अग्निपुष्पक किछु कविता

मैथिली कविता मे कतेको ‘वाद’ सब अबैत-जाइत रहल। यथा – सहजतावाद, अभियंजनावाद, अकवितावाद, नवकवितावाद, आ अग्निकवितावाद, आदि-आदि। समयक कोनो कालखण्ड मे कविताक मूल प्रवृति तत्कालीन समाजक व्यवस्था, कविताक स्वरूप आ यथास्थितिक प्रति विद्रोह होइत रहल अछि। ‘अग्निपुष्प’ अग्निजीवी पीढ़ीक महत्वपूर्ण नाम छथि। समाजक परिपेक्ष्य मे कोनो विचार कोनो कालखण्डक लेल प्रासंगिक भ’ सकैत अछि मुदा कालांतर मे ओही विचार केँ एकटा रूढ़िवादी परम्परा मे परिवर्तित भ’ जयबाक कतेको उदाहरण हमरा-अहाँक सोझाँ पसरल अछि। ‘अग्निपुष्प’क कविता एहने ठाम आबि क’ प्रासंगिक होइत अछि। ई परिवर्तनकामी होइत छथि। दियादक घर मे ‘भगतसिंह’ जनमबाक कबुला करय बला एहि समय मे ‘अग्निपुष्प’ परिवर्तन अपना घरहि सँ शुरू करैत छथि (ध्यानार्थ हिनकर ‘पिता’ कविता)। एकठाम अपने कहैत छथि जे आइ-काल्हि परिवर्तनकामी केँ ‘उग्रवादी’ कहि समाप्त क’ देल जाइत अछि। ई तहियो सत्य छल जहिया लिखल गेल छल आ आइयो सत्य अछि। शासनक लेल सब दिन सँ ‘परिवर्तनकामी’ लोक अवांछित तत्व रहल अछि; रहबो करत; से रहओ। विद्रोहक प्रवृति ‘अग्निपुष्प’क कविताक मूल पूँजी छनि। हिनकर एकटा पोथी ‘सहस्त्रबाहु’ प्रकाशित छनि जाहि मे हिनकर कुल्लम एक्कैस टा कविता संग्रहित छनि। ‘न’व वसंतक लेल’, ‘मरीचिका’ आ ‘संकेत’ कविता हिनकर पोथी सँ लेल गेल अछि आ ‘वनक श्रृंगार’ आ ‘कुहेसल अन्हार’ अप्रकाशित छनि। ‘अग्निपुष्प’ सम्प्रति पटना मे अपन परिवारक संग रहैत छथि। शारीरिक रूप सँ असमर्थ रहबाक कारणे कतओ नै जा-आबि पबैत छथि आ तैं किछु मित्र केँ छोड़ि कियो हिनका ओतय प्रायः नहिएँ जकाँ जाइत-अबैत अछि। मुदा एहि बेर भेंट भेला उत्तर ज्ञात भेल जे जल्दिये हिनकर दोसर पोथी हमरा लोकनिक समक्ष होयत। एखन एतय हिनकर पाँच टा कविता पढ़ल जा सकैछ। — गुंजन श्री

न’व वसंतक लेल

भाइ, अहाँ आइ धरि
गामक सिमान टपि जेबाक
एकटा व्यर्थ चेष्टा करैत रहलहुँ
महानगरक मोह मे
नचैत मशीन मे
ट्रामक भीड़ मे
काली मंदिर सँ कॉफी हाउस धरिक
कोलाहल मे आ
एकटा इंद्रधनुषी साँझ मे
अपना केँ तकैत रहलहुँ

च’र सँ घर घुमैत
हेंजक हेंज चोंच खोलने चिड़इ
चुनमुन्नी केँ बिसरैत रहलहुँ

अहाँ नदीक दूटा कछेड़ सन
दूटा परस्पर विरोधी वर्गक बीच
एकटा पुल बनल रहब
मुदा अपन हेरायल बाट नहि ताकि सकब
अहाँ ओत’ एकटा भुखायल भीड़क
चिचियाइत स्वर भ’ सकै छी
अहाँक स्वर सदिखन
दबाइत रहत बूटक स्वर मे
धुआँइत रहत टियर गैस मे
राजमार्गक दुधिया इजोत मे
अहाँ बिसरि गेलहुँ
गामक बीच बाट पर चतरल
एकटा गाछ
बाड़ी मे अनेरुआ जनमल
मिरचैयाक झाड़
अपन आड़ि पर ससरैत शंखडोका
तिजोड़ी मे बन्न होइत औंठा निशान

अहाँ बिसरि गेलहुँ
पोखरिक दाउर भ’ गेल लोक
कुहेस मे डूबल सौंसे गाम
आबा जकाँ धधकैत गामक सिमान

भाइ, फेर बेर घुमि आउ
अपन गामक सिमान मे
अपन टूटल मचान मे
गामक एहि आइनिक अंत लेल
एकटा न’व बसन्त लेल।

मरीचिका

हमर देशक संविधान
किछु लोकक
सुविधा लेल बनाओल गेल छैक

जनतंत्र कखनो संसद मे
आ कखनो सड़क पर
खाली कनस्तर जकाँ
गुड़कि रहल छैक।

तीस बरखक बाद
संसद मे दोसर स्वतंत्रता
घोषित कयल गेल छैक
फेर एक
लाशक अम्बार पर
तबक साटि देल गेल छैक।

फोटो बदलैक संग
फ्रेम नहि बदलि जाइ छैक
मुखिया बदलि गेला सँ
गाम नहि बदलि जाइ छैक
सरकार बदलला सँ
व्यवस्था नहि बदलि जाइ छैक

एहि संविधान केँ अहाँ
कखन धरि संजोगने रहब
जनतंत्रक जाल कहिया धरि बुनैत रहब
संसद सँ बाहर
आबि जेबाक लाथ
कहिया धरि धरैत रहब
गामक बसात बदलि गेल छैक
पतझड़क बाद
अमलतासक पात बदलि गेल छैक।

संकेत

एना होइत छैक भाइ
हरियरकंच बाध-बोनक
सबटा धानक खखरी भ’ जाइत छैक
मेहक चारूकात घुमैत
बड़दक मुँह मे जाबी लगा देल जाइत छैक

ललाट सँ चुबैत घाम
नासिकाग्र धरि अबैत-अबैत सुखा जाइत छैक
ह’रक लागनिक ठेला
बेर-बेर कजरौटी पर पड़ैत छैक


पन्द्रह दिनक अन्हरिया सँ त्रस्त
आकाशक ओरियानी मे
एकटा कचिया हाँसू चमकि उठैत छैक।

वनक श्रृंगार

श्वेत हिरण सन सरपट दौड़ैयै
दिन दुर्निवार
तैयो कुसुमक कली-कली करैयै
वनक श्रृंगार
बहय पछवा आ कि पुरबा
बेमाय हमरे टहकत
दरकत हमरे ठोर
जेना पड़ल हो खेतक बीच दरार
साझी दलान बटल
पड़ल पुरान आँगन मे नव देबाल
नै बनत आब सांगह
हमर घरक….

ई टूटल हथिसार
सगर मोन मे आस्ते-आस्ते
उतरैयै डगमग करैत नाह
हाथ नै पतवार
आँखि मे जंगलक अन्हार
सगरो इजोत
ता’ बिदा होइत छी,
खूजल अछि छोटछीन खिड़की
मुदा अपन घरक निमुन्न अछि केवाड़
के मारल गेल, पकड़ल के गेल
से कह’ आ ने कह’
भोरक अखबार
मुदा सेनुर सँ ढौरल अछि हमर चिनवार
कोइली कुहुकि-कुहुकि कहत
कखन हेतैक भोर आ
कत’-कत’ अछि ऊँच पहाड़
कारी सिलेट पर
लिखल अछि बाल-आखर
जेना सड़क पर सगरो
छिड़िआएल हो सिंगरहार

कुहेसल अन्हार

नदीक एक कछेर मे
थमकल नाह तोँ आ
दोसर कछेर पड़ल हम पतवार
हमरा तोरा बीच मे
पसरल अछि कुहेसल अन्हार।

जतबे लागीच देख’ चाहैत छी
हम अपन दुनू हाथ
ततबे फराइ अइ
जेना हो बरेड़ी आ चिनवार।

अन्तहीन यात्राक
निस्तब्ध सड़क हम आ
तोँ क्रूर सवार
कतबो ढेहु उठय
नै मेटायल सागरक तल मे
नेह सँ गढ़ल तोहर आकार
नदीक एक कछेर मे
थमकल नाह तोँ आ
दोसर कछेर पड़ल हम पतवार।

राजमुकुटक उच्चाकांक्षी तोँ
आ हम सिंहासनक पहरेदार
साज ओहिना सजौल अछि
मात्र टूटल अछि संवादक सितार
आसक पलाश हम आ
तोँ उसर पहाड़।