一 प्रवीण झाजहिना संगीतक सूत महीन तहिना कविताक। कनेक एम्हर सँ ओम्हर भेल नहि कि मोन कोनादनि करय लागत। राग आ कविता दुनूक बुनाइ एक्कहि रंग। दुनू सहोदर, दुनूक अन्तर्लय एक्कहि रंग। एक मात्राक अंतर मात्र सँ मोन घीचय लागत। दुनू अमूर्त मुदा जेना-जेना भीतर पैसब अर्थ फुजैत जायत आ दुनू सोझाँ ठाढ़ भ' जायत 一 एकदम मूर्त। अजित आजाद कविताक रागी आ रागक कवि छथि। जेना कोनो गायक आलाप, तान, आंदोलन, खटका, मुरकी, गमक आदि सँ रागक स्वरुप ठाढ़ करैत 'सम' पर अबैत अछि तहिना हिनक कविता सोलहो श्रृंगार मे समक चौबटिया पर ठाढ़ भेटत। हिनक राग शीर्षक कविता सभ वस्तुतः राग, अनुराग, विराग आ उपरागक कविता थिक जाहि मे भीतर पैसला उत्तर रागक प्रवृति, अर्थ आ भावक त्रिवेणीक जतेक लहरि उठत, कविताक ततेक अर्थ फुजैत जायत आ अहाँक भीतर उठैत हिलकोर मोन-प्राणक कोर भीजा जायत। कोनहु टा भारतीय भाषा मे एना भ' क' राग आधारित कविता सब प्रायः नहिएँँ जकाँ लिखल गेल अछि त' से कहलहुँ जे रागक ओछाओन पर सुति हृदयक चरखा पर कविताक सूत कटैत काल कतेक बेर मोन घिचायल हेतनि कविक से त' नहि जानि मुदा कविता पढ़ैत (पढू गुनैत) काल बहुत किछु अहाँक भीतर घिचायत से धरि निसतुक्की।
1. राग बैरागी
जीवनक मध्य भाग धरि अबैत-अबैत
होइत गेलहुँ अछि कोमल
रहितहुँ मध्यम त’ गाबय नहि पड़ितय राग बैरागी
दिनक पहिले पहर मे ओढ़य पड़ल अछि वैराग्य
एहि तोड़ीक भेटल नहि अछि कोनो तोड़
छोड़ि देल हास-परिहास, हँसब-बाजब
मुस्की सँ भंग भ’ जाइत अछि बैरागी जीवन
पंचकठिया चढ़ाक’ घुरल लोक
बौखैत रहैत अछि शमशान वैराग्य मे जेना
तेना नहि गछाड़ने अछि थाट एकर
संभोग वैराग्य सेहो नहि थिक बंधु ई
की थिक तखन ई जे गाबि रहल छी अनधुन
छुटि गेल अछि मध्यम
धयने नहि छी धैवत किन्नहुँ
भ’ गेल छी औढव-औढव
बना चुकल छी अपने पंचम केँ वादी
किन्तु जीवनक एहि सप्तक मे
तीनिये ठाम भेटल अछि विश्रांति
मलिन होइत गेल अछि काया-कांति
शांति भेटल अछि थोड़-मोड़ शुद्धता सँ अवश्य
छुटि गेल अछि सारंग स्वभाव
पकड़ि लेने छी सारंगी
गुना पर गबैत राग बैरागी निकलि आयल छी बड़ी दूर
घुरि नहि सकैत छी भैरवी लग आब
भैरव सेहो तानि सकैत छथि भृकुटि आगू
एकताल, तीनताल, झपताल करैत
गुदस्त करहि पड़त दिन
ठानब सरल छल, निमाहब कठिन
जनैत जँ रहितहुँ जोग
त’ बसा लितहुँ मोन मे जोगिया भाव
किन्तु आब जा नहि सकैत छी पाछाँ
छोड़ि चुकल छी राग-अनुराग सभटा
आगू आब मृत्यु अछि केवल
निमाहि सकब कि नहि ई राग-जीवन
आनन्द-स्रोत सँ रहि जायब कतबा दूर
कहि नहि सकब तत्काल
एखन त’ आरम्भे भेल अछि आलाप हमर!
2. राग जयजयवंती
भय सँ कम्पित एहि रातिक कथा
की कहब प्रिय हम
बीति चुकल अछि रातिक पहिल पहर जेना-तेना
दोसर पहर असवार अछि माथ पर
एहि एकांत मे जय तकबा लेल
उठौने छी जयजयवंती
किन्तु सम्पूर्ण वक्र एहि रागक प्रकृति अछि गम्भीर
पंचम संग शुद्ध रहलो पर
नहि भ’ पबैत छी आश्वस्त
गुरबानीक जँ रहैत अभ्यास
त’ निमाहि लितहुँ अवरोह मे कोमल निषाद
किन्तु अहाँक प्रेमपत्र छोड़ि
किछुओ नहि पढ़ि सकलहुँ आइ धरि
राति एखन शेष अछि बहुत
छोटछिन कोठरी मे
पसरल अछि दुनिया भरिक अन्हार
बाहर बिहाड़ि अछि मेघ मल्हार गबैत
रहि-रहिक’ चमकैत बिजलौकाक इजोत मे
चमकि उठैत अछि टेबुल पर राखल अहाँक फोटो
फ्रेम सँ बाहर जँ आबि सकितहुँ अहाँ
त’ सुढ़िया जाइत राग ई
हम बनि जइतहुँ देस, अहाँ वागेश्वरी
जय-जय क’ लितहुँ प्रेम अपन
सम्पूर्ण-सम्पूर्ण भ’ जइतहुँ हम-अहाँ
कटने नहि कटि रहल अछि राति
जिद मे अछि जयजयवंती
ने छोड़ैत बनैत अछि आ ने पकड़ैत
पराजय नहि अछि स्वीकार
हाथ पकड़िक’ आनय चाहैत छी भीतर
तकैत रहब बाट अहाँ कतेक दिन धरि बहरी मे
डूबय चाहैत छी अहीं संग एहि स्वरलहरी मे
घड़ी पर अटकल अछि तीनू सुइया
जखन कि तीनू चलि सकैत छल सप्तक मे समान
घड़ीक भंगठी ने ठीक कराय लेब हम
समयक भंगठी के करत ठीक
बहरीक बिहाड़ि आ बरखा सँ
सिमसिमाइत जा रहल अछि जयजयवंती
बढ़ि गेल अछि भय किछु आर
राग सिन्दूरा सेहो नहि गाओल होयत भरिसक आब!
3. राग देसी
जोन-बोनिहारक एहि देस मे
कंठ केँ धारैत अछि देसी
गोसाइंक पट खुलितहि
चढ़ि जाइत छैक मगज पर औनैनी
औढ़व केँ औढर मानि
बनि जाइत अछि अनढरन
आरोह सँ गंधार केँ काछि पसारि दैत अछि गंध
वर्जनाक अछैत अवरोह मे
भक्ष्य करैत अछि निषादी भोजन
देसी छोड़ि कोनो राग नहि चलैछ एहिठाम
सगर मिथिला तृप्यताम-तृप्यताम
बंदी एकटा बन्दिश थिक एतय
भारी पड़ैत अछि जे देश राग पर
रोक-टोक पर कतेक काल थोड़-थम्हन
अहीर भैरव बनबा मे लगतैक समय कतेक
‘अलबेला सजन आयो रे’ गबैत
पहुँचि जाइत अछि ठेका पर
गाबय लगैत अछि ढेका खोलि
औढव सँ बनि जाइत अछि सम्पूर्ण
मोन-मिजाज सँ शुद्ध-कोमल एतहुका लोक केँ
टिरबी नहि छैक सहाज
रागप्रेमी रहल एहि देसक लोक
दबले रहैत आयल अछि राग तर
खेत-पथार, उपजा-बाड़ी छोड़ि-छाड़ि
धयने रहल अछि धैवत अदौ सँ
अवरोही होइत एहि देसक लोक
नहि जानि कहिया मुक्त होयत राग सँ
धयने रहत कहिया धरि देसी
आ बनल रहत अहीर भैरव?
4. राग सरस्वती
भ्रम मे रहथि किनसाइत
सरस्वती केँ मंद बुझि शुरू क’ देने रहथि भटियार
अधरतियाक सुर सँ साधय चाहैत छला सरस्वती
मध्यम तीव्र आ कोमल पर
कोना चढ़ि सकैत छल वक्रता
टेढ़ी मे टेढ़ होइत रहैत अछि लोक एहिना
पूर्वी मे फेंट देत पुरिया
वागेश्वरी केँ बुझि लेत परमेश्वरी
कल्याणक मुह अनेरे नहि होइत अछि म्लान
पैरोडीक ऊर्ध्व-वायु सँ गन्हाइत
मैथिली मंच पर सेहो
पसरल रहैत अछि एहने भ्रम
दादरा मे माहिर तबलचीक एकसुर्रा थाप तर पिचायल आलाप
घुमि-फिरि सन्हिया जाइत अछि चोली मे
बन्दिश केँ बन्हकी राखि
लोकगीत सँ बेराओल जाइत लोक केँ देखि-सुनि
मंद होइत चलि जाइत छथि सरस्वती
लंकादहनक पश्चात जेना
सुप्त होइत जाइत अछि दीपक
ठीक एहने समय मे
भ्रमक होइत विस्तार मे
निस्तार पबैत अछि देसी
मंचक पाछू मे
छिड़ियायल ठेपी सभ केँ देखि
भजोखा छोड़ि
पंचसैय्या गानय लगैत छथि आयोजक
आ ठीक तखने
गबैयाक आँखि मे तरंगि उठैत अछि कल्याण ।
5. राग दरबारी
राग जौनपुरी सुनबाक आकांक्षा मे विद्यापति
नहि गेल रहथि जौनपुर
देश राग रहनि प्रबल
घुरती मे वृन्दावन होइत
ल’ क’ घुरल रहथि वृन्दावनी
असावरी-असावरी रहनि मोन
जेम्हरे ताकथि, तेम्हरे भेटि जाइनि कलावती
अबैत रहनि जोग, गबैत रहथि जोगिया
राग ललित सँ पद-लालित्य ल’
भरलनि भाव मे वसन्त
स्वभावे रहथि सारंग
किन्तु लक्षणे रहथि दरबारी
घुरि-फिरि राजा शिवसिंह रूप नारायण
आइ जखन कि सगर देश
मगन अछि राग दरबारी मे
रचल जा रहल अछि गुर्जरी तोड़ी मे जयगान
हम राग वाचस्पति मे
अपन पुरखा सँ करैत छी क्षमा-याचना
कान पाथि सुनब राग सभटा
श्रेष्ठताक अछैत किन्तु राग दरबारी नहि
राजा शिवसिंह रूप नारायण किन्नहुँ नहि अछि स्वीकार ।
6. राग मारवा
समयक सितार पर बजैत भैरवी
नहि सुनि सकलहुँ आइ
तृप्त होबय चाहैत रही रागांगराग सँ
तीन ताल मे निबद्ध सुर सँ माँजय चाहैत रही प्रात
कल्याण सुनिक’ सूतल रही राति
स्वप्न मे बजैत रहल राग काफी
पंचमक आरोह सँ स्पंदित होइत रहल निद्रा
ठोर पर थाट छल सिरजैत रहल
शुद्ध राग बिलावल
उठलहुँ त’ सुनल मारवा
अबेर धरि सूतल रहबाक नहि छल हिस्सक
बाजि कियैक रहल अछि तखन साँझक राग
आ कि भैरवीक आमंत्रण पर
आयल अछि शुद्ध कोमल भाव संग
आ कि भ’ गेल अछि जीवन-संध्याक आरम्भ
बिलाय गेल अछि भोर आ भैरवी कियैक अनेरे
गुनधुन मे रहबे करी कि शुरू भ’ गेल कल्याण
किन्तु निहित नहि अछि हित-भाव एहि मे जेना
भैरवी होइत आबय चाहैत रही एतय धरि
धारण करितहुँ वादी मे आरोह, संवादी मे अवरोह
जीवनक जयजयवंती धरिक यात्रा मे
सहाय होइतथि जँ सरस्वती
त’ कथी लेल पछोड़ धरितय राग बैरागी
राग देशक उतान भाव संग करितहुँ प्रवेश मालकोश मे
आ ठमकि जइतहुँ वसंत मे किछुकाल
मुदा एकटा अनाहूत मारवा सँ बिगड़ि गेल समकाल
समय आ सुरक जुगलबंदी मे
ले-ऊँच जँ भेल कनेको
बिगड़ि जाइछ जीवनक गति-दिशा
यैह त’ भेल अछि एखन हमरा संग
भोरक भास मे साँझक आभास अछि सद्यः
सुनय चाहैत रही भैरवी
किन्तु मारवा सँ भेल छी फिरिशान
जखन कि शुद्ध क’ सज्जन राग थिक ई !