हरेकृष्ण झाक अइपन (संस्मरण) — गुंजन श्री

एक

तहिया ग्रेजुएशनक फाइनल इयर मे रही। प्रोजेक्ट वर्क चलैत रहय। साधारणतया लेट सँ घुरैत रही डेरा। आइ मुदा साँझहि सँ मोबाइल बेर-बेर शोर करय। फोन रिसीव केलियैक त’ माँ कहलक ‘आइ जल्दी आबि जइहें डेरा।’

— से कियैक? हम पुछलियैक।

— हरेकृष्ण भैया आयल छथिन्ह डेरा। माँ कहलक।

— अच्छा। कहि क’ हम फोन काटि देल।

हम ओहि दिन सँ पहिने मात्र हुनक नाम सुनने आ कविता पढ़ने रही। पिताजी बरमहल कविताक संदर्भ मे हुनक नाम लैत छलखिन। हमरा घर मे हुनकर कविता संग्रह ‘एना त नहि जे’ बीस टा सँ बेसीए प्रति राखल छल। जे पिताजी अपन प्रिय लेखक मित्र सब केँ दैत रहथिन। हमरा त’ घरे मे रहय पोथी। एक दिन उनटाओल ओहि पोथी केँ। मोन मे भेल छल जे कियैक कहैत छथिन पिताजी जे एहि पोथी केँ मैथिली कविता बाइबिल जकाँ पढ़बाक चाही। आखिर बात की छैक एहि मे!

से उनटाओल ‘एना त नहि जे’ केँ। पहिल कविता जे उनटल से छल ‘गुलाबखास’। हम एहि आमक नाम सुनने रही। हमरा गाम मे लूटन कक्काक गाछी जे हमरा गाछी सँ सटले छल, तिनका रहनि। कतेको बेर खयनो रही। लूटन कक्का दू भाइँ। दुनु भाइक गाछी एक्के ठाम रहनि। मुदा गुलाबखास हिनके टा रहनि। त’ से जे बड्ड नीक लगैत छैक ई नाम खयबा मे।

‘गुलाबखास’ कविता पढ़ल मुदा ओहि कविताक मूलाधार मे ओ आम नहि छल आ ने ओ कविता आम रहय। आम सँ फाजिल जे बात सब रहैक से घेरि लेलक। आम आ भाषा एक्के कविता मे तेना ने ठाढ़ रहय जे बिहुँसय लागल रहय मोन। दू-तीन बेर पढ़ल ओहि कविता केँ। अच्छोंह नहि हुए जेना! भीतर हुए जे किछु एहन बात छैक जे हम बुझि नहि पाबि रहल छी। भेद खुजबाक बेर रहय! कविताक ‘ठाम’ भेटबाक बाट अंतस मे यात्रा पर रहय! जानि ने की रहय आ की-की नहि रहय!

ओहि दिन प्रायः तीन-चारि टा कविता जाँहि-ताँहि सँ पढ़ि क’ पोथी राखि देने रहियैक ओतहि जतय सँ उठौने रही। पिता जी केँ सैंतल-उसारल बुक-सेल्फ रहल करनि।

त’ से कहैत रही जे फेर माँक फोन आयल छल। काटि देने रही। घड़ी देखल त’ प्रायः 9 बाजि गेल रहैक। हमरा सोह नै रहल समयक। हम कॉल बैक केलियैक त’ माँ कहलक — “जल्दी एबही की नै? हरेकृष्ण भैया कहैत छथिन जे ओ आबि जायत तहन सब गोटे संगे भोजन करब।”

सामान्यतः हम आ पिताजी सेहो संगे भोजन करैत छी राति क’ जँ दुनु गोटे डेरा मे रहैत छी। ई फराक गप जे ई सुयोग लगला सालक-साल लगैत अछि दुनु गोटेक अपन-अपन समयक बाध्यताक कारण। तैँ एहन कोनो अनिवार्य नियम नहि छल जे किछुओ होउक मुदा भोजन त’ संगे करब गुजराती परिवार जकाँ। नै हम कहियो ‘वेट’ कयल पिताजीक आ ने पिताजी हमर। आब पाछु उनटैत छी त’ होइत अछि जे करबाक चाही छल।

से जखन सुनलहुँ जे भोजन लेल ‘वेट’ करैत छथि त’ चटपट विदा भेलहुँ। करीब दस बजे डेरा पहुँचलहुँ। केबाड़ खोलितहि माँ खिसियायल — “ओ बीमार रहैत छथिन से नै बुझैत छिही। भोजन मे अबेर भ’ गेलनि अछि। से नै हम पुछैत छियौक जे कोन एहन उनटन करैत रही जे एतेक अबेर भेलौक।” हम नहुँये सँ कहलियैक घर मे पाहुन छथिन, एखन चुप भ’ जो बाद मे बाजि लीहें। कहैत सोझे पिताजीक बेडरूम दिस गेलहुँ। ठीक सोझाँ मे कुर्सी पर असमानी कुर्ता आ दप-दप धोती पहिरने बैसल रहथि कवि हरेकृष्ण। वाल्ट व्हिटमेन जकाँ झबरल उज्जर दाढ़ी। बाद मे ज्ञात भेल जे व्हिटमेन हुनक प्रिय कवि रहथि। सद्यः देखि रहल रही जे प्रेम मे लोक कोना अन-मन प्रेमी सन भ’ जाइत अछि। नेरुदाक एकटा प्रसिद्द कविता छनि वाल्ट व्हिटमेन लेल जाहि मे ओ अपन प्रिय कविक हेतु अपन उद्गार लिखने छथि।

हम गोर लागय लेल झुकितहुँ ताहि सँ पहिनहि ओ ठाढ़ भ’ गेल रहथि। हमरा मोन पड़ल जे बाबा सेहो एहिना ठाढ़ भ’ जाइत रहथिन जखन कियो गोर लागय आबनि त’! ताधरि माथ पर एकटा आत्मीय हाथ स्पर्श क’ छिलकि गेल रहय।

ई पहिल भेंट छल!

राति मे सुतय सँ पहिने पिताजी कहलनि जे काल्हि भोर मे जखन कहथिन भैया केँ डेरा पहुँचा अबियहुन।

दू

— “हमरा सँ मिलेबैं गजल मे” ? मोटरसाइकिलक पछिला सीट पर बैसल पुछलाह।
— “भ’ चलय एक दान” हम कहलियनि।
आ ओ शुरू भ’ गेल रहथि। पटनाक चिड़ियाघर आ एयरपोर्टक बीच बला रस्ता पर हम दुहु गोटे मेहँदी हसनक गजल बेरा-बेरी गाबय लागल रही। हम मोटरसाइकिल और स्थिर गतिये चलाबय लागल रही। ओ मगन होइत जाइत रहथि एहि गजल मे। “कफ़स उदास है यारों…” बला पाँति केँ बेर-बेर गबथिन, जाहि टान पर ल’ जाय चाहैत रहथि ओहिठाम नै जा सकैक स्वर, मुदा बेर-बेर जयबाक निष्फल प्रयास करैत रहलाह। करीब सात-आठ बेरक बाद कहलनि — “आब तोहर टर्न।“ हम गओलहुँ ओहि पाँति केँ। बेर-बेर गाबय कहलनि। कइयेक बेर सुनलाक बाद कहलाह जे “एहि गजलक दू टा शेर हमरा बड्ड प्रिय अछि।“
हम पुछलियनि— “कोन-कोन ?”
“कफ़स उदास बला” आ दोसर “जो हम पे गुजरी है सो”। — ओ बजलाह!
हम कहलियनि— “ई गजल बेसी प्रिय अछि आ की गायिकी ?”
“— दुनु।“ ओ कहने रहथि।
तकरा बाद अपने मोने कहलनि — “हम मेहँदी हसन सँ भाषा सीखने छी”। हमरा चकबिदोर लागल। एक्सप्लेन करैत कहलखिन— “देखही जे कतेक सम्हारि क’ मेहँदी हसन एकहक टा आखर केँ छूबैत छथिन। आ सब सँ मारुक बात जे कतेक विस्तार कोन शब्द केँ कतय आ कोना देल जाए से हिनका सँ नीक कियो नै बुझा सकैत छौक। कविताक आतंरिक संगीतक गायिकी छनि हसन साहेब लग।”

मोटर साइकिल ताबत ‘खादिम्स’ शो रूम पर पहुँचि गेल रहय। दोकान तक पहुँचैत-पहुँचैत भरिसक थाकि गेल रहथि। पुछलियनि— “पानि पीब?”
— “अखरा पानि पीबैत छैक लोक?”
— “तहन कोना पिबैत छैक?”
— “साफे बूड़ि छैं तोँ धरि। अरे! मधुरक संग पीबैत छैक। चल रसगुल्ला खायल जाइक।”

चारि-चारि टा रसगुल्ला खयलाक बाद हमरा लोकनि खादिम्सक दोकान पर आबि चप्पल किनबाक सूर-सार करय लगलहुँ। फेर हुनका डेरा पहुँचा देलियनि आ घुरि अयलहुँ हम अपना डेरा।

तकर बाद किछु सप्ताह तक नहि गेलियनि भेंट करय। ओहो नै बजेलाह। साधारणतः जखन कोनो बाहरक बेगरता वा बाहर घुमबाक इच्छा होनि त’ फोन करथि। कहथिन बाप हमरे लेल छोड़ि गेल छथुन पटना मे; जखन बजबियौ तुरत हाज़िर भेल कर। कहियनि त’ किछु नहि मुदा हमरा कखनोकाल बद्द तामस लहरय। असल मे हुनका अपन बीमारी दुआरे कोनो गप केँ अनेरोक बेर-बेर सोचबाक आ ताहि मादे परेशान रहबाक स्वभाव रहनि। विशेष क’ फोनक मामला मे। हुनकर ई इच्छा रहनि जे जखन कखनो फ़ोन करथि निश्चित रूप सँ उठाओल जयबाक चाही। मुदा हमरा विशेष काल दिनक समय मे अपन व्यस्तताक कारणे फोन उठेबा मे बिलम्ब हुए, फोन संग मे नै रहैत रहय क्लास सब मे। जखन मोबाइल देखी त’ पंद्रह-बीस टा मिस कॉल। हमर स्वभाव अछि जे बेर-बेर फोन करब हमर नै पसिन्न होइत अछि। ने हम ककरो बेर-बेर फोन करैत छी आ ने हमरा कियो करय से पसिन्न होइत अछि। अधिकतम दू टा मिस कॉल केँ हम इमरजेंसी मानैत छी। से जखन मोबाइल पर एतेक मिस कॉल देखी त’ बद्द तामस हुए मुदा क’ की सकैत छी ! फ़ोन करियनि त’ पहिल बात यएह कहथि जे फ़ोन कियैक नै उठेलें ? हम बिचारी, जे ई बुझैत कियैक नै छथिन जे फोन हरदम उठओले जाइक से जरुरी नै छैक। लोक व्यस्त सेहो रहि सकैत अछि काज-राज मे! मुदा हुनका ई बात कहबनि कोना! प्रायः नहिएँ कहि सकलियनि कहियो। आब त’ कहियो नै सकबनि। आ कि कहबनि!

तीन

— “कत्त’ छी बौआ?” बहुत मद्धिम मुदा आत्मीय स्वर छल फोन पर।
— “बाहर छी कक्का। किछु बात की?” हम कहने रहियनि।
— “एमहर नै आयब?” पुछलनि।
— “कोनो काज अछि की?” हम बाजि गेल रही।
— “कोनो काज रहत तहने बजेबौ? भेंट कर, आबि क’ आइ; साँझखन।”
हम अनुभव कयल जे हुनका हमर ई गप नीक नहि लगलनि। लगबाको नै चाही! कचोट भेल हमरा जे कियैक एना बाजि गेलहुँ। धखाइत चारि बजे साँझ मे पहुँचल रही अनिशाबादक इंद्रभवनक तेसर महल परहुक ओहि छोटकी कोठली मे। उजरा धोती आ नील देल गंजी पहिरने चौकी पर बैसल रहथि। कोठली मे पैसैत देरी बरखय लागल रहथि। हमरा पहिने अंदेशा छल जे ई त’ हेब्बे करतैक आइ। कोनो असरि नै पड़ल डाँट-फटकारक। हँसैत-मुस्कियाइत सुनि लेलहुँ। तकरा बाद जेना मोन घुरि अयलनि ओहि ठाम जाहि लेल बजेने रहथि। कहलनि— “मैथिलीक किछु कवि सबहक कविताक अंग्रेजी अनुवाद करबाक बहुत दिन सँ नियार कयने छी, किछु केँ कयनहुँ छी। मुदा तोरा पीढ़ीक रचनाकार सब केँ नै जनैत छियनि जे के सब छथि आ केहन लिखैत छथि। कम सँ कम दस-दस टाक रचना किछु कवि सबहक उपलब्ध करबा। ओना के सब लीखि रहल अछि आइ-काल्हि?” हम किछु गोटेक नाम-गाम आ जतेक हमरा बुझ’ अबैत छल ताहि हिसाब सँ अमुक कवि केहन लिखैत छथि आ हुनकर सबहक मोबाइल नंबर हुनकर छोटकी डायरी मे लीखि देलियनि।

तकरा बाद चाह बनब शुरू भेल। आधा घंटा त’ पक्का छल लागब। हम पुछलियनि— “अहाँ केँ चाह बनायब बीरबल सिखेने रहथि ने?” “— नै रौ, ओ सिखैत रहथि हमरा सँ।” कहि क’ भाभा क’ हँसय लागल रहथि। हमहुँ मुस्किया उठल रही। फेर ओ अपन हाथ आ गरदनिक खास मुद्राक उपयोग करैत कहलनि “— तोरा की होइत छौक जे तोँहि टा गप मारि सकैत छैं। “—नै, से कहाँ कहलहुँ!” हम गप बदलि देलियैक आ पुछलियनि “— अहाँ अपन कविता मे सूर्य आ सुर्ज दुनु लिखैत छियैक से कियैक? एक रंग कियैक नै लिखैत छियैक?” ओ हमरा दिस गहींर नजरि सँ तकने रहथि। हम आँखि हटा लेने रही हुनकर चश्माक ओहि कातक गहींर आँखि पर सँ। बजलाह— “आओर की सब प्रश्न छह ?” हम पुछलियनि— “एतेक सुंदर अंग्रेजी अबैत अछि अहाँ केँ, तहन मैथिलीए मे कियैक लिखैत रहलियैक ?’ फेर ताकने रहथि; गोलकी आँखि छोट भ’ गेल रहनि। हम फेर पुछलियनि— “कविता माने की?”

ककरो जबाब नै देलनि तत्क्षण। हाथ मे दुनु गिलास चाहक लेने ओछाओन पर बैसि क’ गंभीर मुदा आत्मीय स्नेहक स्वर मे बजलाह जे “एहन तरहक सबटा सवाल घनेरो लोक सँ घनेरो लोक पूछि लेने छैक बौआ। कोनो खास बात नहि छौक एहि सवाल मे, आ जँ कदाचित छौको त’ अपने ताकह अपन सवालक जबाब। कतेक दिन हरेकृष्ण रहथुन जबाब देबाक हेतु? कवि केँ अपन प्रश्नक जबाब अपने तकबाक चाही। जाबत धरि चिंतनक स्तर पर कवि उच्च आसान नै ग्रहण करत अपना भीतर मे, ताबत धरि कविक विकास हमरा नहि लगैत अछि जे सम्भव छैक। जेना झाँझन फारय काल मे बाँसक सबटा गिरह फटैत छैक तकर बादहि नीक टाट बनैत छैक सएह छैक चिंतन कविक जीवन मे। मुख्य छैक जे के कतेक ‘गहरे पानी पैठ’ होइत अछि।”

हम डरे फेर किछु नहि पुछलियनि मुदा ओ कहैत गेलाह। “— कविताक एकटा संगीत होइत छैक। ई संगीत बहुत मुश्किल सँ बुझबाक अबगति होइत छैक कवि केँ। जेना प्रत्येक गीतक एकटा विशेष आ आतंरिक लय होइत छैक तहिना प्रत्येक कविताक एकटा आंतरिक लय होइत छैक। ओ लय बहुत महत्वपूर्ण चीज छैक। बेसी काल कवि स्वंय नहि बुझि पबैत अछि कविताक ओहि लय केँ आ तैं कविता भहरि जाइत छैक आ लगैत छैक जे ई कविता जानि-सुमानि क’ योजनाबद्ध तरीका सँ लिखल गेल अछि। कविता असल मे कोनो योजनाक आँगनक वास्तु कहाँ थिकीह! कविताक हेतु अपन अंतस केँ उमंग आ आनंदक बाढनि सँ बहारय पड़ैत छैक नित-नित। अपन आत्माक गहबर केँ निर्मल राखय पड़ैत छैक। बहुत रास आपेक्षित तैयारी करय पड़ैत छैक तहन जा क’ कविता उतरैत छथि कविक आँगन मे।”

— “मने जे कविता केँ लिखबाक कोनो योजना नै होयबाक चाही?” हम बीचहि मे टोकि देने रहियनि।

— “निश्चित रूप सँ होयबाक चाही मुदा जेना एखन भ’ रहल छैक तेना त’ नहिएँ होयबाक चाही कम सँ कम।” आ तकरा बाद कविताक निर्माण आ सृजन, कविता लिखय मे अवचेतन आ चेतन मनक खेल-बेल, कविता पढ़ल कोना जयबाक चाही, चिंतन कोना कयल जयबाक चाही कविता पर, आदि-आदि गूढ़ कविताक आवश्यक तत्व सब पर बड़ी काल धरि बजैत रहलखिन। हम मोबाइलक रिकॉर्डर खोलि लेने रही।

जखन विचारक महासागरक कछेर धेलहुँ हम दुनु त’ हमर नजरि घड़ी दिस गेल। साढ़े आठ बाजि गेल रहैक। सामान्यतः ओ पाँच बजे साँझ सँ आठ बजे तक भेंट-घाँट करैत रहथिन लोक सब सँ; अपन दिन-दिन घटैत स्वास्थ्यक कारण सँ। आइ अबेर भ’ गेल रहैक। हम विदा होयबाक सुरसार करय लगलहुँ त’ कहलनि ” — अंघस-पंघस नै कर। पनबसना उतार आ रैक पर जे ‘हरिशंकर’ जर्दाक डिब्बा छैक से उतार।” हम उतारि अनलहुँ। दू खिल्ली पान लगौलनि। एकटा अपने खेलनि आ दोसर हमरा देलनि आ कहलाह —”बाप नै खाइत छथुन हमरा सोझाँ!” “— से कियैक” हम तुरत पुछलियनि। कहलाह “बिकॉज यू आर माय यंगेस्ट फ्रेंड एंड चुन्नू जी इज यंग ब्रदर।” से प्रायः सब युवा हुनकर मित्र रहनि। बहुत आत्मीयता रहनि हुनका युवा सब सँ। ओ अपने चिर युवा रहथि विचारक स्तर पर। हँ, ई बात फराक जे युवा सब बेसी दिन टीकि नहि सकनि हुनका लग। हुनका लग जा क’ सेल्फी ल’ क’ सोशल मीडिया पर पोस्ट करबाक एकटा नम्हर पतिहानी रहय ओहि दिन मे।

एक बेर कहने रहथि जे ताहि समयक एकटा पत्रिकाक कोना सबटा सरंजाम केलनि बहुत जतन सँ आ जखन ओ छपल त’ हुनका अबडेर देल गेल रहनि। मैथिली एकटा अँखिगर कविक (जिनकर बाद मे आलोचनाक पुस्तक सब सेहो अयलनि) विषय मे कहलनि जे बहुत दिन धरि अमुक कवि हुनका लग आयल करथि आ जे सब गप होइनि तकरा बाद मे रचना स्वरुप मे अपना नामे छपाओल करथि। बाद मे जखन हुनका ज्ञात भेलनि ई सब त’ सज्जनतापूर्वक भेंट करब बन्न क’ देलनि। एकटा चर्चित युवा कविक विषय मे कहल करथि जे ओ नीक कवि होइतैक मुदा ततेक ने प्रपंच छैक ओकरा जे कविता बस चमत्कारिक टा लीखि सकैत अछि। असल कविता ओकरा लग नहि आबि सकतीह कहियो। कविक काज चमत्कार करब नहि थिकैक; कवि जादूगर नहि होइत अछि। एकटा अपन पैघ प्रोफाइलक लोकआ लेखक-मित्र संगे सम्बन्ध विच्छेदक कारण मात्र एतबे रहनि जे ओ पैघ लोक हरेकृष्ण झा केँ अपन पोथीक लोकार्पण मे बजेलनि। ओ मना केलखिन; मुदा मित्र नहि मानलखिन। फेर कार्यक्रम मे जखन ई ओहि अमुक कवि आ कविता पर बजलाह तकरा बाद सँ ओ मित्र हिनका सँ एकात भ’ गेलखिन। फेर अपन एकटा ग्रामीण लेखक विषय मे चर्च करथि जे कोना ओ प्रपंच करैत रहथिन। चर्च-बर्चक क्रम मे ओ बेसी काल ‘धूमकेतु जी’ आ मैथिलीक कथाकार शुभेंदु शेखरक पिताक स्मरण करथि। से जखन गप चलय त’ सबटा बात उभरि जाइक। हुनका गेलाक बाद जखन हम देखल जे जीवनकाल मे हुनकर घोर अपकार करय बला लोक सब तेना स्वयं केँ ठाढ़ करबाक साहस केलनि जे देखि छगुंता लगैत अछि। मुदा छगुंता त’ नितांत व्यक्तिगत भाव थिक। की आ केहन होइत जे हमरा लोकनि नितांत व्यक्तिगत गप सब लीखि सकितहुँ। मुदा सबटा बात लिखिए लेल जाइक से आवश्यक नहि थिकैक। लेखक केँ अपन विवेकक आधार पर निर्णय लेबाक चाही जे की कतय तक लिखल जाइक आ की नहि। लेखक मे लेखक केँ लेखकीय अराजकता सँ एकटा सीमा धरि बाँचब आवश्यक होइत छैक हमरा जनतबे।

हेबनि मे साहित्य अकादेमी सँ हरेकृष्ण झा पर केंदित पंकज परासर द्वारा लिखित (पढ़ी ‘सम्पादित’) मोनोग्राफ आयल छल। बहुत आह्लाद सँ आनल पोथी। मुदा पढ़लाक बाद घोर निराशा भेल। सम्पूर्ण पोथीक केंद्र मे मैथिलीक श्रेष्ठ कवि आ हरेकृष्ण झाक बहिनोइ ‘विद्यानंद झा’ द्वारा हरेकृष्ण झाक आलोचनाक पोथी ‘अमिर्त’ (प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन)क भूमिका थिक। प्रो. पंकज परासर जी सब सन सीनियर सँ हमरा सब एहन सतही पोथीक उमीद नहि करैत रही। अस्तु! जिसकी जैसी चाकरी…।

बाद मे कइएक बेर हरेकृष्ण जी ओहिठाम जाइत-अबैत रहलहुँ। प्रायः पंद्रह दिन पर त’ निश्चिते। एक दिन मैथिलीक सीनियर लेखक श्री मनीष अरविंद कहलनि जे भाइ (मने हरेकृष्ण झा) कहलनि अछि जे गुंजन संगे आबि जाउ, सुभीता होयत। आ हमरा लोकनि गेलहु रही हुनका भेंट करय। मनीष जी किछु फल कीनि क’ ल’ गेल रहथि। देखिते कहलखिन “अनेरे जियान केलहुँ पाइ! हमरा नै नीक लगैत अछि सेब। हँ! तहन ई अंगूर जरूर खाइत छी कखनो काल।” बड़ी काल धरि हम आ मनीष जी गप करैत रहलहुँ हुनका सँ। गप त’ मनीष जी करैत रहथि, हम मात्र सुनैत रही। रांची प्रवासक संस्मरण बांटि रहल छलाह दुनु गोटे।

से मनुष्य मात्र स्मृतिये टा सम्हारि सकैत अछि!

चारि

— “हैदराबाद शिफ्ट करैत छी बौआ ?” फोन पर पुछलनि।
— “हँ!” हम एतबे बाजल रही।
— “कहिया जायब? फेर पुछलनि।
— “17 जून केँ।” हम कहलियनि।
— “जयबा सँ पहिने हमरा भेंट क’ जायब। आशीर्वाद देबाक अछि।” ओ कहलनि।
— “परसू आयब हम साँझखन।” हम कहने रहियनि।
— “ठीक छैक।” ओ फोन राखि देने रहथि।
आ परसू नै जा सकल रही। साँझखन 7 बजेक लगीच फोन केलनि। उठबिते बजलखिन “ठीक छी ने?”
— “हँ ठीक छी, गोर लगैत छी”क संग हम कहलियनि।
— “जँ ठीक छीहे त’ आइ अयलहुँ ने कियैक? आइ त’ अबैया छल ने? हम कहलियनि जे “सुता गेल रहय तैँ नहि आबि सकलहुँ।एखन आउ की काल्हि आउ?”
— “आब काल्हिए आउ पाँच बजे साँझखन।” ओ बजलाह आ फ़ोन राखि देलनि।

प्रात भेने जखन गेलहुँ त’ बहुत रास गपक बाद कहलनि जे चुन्नू जी पटना सँ गेलाह त’ तोँ छलह। आब तोहूँ जाइत छह। हम त’ कटिये सन जायब सब ठाम सँ। अपडेट्स कोना भेटत आ हमर काज-राज कोना हेतैक? हम की कहि सकैत रहियनि! ओ अपने कहलाह पुनः “हैदराबाद हमर जगह अछि। हम रहल छी ओहि ठाम। नीक शहर छैक। नीक सँ पढ़बाक-लिखबाक छैक ओहि ठाम। बुझलहुँ? — “हँ” हम कहने रहियनि।

थोड़-बहुत सामान्य गप-शपक बाद घुरि आयल रही ओहि दिन आ किछुए दिनक बाद हैदराबाद शिफ्ट भ’ गेल रही। मैसेज पर गप होइत रहय बरमहल। एक दिन साँझखन हुनक मैसेज आयल— “आसमर्द पढ़बो केलहुँ की?”

— “हँ” । हम रिप्लाइ लिखने रहियनि।
— “केहन लागल ?” पुनः मैसेज आयल।
— “हमरा त’ विचारक स्तर पर बड्ड नीक लागल।” हम फेर लीखि पठौलियनि।
— “अच्छा” ओकरा बाद ओहि दिन कोनो गप नै भेल।

किछु दिन बाद गर्मी छुट्टी मे गाम जेबाक रहय। मैसेज केलियनि जे हम, मनोज जी आ शारदा जी पाँच मई(2018) केँ पटना आयब। ओहिये दिन साँझखन आयब भेंट करय। ओ जबाब लिखलनि— “सब तरहेँ बहुत प्रतिकूल स्थिति मे छी। अहाँ लोकनि आयब ओहि सँ बेसी हरखक बात आर की भ’ सकैत अछि हमरा लेल। एखने सँ एक अढ़ैया जल, लोटा आ गमछा राखल रहत हमर दुआरि पर आ आयल जाओ-आयल जाओ गुँजैत रहत।”
— “आ पानक की-कोना व्यवस्था?” हम लिखलियनि।
— “अहाँ साफे बूड़ि लोक छी! ओ त’ घरे मे छैक ने! आउ ने!” उतारा भेटल हमरा।

हम बिहुँसय लागल रही मैसेज पढ़ि-पढ़ि। आ आब त’ मात्र मैसेजे टा पढ़ल जा सकैत अछि।

पाँच

“साहित्यिक परिदृश्यक अंतर्गत केवल रचने टा नै अबैत छैक। रचनाकार सबहक बीचक आपसी संबंध ओ संवादक स्वरूप ओ गुणवत्ता; सरकारी ओ गैरसरकारी संस्थान सबहक चरित्र ओ कार्य प्रणाली; आयोजन ओ समारोह सबहक स्वरूप ओ गुणवत्ता; सोसल मीडियाक हस्तक्षेपक स्तर; परिवेश मे रचना सँ इतर तत्व सबहक बढ़ैत भूमिका; कुकुरालुझक वातावरण; अफरा-तफरी, आपाधापी, डेग-डेग पर चालाकी, चालबाजी, चापलूसी, भँटैति, भंनरैति, चकमाबाजी, झूठ, फरेब ओ कपटताक बोलबाला, आत्म-प्रचारक निर्घिन्न ओ उन्मादपूर्ण घटाटोप आ आरो अनेक बात…की एहि सब सँ एहन स्थिति बनैत छैक जे कि सृजन मात्रक लेल अनुकूल हो-उत्कृष्टताक बात त’ दूर रहय दियौक ? ‘नैतिक शुद्धता ओ उच्चता’ कतेक हद धरि एहि परिदृश्य मे देखना जाइत अछि ?”

एकदिन भोरे उठल रही त’ एतेक वृहद मैसेज आयल छल। पढ़ि क’ बड़ी काल धरि विचारैत रही एहि सब विचारणीय प्रश्न पर। एखनो बिचारि रहल छी मुदा आब कोनो जिज्ञासाक समाधान लेल ओ नहि छथि हमरा लग।

ठीके नहि छथि की ?