(महाकवि यात्रीक भेंटवार्ता — डा. रमानन्द झा ‘रमण’)
चौदह-पन्द्रह वर्ष पहिने महाकवि यात्री बाजल छलाह, ‘मैथिली मरि जायत’। एकर तीव्र प्रतिक्रिया भेल छल। युवावर्ग मे एकटा चेतना आबि गेल जे मैथिली केँ मरय नहि देब। ई चेतना लेखन आ प्रकाशन – दुनू क्षेत्र मे जगजिआर भेल छल। सम्प्रति स्थिति की अछि, मैथिली भाषा-साहित्यक दशा की भेल अछि? ओकर अस्तित्व-रक्षाक लेल कएल जाइत प्रचार-प्रसार आ आन्दोलन मैथिली केँ कतेक प्रभावित कएलक अछि, आदि समस्याक निदान महाकविक शब्द मे सुनबाक इच्छा छल। मुदा, जेना यात्रीक साहित्य केँ बुझब कठिन, तहिना इहो बुझब कठिन जे आइ यात्रीजीक विश्राम-स्थल कतय अछि? संयोग कही जे सतत यात्रापर रहनिहार यात्रीजीक विश्राम- स्थल किछु दिनक लेल पटनहि रहबाक खबरि भेटल। अपराह्नक समय भेंटक लेल गेलहुँ तँ देखल जे खाट पर धोकरीह लगओने पत्र-पत्रिकाक बीच मे सूतल छथि। मुदा, कविक चेतना सूतल नहि छल, जागल छल, आहटे सँ बूझि गेलाह आ कुर्सी लग आनि बैसबाक लेल कहलनि। हम आ गोकुलनाथ जी बैसि गेलहुँ। एतबहि मे सुकान्त सोम सेहो आबि जाइत छथि। कला-साहित्य चर्चा, भाषा-चर्चा आ भाषा -साहित्यक ब्याजेँ कएल जाइत राजनीतिक चर्चा शुरू भए जाइत अछि। बिना कोनो औपचारिकताक सहज रूप मे, एहिठाम प्रस्तुत अछि 21 मार्च 1987 केँ महाकवि यात्रीक संग भेल अनौपचारिेक गप-शप। :-
जिज्ञासा – चैदह-पन्द्रह वर्ष पहिने अपने बाजल रही जे मैथिली मरि जायत, आब की सोचैत छी?
– ओ भावुकतावश कहने रही। मैथिल युवक केँ मन्हुआयल आ तन्द्रा मे देखि कहने रही। व्यथित भए कहने रही। मैथिली मरत नहि। ओ घमि रहल अछि, टप मे देल मिसरीक ढ़ेप जकाँ।
जिज्ञासा – तकर कारण?
– कारण फरिच्छे अछि। भाषाक नाम पर आब ककरो नोर नहि चुबैत छैक। मंचपर जे चुबबैत छथि, ओ तुरंते वाष्प बनि जाइछ। ओहि नेपो-भाटिनक आचरण मे मैथिली नहि भेटत। भाषा थिक प्रयोजन सिद्धिक माध्यम। से जखन आन भाषा सँ चलिते छैक, तखन भावुकता कोना रहत?
जिज्ञासा – तँ की जीविकाक संघर्ष लोकक भावुकता केँ खा रहल अछि?
– निश्चिते। भाषाक प्रति भावुकता समाप्त भए रहल अछि। जीविकाक संघर्षक संग एकरा जोड़य पड़त। कतेक लोक आब भेटत जे साहित्यक लेल, भाषाक लेल सभ किछु त्यागि देबा लेल तैयार अछि। धिया-पूता आ पत्नीक बिना चिन्ता कयने साहित्यक पाछू रने-बने बौआइत रहत। मूल काज साहित्य- सर्जना नहि रहि गेलैक अछि। साहित्य-सर्जना पार्ट टाइम जाॅब भए गेल अछि। आ तेँ अनभूतिक क्षेत्र घोकचल जाइछ। साहित्यक लेल चाही अनुभूति। एकटा खूटेसल लोकक अनुभूति-क्षेत्र, गरदामी बान्हल डोरी सँ कोना होएत? बिना थेथर बनने जँ केओ चाहत जे हम साहित्य-सर्जना करैत रही, से सम्भव नहि छैक।
जिज्ञासा – अपनेक विचरा सँ बुझना जाइछ जे जीविकाक लेल कोनो काज करैत लोकक साहित्य- सर्जनाक क्षेत्र व्यापक नहि भए सकैछ?
– से सरिपहुँ। जीविकाक चिन्ता, बाल-बच्चाक चिन्ता साहित्यकारक ऊर्जा केँ क्षीण कए दैत अछि। आफिस मे जोड़-तोड़ चलैछ। गुटबन्दी होइछ। तेँ एहन रचनाकार आने कोनो संघर्ष मे पड़ि जाइछ। स्थानीय गुटबन्दी मे पड़ि जाइछ। इहो ओकर ऊर्जा केँ सोंखैत छैक। जीविकाक चिन्ता सँ कैरियरक चिन्ता बेसी भेल जाइछ जे क्रमशः साहित्य-सर्जना सँ विमुख कए दैत अछि। साहित्य-सर्जनाक लेल चाही अनुभूति आ खुटेसल केँ अनुभूति कतेक होएतैक? एकटा बड मेधावी कवि-कथाकार छलाह। किछुए दिन मे खूब लिखलनि। खूब छपलनि। प्रशंसा पओलनि। किन्तु किछुए वर्षक बाद लिखब बन्द भए गेलनि। किएक तँ अपन स्थानीय गुटबन्दी मे बेसी समय लगलनि। कैरियरक चिन्ता उमड़ि गेलनि। हँ, एकटा आर गप्प जे जाबल छथि, जे खुटेसल छथि, जनिका लेल साहित्य-सर्जना पार्ट टाइम जाॅब छनि, तनिका सँ चाहब जे ओ बहराय संघर्ष करथि, तँ मिथ्या-कथन होएत। ओ सभ ओतबहि दूर धरि भाषाक लेल वा साहित्य-रक्षाक लेल संघर्ष कए सकैत छथि, संघर्षक नारा लगा सकैत छथि, जाबत धरि जीविका पर कोनो खतरा नहि रहतनि।
चिन्तो उचिते छैक। जीविकाक चिन्ता नहि करत तँ की खाएत, अंग कोना झाँपत, बाल-बच्चा की खएतै। घटना थिक पचास-पचपनक। पटने मे रही। एक महानुभाव अएलाह। अपन पत्रिकाक लेल कविता चाहैत छलाह। गप्पे मे कहलिअनि, मच्छर बड़ कटैत अछि। एकटा मसहरी कीनि लेने आएब। पुनः कथी लेल घूमि केँ औताह। दाम बारह-चौदह टाका सँ बेसी नहि रहल होएतैक। एहन स्थिति सभ भाषाक संग रहलैक अछि। मैथिलीक स्थिति तँ आर दयनीय रहलैक अछि। ओ जखन अपन लेखकक पानो- सुपारीक बेगरता शान्त नहि कए सकैत अछि, तखन चूड़ा-दहीक कोन कथा?
जिज्ञासा – भोर मे हम दुनू गोटे गेल छलहुँ एक गोटे सँ भेंट करय। भेंट नहि भेल। गेल छलाह विद्यापति- पर्व मे। विद्यापति पर्व कतय जा रहल अछि?
– ई सुनितहिं महाकविक आकृति मे परिवर्तन आबि गेल। उठि केँ बैसि गेलाह। कहय लगलाह। ‘विद्यापति बिका रहलाह अछि। हुनका लोक सभ बेचि खा रहल अछि। ओहि ब्याजें अपन परिचय-पात बढ़ा, काज सुतारि रहल अछि। आयोजक केँ कवि नहि भेटैत छनि, मंच संचालक नहि भेटैत छनि। तखन हरि नाम स्मरण कीर्तन मण्डली झालि-मृदंगक संग जेना एक गाम सँ दोसर गाम जाइत रहैत अछि, सएह हाल मैथिलीक कवि ओ मंच-संचालकक भए गेल छनि। एहि सँ विद्यापतिक भाषा नहि, स्वयं विद्यापति ‘दुज्जन हासा’ बनि गेल छथि। एहन आयोजन सँ ने मैथिली भाषा केँ लाभ होइत छैक आने मैथिली साहित्य केँ।
कतेको कहताह जे जागरण अबैत अछि। की जागरण अबैत अछि? सोझे प्रस्ताव पास कएला सँ कतहु जागरण आबय? जँ देखितहुँ जे ओहि अवसरपर मैथिलीक पोथीक छुहुक्का उड़ि जाइत, से नहि तखन जागरण की होइत छैक? सुनैत होयब ‘करेजउ- करेजउ’बला गीत कतेक अनघोल कएने रहैत अछि, गामोबला बस सभ मे।
विद्यापतिक गीतक रक्षाक लेल, प्रचार-प्रसारक लेल संस्था सभ केँ चाहिऐक जे योजना बनाबय। यदि एक वर्ष मे विद्यापतिक गीतक कैसेट प्रत्येक संस्था तैआर करा लेअय तँ कतेक प्रचार होएत। विद्यापतिक गीत बिलाएत नहि, संस्थाक पाइ बोहेबा सँ बचत। भाषा-साहित्यक समृद्धिक लेल प्रत्येक संस्था प्रतिवर्ष पोथी छापय। पोथी नहि लिखल जायत, प्रकाशन नहि होएत, वितरण नहि होएत, लोक कीनत नहि तँ विद्यापतिक भाषाक रक्षा कोना होएत? वर्ष मे एक बेर ‘हरिनाम स्मरण कीर्तन मण्डली केँ नोति की लाभ? नटुआ, रंडी, सकरौड़ी स्टाइलबला कार्यक्रमक आयोजक ग्रन्थ-कीट नहि, पन्थ-कीट थिकथि। मैथिली संस्था सभ केँ अपना मे संघटन नहि अछि। आनक कोन कथा मैथिली शिक्षकोक कोनो संस्था नहि, एकठाम बैसारी नहि।
जिज्ञासा – मैथिलीक भाषिक संरचना बदलि रहल अछि। कतहु-कतहु तँ मात्र क्रियापदक अन्तर बुझना जाइछ। एकर की कारण?
– वेगवती नदी पार करबा काल तरबा तरक बालु घुसकैत प्रतीत होइत अछि। सएह हाल भाषाक छैक। ओकर संरचना पर युगक प्रभाव पड़बे करत। लोकक सम्पर्क गाम सँ छूटि रहल छैक। सभक भूगोल होइत छैक। भाषाक सेहो भूगोल छैक, अपन क्षेत्र छैक। ताहि सँ छूटि रहल अछि। आब क्षेत्र छोड़ि धिया-पुता शहर-बाजार मे रहय लागल अछि। दोसर-दोसर भाषा-भाषी सँ सम्पर्क बढ़ि रहल छैक। गाम-घर सँ सम्पर्क थोड़ भए रहल छैक। तखन मैथिलीक ठेठ शब्दक परिचय कोना रहत? यदि परिचये नहि तँ ओ बाजत कोना? बहुत लेखको शहर मे रहि जीविकोपार्जन कए रहल छथि, तखन भाषिक संरचनाक परिवर्तन कोना रोकल जा सकत?
जिज्ञासा – एम्हर मैथिली मे किछु लिखलिऐक अछि?
– नहि, सम्पर्क छूटल अछि। आब लिखब। मन मे लिखबा मे लेल घुरिआ रहल अछि। थीमक अभाव नहि छैक। मैथिलीक अनुरूप वातावरण दरभंगा मे भेटत जे अपन भाषाक भूगोलक अन्तर्गत अछि।
जिज्ञासा – मैथिलीक विकास सँ हिन्दीक कोनो हानि होएतैक?
– कोनो नहि। कोनो भाातीय भाषाक विकास भेला सँ साहित्यक विकास होएत। मैथिली केँ अपन भूगोल छैक, परम्परा छैक, प्रगतिशीलता छैक।
जिज्ञासा – मैथिलीक समर्थनमे दरभंगा सँ लए केँ पटना, दिल्ली धरि प्रदर्शन, अनशन होइत रहल अछि, मुदा कोनो उपलब्धिक संकेत नहि अछि। आन्दोलन केँ कोना उपलब्धिमूलक बनाओल जा सकैत अछि?
– सरकार कोन भाषा बुझैत अछि, से छपित नहि अछि। गोवा मे देखू, कोंकणी भाषी अपन हक हासिल कए लेलक। नेपाली भाषी दार्जीलिंग मे एकमत अछि। कर्नाटक मे कन्नड़-मराठी विवाद सरकार केँ पानि पिआ देलक। मुदा, मिथिलांचलक नेता ने तँ भाषाक विकास पर एकमत छथि आने आर्थिक विकासक नाम पर। जँ प्रदर्शन करब तँ अन्तिम समय मे आगू आबि निपत्ता भए जएताह। एहन-एहन मतिछिन्न नेताक बलें कार्य-साधन सन्दिग्ध अछि। सांस्कृतिक चारित्रिक जागरण आनय पड़त। भाषा-आन्दोलन केँ नवयुवकक बढ़ैत बेकारीक आन्दोलनक संग जोड़य पड़त। मिथिला मे लाखो बेरोजगार युवक छथि। हुनक उर्जा केँ, हुनकर आक्रोश केँ, हुनकर शिथिलता केँ भाषा-आन्दोलनक दिस मोड़य पड़त। जे दलीय आन्दोलन सँ उपर उठि सशक्त भए सकत आ सभ नेता केँ एकर संग देबाक बेगरता होएतनि।
मुदा, समस्या अछि जे ई काज के करत? ककर नोंत पर अनगनित बेरोजगार नवयुवक भाषा- आन्दोलन मे कूदि पड़ताह? एतेक अवश्य जे भूमि प्रस्तुत अछि। प्रयोजन अछि रस्ता धरएबाक। प्रयोजन अछि एक पटु विधकरीक, जे टेमी दागथि।
स्रोत: मिथिला मिहिर, अप्रैल 1987, द्वितीय पक्ष/भेंटघाँट, 1998 मे संकलित
डा. रमानन्द झा ‘रमण
भारतीय रिज़र्व बैंक सँ सेवा निवृत्त भ’ डा. रमानन्द झा ‘रमण सम्प्रति पटना मे रहैत छथि आ ‘चेतना समिति पटनाक पत्रिका ‘घर-बाहर’क संपादन करैत छथि । डॉ. झा केँ दर्जनों पोथी प्रकाशित छनि। हिनका सँ सम्पर्क हिनक फेसबुक आईडी https://www.facebook.com/ramanand.jharaman पर कयल जा सकैछ।