोगी कलाकार लोकनि, जे एकर मंचन-प्रदर्शन केँ सम्भव कयल सेहो लोकनि हमरा लेल अविस्मरणीय छथि।
प्रकाशित नाटक आब अपने लोकनिक सोझाँ अछि। आब ई निजी सँ सार्वजनिक बनि गेल अछि। चेष्टा कयल अछि जे मैथिलीओक नाटक अपन आधुनिक-उत्तराधुनिक रूप स्पष्ट करय। हम तँ मात्र चेष्टा कयल। चेष्टा सार्थक भेल कि निरर्थक से तँ विज्ञ-समाज निर्णय करथु। रचना सँ मंचन होइत प्रकाशन धरिक बाट मे आयल अपन समस्त सहयोगीक प्रति आभार प्रदर्शित करैत हम अपना केँ धन्य बूझैत छी।