बहुत दिन पर मीनाक माय सँ भेंट भेल छलैक। हाल-सूरतिक गपसपक क्रम मे आदित्य केँ कहलनि, “मीना सँ गप नहि भेलए ? बड़ जोड़ दुखित अछि। मधबन्नी जायब, तँ देखि अयबै कने।” “नहि, एम्हर दू-तीन मास सँ गप नहि भ’ सकल अछि। की भेलैए?”
“किछ ने।” ट्रे मे चाह अनैत मीनाक मझिली बहिन नेहा बाजलि, “हिनका बुझल नहि हेतनि थोड़बे? ओहिना बजैत छथुन। ई मीना दी के फ्रेण्ड, फिलास्फर आ गाइड छथिन।” बजैत नेहा मुस्कायलि।
मुदा, माय से बात पतिआयलनि नहि, “नहि, हमरा फूसि नहि कहताह। नहि भेल हेतनि गप।” आ कह’ लगलीह, “कहाँदन बी पी बढ़ि गेलैए…कोलेस्ट्रॉल बढ़ि गेलैए। जोड़ सभ मे दर्द होम’ लगलैए… डाँड़ मे जे कतोक साल पहिने दर्द भेल रहै, सेहो उखड़ि गेलैए।”
“आब सभ किछ ठीक छैक।” नेहा बाजलि, “उम्र बढ़ैत छैक, तँ ई सभ होइते छैक। ओना तोरे बेटी छौक ने। ओहो मोनमे रखने छै जे फल्लाँ-फल्लाँ बीमारी भ’ गेल अछि हमरा। दिमाग सँ से बात हटि जेतै, तँ फिट भ’ जायति। हमरा देख। हम तँ बीमारी केँ कहैत छियैक जे हमरा देहमे आब’ सँ पहिने रजिस्ट्रेशन फीस आ एक मासक हॉस्टल फीस एडवांस देब’ पड़तौ। तेँ अबिते ने अछि।”
नेहा फिट अछि। पटना मे एकटा नमहर सन घर लीज पर लेने अछि आ वूमेन्स हॉस्टल चला रहलि अछि। पति रेल विभाग मे छथिन। बरोबरि टेनक संग चलायमान रहैत छथि। माय दुखित छलखिन, तेँ पटना आयल छलखिन।
माय बजलीह, “सैह देखियौ। ओकरा कोलेस्ट्रॉल केना भ’ गेलै? एहन दुब्बरि-पातरि केँ?”
“दुब्बरि-पातरि?” नेहा बाजलि, “तोरा तँ सभ दिन दुब्बरि-पातरि लगैत छौक। पहिने जकाँ सुट्टी-पिली। एकबाही तेहन नहि छै मीना दी, जे अनसर्ध लगै। सभ दिन ओकर देह भरायले रहलै। एके तरहक सीटल-साटल। की यौ?” आदित्य दिस तकैत बाजलि, “अहाँ एकटा फकरा पढ़ियै ने…सुट्टी-पिली रमभजुआक माय, डोका तीमन ले’ घुसकल जाय।”
“हइ, तेहन नहि छलि कहियो।” आदित्य बाजल, “हम तँ हँसी करैत कहने रहियै जे बेसी दुबरायब, तँ अहाँ केँ देखि यैह फकरा पढ़ब। तेँ खाइ-पीब’ मे लापरवाही नहि करू।”
“हँ, तखन तँ अहाँ-दुनूक सम्बोधन मे ‘अहीँ-अहाँ’ छल।” नेहा बाजलि, “एम एक परीक्षाक क्रम मे सम्बोधन ‘तोँ’ मे बदलि गेल ने?”
आदित्य गप केँ चाह दिस मोड़लक, “अरे, चाह सेरायल जाइत छौक।”
तीनू गोटे चाह पीब शुरु कयलक।
मीनाक दुखी होयबाक बात आदित्य केँ कोनादन लगलैक। की भेलैए मीना केँ? ठीके तीन-चारि मास सँ कोनो संपर्क नहि भेलैए। ओहो फोन नहि क’ सकल अछि। रवि दिन होइते कतेटा छैक? नोकरिहाराक रवि, नामे आयल पानि-गेल पानि। घरे-दुआरक काज सभमे किरिन डूबि जाइत छैक। ताहू मे ओहन नोकरिहारा जे रविए दिन क’ घर आबि पबैत अछि। पछिला कतोक दिन सँ मोन मे उपजैत छलैक, मुदा समय ससरि जाइक। मीना ओहिठाम नहि जा पाबय। अबेर भ’ जाइक।
ओना ओ कोनो समय मीनाक ओहिठाम जा सकैत छल। पहिने चलियो जाइत छल। बड़ी काल धरि बतियाइतो रहैत छल, मुदा आब तेना नहि करैत अछि। नहि जा पबैए, तँ फोनो ने क’ पबैए। एके शहर मे रहि फोन सँ गप करब मीना केँ पसिन नहि छैक। एकबेर आदित्य फोन कयने छल तँ मीना कहने छलि, “अपना घर पर सँ जे फोन टनटनबैत छें, से अपगरानि नहि होइ छौ? साहेबपनी देखबै छेँ। राख फोन आ दस मिनटक भीतर पहुँच। चारि मिनट तैयार होम’ लेल दैत छियौक आ बाइक सँ छओ मिनटक दूरी पर हम सभ छी। हँ, कहि दे, चाह पीबेँ कि काफी?”
आदित्य बाजि उठय, “पीबौ नहि, खेबौ। दही-चूड़ा।”
“से नहि भेटतौ। एहि जाड़क साँझ मे दही-चूड़ा नहि खुएबौ। दहिए-चूड़ा खेबाक रहौ, तँ दिन मे अबितेँ ने। समय दूरि नहि कर। पहुँच। तोँ पहुँचबेँ आ काफी तैयार रहतहुँ।”
तेँ मीना केँ फोन नहि करय। फोन करय तँ मीना एतबे कहैक जे कत’ छें? ओ जँ कहि दैक जे मधुबनीमे छी, तँ मीना एतबे बाजय जे घरे मे छी । आ ने । आ फोन काटि दैक। जँ घर मे नहि रहय, तँ कहि दैक के एत्ते काल बाद घर मे रहबौ । आ तत्ते काल बाद ओ घर मे रहैत छलि। कहियो इहो कहैक जे पहुँच ने घर पर। दुनू भाय-बहिन घरे मे छैँ, लगले अबैत छी।
मधुबनी मे रहि क’ आदित्य बुतेँ कहियो ई कहल नहि भेलैक जे ओ कोनो आन ठाम सँ गप क’ रहल अछि। बाहर सँ गप करय, तँ से बाजि दिअय आ तखन मीना खूब गप करैक। मीना केँ आदित्य पर बड़ भरोस छलैक।
नेहाक ओहिठाम सँ घुरैत काल आदित्य सोचैत छल जे कोना ओकरा दुनूक संबोधन ‘अहाँ’ सँ ‘तोँ’ मे बदलि गेलै? तैयारीक क्रम मे आदित्य मीना केँ कहने रहैक जे ओकरे कारण आदित्य इतिहास पढ़ि रहल अछि।
मीना केँ बुझबा मे नहि अयलैक। बाजल छलि, “से कोना?”
“अपन विषयक संग तोहर इतिहासक नोट्स सेहो कहियो काल बनबैत छी, तेँ…।”
“से तँ हम मानैत छी जे अहाँ डेढ़ विषय मे एम. ए. क’ रहल छी।” मीना बाजलि, “अहाँ अपन नोकरी आ परिवारक दायित्वक संग एतेक मेहनति क’ रहल छी, से अहीँ बुते संभव अछि।”
आदित्य केँ कोनादन लगलैक। ओ मीना केँ पहिल बेर ‘तोँ’ कहलकैक। बेस, कहि देलकै तँ भने कहि देलकै। ओ बाजल, “ई अहाँ-अहाँ की लगौने छें? तोहूँ ‘तोँ’ कहि सकैत छेँ। बुझायत जे तोहर बेसी ल’ग छी।”
तकर बाद सँ दुनू दिस सँ नव सम्बोधन होम’ लगलैक। मुदा, डेढ़ विषय बला बात बूझि नहि सकल छल आदित्य । पुछने छल मीना सँ । मीना कहने छलि, “एक विषय तोहर आ आधा विषय हमर। ओना हमहूँ तोरा विषय सँ किछ सिखलहुँ अछि।”
“से कोना?”
“बिसरभोर छेँ तोँ।” मीना बाजलि, “हमहूँ तोहर नोट्स उनटबैत रहैत छी। अभिनय पर तोहर नोट्स पढ़ने रही, खास क’ नेत्राभिनय पर। एकदिन रिहर्सल देख’ गेल रही आ तोँ जकरा सिखबैत रही, जानि नहि ओ कतेक सिखलकौ? मुदा, हम धरि सीखि लेलियौक।
आदित्य जहिया रंगकर्म मे सक्रिय छल, ओही समय मीना ओहिठाम गेल छल। मीनाक छोटकी बहिन बरखा ओकरा निर्देशन मे एकटा नाटक मे अभिनय क’ रहल छलि। पहिल बेर ओही समय मीना सँ भेँट भेल छलैक। तकर बाद भेंट-घाँट आ पढ़ाइ-लिखाइक क्रम चलैत रहलैक।
मीनाक बियाह मे आदित्य नहि गेल तकर दुख भेल रहैक मीना केँ । असल बात ई रहैक जे आदित्य चाहैत छल जे मीना आर पढ़य। मुदा, से भ’ नहि सकलैक। ओ मीनाक माय केँ कहने छल, “एखने एकर बियाह किएक क’ रहल छियैक? आर पढ़’ दियौक। नोकरी-चाकरी कर’ दियौक, तखन…”
मुदा, बिच्चहि मे मीनाक माय बाजलि छलीह, “नोकरी की करतै? आ एकरा बुते नोकरी की हेतै? हमरा बुते जते पार लगलै, पढ़ा देलियै। आब आगाँ ब’र आ सासुरक लोक जानय। तीन बहिन अछि मीना। कत्ते दिन ढ़ाँठि क’ रखबै?”
एकटा मायक चिन्ता केँ बुझलक आदित्य, मुदा जानि नहि मोनक एकटा कोन एहि चिन्ता केँ स्वीकारि नहि रहल छलैक। ओ मीना केँ कहलक, “गहने लेल भेलौ ने तोहर डिग्री?”
“हँ, हँ बियाहे लेल। आ तोँ किएक नाटक पढ़ि रहल छेँ? नोकरी तँ छौके। तोरो तँ गहने होयतौ ने? आ डिग्री गहनो होइ छै कलाकार बाबू।” मीना बाजलि, “माय-बाबूक अपन दायित्व छनि। एकटा हमहीँ नहि ने छियैक।” कने थम्हैत बाजलि, “बेस, छोड़ ई सभ। बियाहमे अयबेँ ने?”
“जँ नहि अयबौ तँ बियाह नहि करबेँ की?”
“बियाह तँ हेबे करतै।” मीना बाजलि, “से अयबेँ ने किएक? आ हे, दुनू प्राणी अबिहेँ ।”
मुदा, आदित्य बियाह मे उपस्थित नहि भ’ सकल। एकटा नाट्य समारोहक कारणेँ शहर सँ बाहर छल। तकर बाद बहुत दिन धरि मीनाक हालचाल ओकर माय सँ बुझाइक। मोबाइल फोनक समय नहि रहैक। मीनाक पति फौजी छलाह। किछु बर्ख पतिएक संग रहलि। बीच-बीच मे मधुबनी आबय, तँ भेंट होइक। भेंट होइक, से वैह पुरन केँ उत्साहक संग। ओ दुनू प्राणी आदित्योक ओहिठाम आबय।
समय बीतैत गेलैक आ ई दुनू अपन-अपन घर-परिवार आ धीयापुताक सांगह मे लागि गेल। मीनाक पति रिटायर भेलाह आ दोसर नोकरी पकड़लनि। मीना मधुबनिए मे अपन घर बनौलकि।
एकदिन आदित्य पुछने रहैक, “इतिहासक किछु मोन छौक कि नहि?”
“हँ, सभटा मोन अछि। इतिहासेक कारण तोहर सानिध्य भेटल, से कोना बिसरब?” मीना बाजलि, “तोहूँ तँ नाटक करब छोड़िए देलेँ।”
“नाटक कतहु छुटि सकैत छैक?”
“से ठीके कहैत छेँ। सभ नाटक करैत अछि- हमहूँ आ तोहूँ । अपनो दुनू गोटे नाटकक कलाकारे छी।” मीना बाजलि, “हमर एकटा काज क’ दे ने?”
“कोन काज?”
“हम घर बनाब’ चाहैत छी। किरायाक घर मे कतेक दिन रहब?”
“बना ले। जग्गह छौके। पाइ छौके। तँ देरी कथीक?”
“तोँ नक्सा बना देबेँ?”
आदित्य बड़ी जोड़ सँ हँसल। हँसैते बाजल, “अएं गे! हम कहियाक आर्किटेक्ट? हमर बनायल नक्सा सन घर बनयबेँ, तँ घर केहन लगतौ, तकर अन्दाज छौ?”
“केहन?”
“लुकिंग लन्दन टाकिंग टोकियो।” फेर हँसल।
“चुप रे बाबू! यैह तँ संकट छौक तोरा संग जे अपन क्षमताक अन्दाज नहि छौक तोरा।” मीना बाजलि, “तों रंगकर्मी छेँ । नाटक कयने छेँ । अभिनय कयने छेँ, निर्देशन कयने छेँ । रंगकर्मी केँ सभ विद्या अबैत छैक। तोँ अपन कतोक नाटकक लेल स्टेज क्राफ्ट कयने छेँ । छेँ ने?”
“हँ कयने छी।”
“तखन हमर घरक नक्सा किएक ने बना सकैत छें। मीना बाजलि, ” डिजाइन तोँ बनो। बाँकी काज इंजिनियर करतै।”
आदित्य निरुत्तर भ’ गेल छल। दुनू गोटेक प्राय: दसटा बैसकीक बाद मीनाक घरक नक्सा तय भेलैक। नक्सा मीनाक पति केँ सेहो नीक लगलैक। नक्सा मे आदित्यक पत्नी सेहो किछु मंतव्य देने छलि। हुनको अपन घर बनयबाक प्रायोगिक अनुभव छलनि।
नक्सा तय भेलाक बाद मीना कहने छलि, “तोहर बनायल नक्सा बला घरमे हम कहियो उदास नहि होयब।”
आदित्यक बदली भ’ गेलैक। बदलीक संग बहुत रास बात छुटि गेलैक। जेना, अनचोके मीनाक ओहिठाम दही-चूड़ा खायब। बड़ी-बड़ी काल धरि मीना सँ बतिआएब। ओकर धीयापूता सभ केँ खिस्सा-पेहानी सुनायब। जहिया कहियो मीनाक ओहिठाम जाय, ओहिने ओकर जेठकी बेटी, सौम्या, खिस्सा सुन’ लेल जिद क’ दैक। ओकरा खिस्सा सुनाबय, तकर बाद एकरा दुनूक गपसप होइक। मारिते रास खेरहा।
दही-चूड़ा खएबाक सेहो विचित्रे संयोग होइक। मीना आदित्यक पत्नी केँ फोन क’ दैक जे आइ टिफिन नहि देबै। आ टिफिनक समयमे आदित्य केँ फोन क’ दैक जे जल्दी आ। दही-चूड़ा बाट ताकि रहल छौक। पहिल बेर एहि सरप्राइज सँ चकित भेल छल आदित्य। तकर एकबेर ओहो एहिना कयलक। अनचोके मीना केँ फोन कयलक जे चूड़ा धो क’ राख। छओ मिनटमे पहुँचि रहल छियौ।
से, ई क्रम बदली भेलाक बाद छुटि गेलैक। बस, मोबाइल सँ गप होइक तँ एक-दोसरा केँ मोन पाड़ि दिअय।
एकदिन मीना फोन कयने रहैक, “रे बाबू! मधुर खा लिहेँ।”
“से किएक?”
“सन्नी फौज मे अधिकारी भ’ गेलौए।”
“वाह। नीक समाद।”
“एकटा आर काज।” मीना बाजलि।
बिच्चहि मे टीपलक आदित्य, “भोज करबाक छौक? रंगकर्मी भोजोक नक्सा बना सकैत अछि।”
“नहि रे। भोज हम किएक करब? भोज तोँ ने किएक करबेँ ? नहि क’ सकैत छेँ की?” मीना बाजलि, “सौम्याक लेल एकटा कथा तय भ’ रहल छैक। लड़का तोरे विभागमे नोकरी करैत छैक। डिटेल ह्वाट्स एप क’ दैत छियौक। पता क’ क’ कहिहेँ ।”
“वाह! एक संग कतोक खुशीक गप।” आदित्य बाजल, “मुदा, सौम्याक नोकरी तँ परमानेंट होम’ दितही। ओ तँ बहिनमे एकसरिए अछि। ओकरा सँ पुछलही? सुनि ले, हम नहि चाहैत छी जे ओकर इच्छाक विरुद्ध बियाह होइक। जँ ओ ककरो पसिन कयने होअय, तँ ओही पर विचार होअय।”
“नहि, तेहन किछु नहि छैक।” मीना बाजलि, “पहिने तँ बियाहक नाम पर माछिए ने बैस’ दिअय। मुदा, एम्हर दू मास पहिने ओकरा उदास देखलियै, तँ हम बियाहक चर्च कयलियैक। पतिएबही नहि जे ओ तुरन्ते मानि गेलि। तकर बाद हम सभ ताकाहेरी मे लागि गेलहुँ।”
आदित्य केँ हँसी सुझलैक, “अएं गे, बेटीक बियाह करबेँ, तखन बेटाक बियाह करबेँ आ तकर बाद तँ बूढ़ भ’ जेबेँ । बाबी- नानी बनि जेबेँ । नहि?”
ठोकले उतारा देलकि मीना, “किएक ने बनब। तोँ जे हमरा सँ पहिने बनि गेलेँ से। बाबा-नाना सेहो हमरा सँ पहिने तोहीँ बनबेँ ।”
“तैयो हम बूढ़ नहि होयब।” आदित्य बाजल, “कलाकार कतहु बूढ़ भेलैए?”
“कहलकै जे…।” मीना बाजलि, “हमहूँ कलाकार छी, कलाकार बाबू। हमरो कला अबैए।”
“केहन कला?” आदित्य बाजल, “आइ धरि देखलियौ नहि।”
“बूढ़ नहि होयबाक कला।” मीना बाजलि, “आब देखबेँ ।”
आ दुनू गोटेँ मोबाइले पर ठिठिया लागल।
सौम्याक कथा निस्तुकी नहि भ’ सकलैक। ई सभ दोसर-तेसर कथा-वार्ताक ताकाहेरी मे लागि गेल।
मीनाक दुखित होयबाक गप सुनि आदित्यक मोन मे एकटा कछमछी लागि गेलैक।
अगिले रवि क’ मधुबनी गेल। पत्नी नैहर गेल छलि। सोचलक, मीनेक ओहिठाम दिनमे दही-चूड़ा डंटायत। भानस घर मे लार-चार नहि ने कर’ पड़तै। आ ओ जे बुझतैक जे एकसरिए आयल अछि, त’ रातुक भोजन सेहो कराइए देतैक। भोरे त’ घुरिए जायत। एकसरुआ पुरुष केँ आर की चाही?
ओ मीना केँ फोन करबा लेल मोबाइल उठौलक। आ कि तखनहिँ मोन पड़लैक जे मीना दुखित अछि। ओ ओकर जिग्यासा कर’ जायत ने। नहि, फोन नहि करत। जँ ओकरा कोनहुना जनतब भ’ जयतैक जे आदित्य एकसरिए आयल अछि, तँ ओकर स्वास्थ्यक जे भ’ जाउक, आदित्यक भोजनक ओरिआओन करबे करति। नहि, आदित्य ओकरा फोन नहि करत। अनचोके साँझ खन पहुँचि जायत।
आ, सैह कयलक। करीब सात बजे ओकरा घरक कालबेल बजौलक त’ सौम्या केबाड़ खोललकि। सौम्या गोड़ लगलकि, त’ आदित्य पुछलक, “तोँ कहिया अयलही?”
“तीन दिन भ’ गेलै।” सौम्या बाजलि, “अहाँ कत’ रहियै? मम्मी केँ जखन-जखन दर्द उठैक, तँ अहीँक नाम लिअए- कलाकार…कलाकार…।”
“धुर बताहि, तोहूँ हँसी कर’ लगलेँ ?”
“नहि सिरियसली कहै छी अंकल।”
ओ दुनू भीतर गेल। ड्राइंग रूम मे बैसले छल कि मीना अपन चिर परिचित मुस्कानक संग आयलि। संग मे पति सेहो छलखिन। मीना केँ देखितहिँ आदित्य बाजल, “केहन बढ़ियाँ तँ छैक। की भ’ गेलौ गे?”
ओ मुस्कियाइते छलि। ओकर पति बाजि उठला, “हेतनि की? कने बी. पी. बढ़ि गेल रहनि। एकदिन घुर्मी लागि गेलनि, तँ खसि पड़लीह। कने ठेहुन ध’ लेलकनि। हिनकर माय सभठाम पसारि देलखिन जे मीना सिरियस छथि। हमरो फोन केलनि, सौम्या आ सन्नी केँ सेहो। सन्नी तँ सिविल नोकरी मे नहि अछि जे हरसट्ठे छुट्टी भेटि जयतैक। हम दुनू गोटेँ आयल छी। डाक्टर देखलकनि अछि। कहलकनि जे बढ़ैत उम्रक संग एहन उपद्रव शुरु भ’ सकैत छैक। मार्निंग वाक करथि। सभ ठीक भ’ जयतनि। मुदा…।”
“मुदा की ?”
“ई मान’ लेल तैयारे ने छथि जे हिनक उम्र बढ़ि रहल छनि। छथि एकदम फिट, मुदा मोन मे बैसेने छथि जे दुखित छी।” मीनाक पति बजलाह, “भने अहाँ आबि गेलहुँ । अहीँक बात बुझतीह। ब्रेनवाश करियनु हिनकर।”
मीना टोकलकि पति केँ, “भेल, बहुत भेल।” फेर आदित्य सँ पुछलकि, “अएं रौ कलाकार! असगरे अयलेहेँ । पत्नी केँ नहि अनलहुन। तोहूँ हमर जिग्यसे कर’ अयलेहेँ ने?”
“हँ । नेहाक डेरा पर गेल रही, तँ तोहर माय कहलनि।”
“तेँ ने पुछलियौ जे कनियाँ केँ किएक ने अनलहुन?”
“ओ नैहर गेल छथि।” आदित्य बाजल।
“मधबन्नी मे एसगरे छेँ आ एखनि अयलेहें एत’? भोरे त’ घुरि जयबें?”
मीनाक पति केँ कोनो काज मोन पड़लनि, “अहाँ सभ गप सप करू। हम कने गिलेसन सँ भेल अबैत छी।” आदित्य केँ कहलनि, “यौ कलाकार बाबू! हमरा आब’ सँ पहिने भागि नहि जायब।”
मीना पति केँ कहलकि, “भेने आउ ने। कतहु ने जायत ई।” आदित्य केँ कहैत बाजलि, “अएं रौ, दिन मे की खेलही? एत’ किएक ने आबि गेलेँ।”
आदित्य केँ कोनो बहन्ना नहि भेटलैक। आइधरि मीना सँ कोनो बहन्ना नहि कयने अछि। कोनो फूसि नहि बाजल अछि, तेँ अपन मोनक बात कहि देलक जे ओ दिन मे किएक ने आयल।
मीना बाजलि, “तोरा की बुझयलौ जे हम दुखित छी, तँ हमर आ हमरा घरक लोकक पेट मे गमछी बान्हल छैक। दिन मे होटल मे खयलही की?”
“नहि गे। अपन फेवरेट बनौलियै- भिन्डी दो प्याजा आ रोटी। दूध लेनहि रहियै।”
“मोन नहि भेलौ जे दही-चूड़ा खाइ।” मीना बाजलि, “कलेमचे बैस। गपसप कर। बहुत दिन भ’ गेल गप केला। बहुत रास गप अछि। खेनाइ खा क’ जइहेँ । भिन्डी दो प्याजा-तिन्डी दो प्याजा बनयबाक जरूरति नहि छैक।”
तखनहिँ सौम्या काफी ल’ क’ आयलि। कप उठबैत गेल, तँ सौम्या आदित्य सँ पुछलकि, “अंकल! अहांँ आ मम्मी, दुनू गोटे दोस्त छी ने?
आदित्य गंभीर भ’ गेल। बाजल, ” हँ।”
“दोस्त माने फ्रेंड ।”
आदित्य मीना दिस तकलक। ओकरा चेहरा पर अचरजक भाव देखलक।
सौम्या फेर पुछलकि, “फ्रेंड माने गर्ल फ्रेंड – व्याय फ्रेंड ।”
“हँ, हँ। मानि सकैत छेँ ।”
सौम्या बाजलि, “एकटा बात पुछू?”
“पूछ ने। एखनि धरि तँ पुछिए रहल छेँ ।”
“अहाँ दुनू गोटेक दोस्ती एतेक बर्ख धरि कोना टिकल अछि? कोन कारण?”
सगर्व बाजल आदित्य, “सम्बन्धक ईमानदारी आ गरिमाक निर्वाह करैत आबि रहल छी दुनू गोटे तेँ।”
मीना केँ रहल नहि गेलैक, “आ जीवन भरि निर्वाह करैत रहब।”
सौम्या बाजलि, “एकटा आर बात बुझ’ चाहै छी। जहिया अहाँ दुनूक मित्रता भेल रहय, तहिया अहाँ दुनू गोटे अनमैरिड रही कि मैरिड?”
आदित्य सहज रूपेँ बाजल, “हम मैरिड रही आ तोहर मम्मी अनमैरिड।”
लगलै जेना सौम्याक मोन मे किछु कचकि उठलैक। आदित्य सौम्याक मुहेंठ दिस तकलक। एके क्षण मे ओ कतहु डूबलि बुझायल। किछु सोचैत।
आदित्य बूझि नहि सकल जे सौम्या ककरा बारे मे सोचि रहल अछि? अपना बारे मे वा एकरा दुनूक बारे मे?
आदित्य आ मीना एक-दोसराक मुँह ताक’ लागल।
मैथिली कथा मे जे किछु कथाकार सब छथि ताहि मे प्रदीप बिहारी विश्वस्त नाम छथि। प्रदीप बिहारी छथि त’ भरोस अछि जे कथा साहित्य मकमकायत नहि। ‘औतीह कमला जयतीह कमला’, ‘मकड़ी, ‘सरोकार’, ‘पोखरि मे दहाइत काठ’ कथा संग्रह, ‘खण्ड खण्ड जिनगी’ लघुकथा संग्रह , ‘गुमकी आ बिहाड़ि’, ‘विसूवियस’, ‘शेष’, ‘जड़ि’ उपन्यास प्रकाशित आ कोखि एखन (प्रेस मे) छनि। एकर अतिरिक्त नेपाली सँ मैथिली आ नेपाली सँ हिंदीक कथा-कविताक लगभग छह टा अनुदित पोथी प्रकाशित छनि। पत्र-साहित्य मे ‘स्वस्तिश्री प्रदीप बिहारी’ (जीवकान्तक पत्र प्रदीप बिहारीक नाम), सम्पादित पोथी मे ‘भरि राति भोर’ (कथागोष्ठी मे पठित कथा सभक संग्रह) आ ‘जेना कोनो गाम होइत अछि’ (जीवकान्तक पाँचो उपन्यास)क अतिरिक्त संपादित पत्र-पत्रिका ‘हिलकोर’, ‘मिथिला सौरभ’ आ ‘अंतरंग’ (भारतीय भाषाक अनुवाद पत्रिका) प्रकाशित छनि। सर्वोत्तम अभिनेता पुरस्कार (युवा महोत्सव 1993 मे नाटक जट-जटिन मे अभिनय हेतु बिहार सरकार द्वारा), जगदीशचन्द्र माथुर सम्मान, महेश्वरी सिंह ‘महेश’ ग्रंथ पुरस्कार, दिनकर जनपदीय सम्मानक अतिरिक्त वर्ष 2007 मे कथा-संग्रह ‘सरोकार’क हेतु ‘साहित्य अकादेमी पुरस्कार’ देल गेल रहनि। कथाकार प्रदीप बिहारी सँ हुनक मोबाइल नम्बर +91-9431211543 वा ईमेल biharipradip63@gmail.com पर सम्पर्क कयल जा सकैत छनि।